17-Aug-2016 06:46 AM
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मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ और अलीराजपुर के 100 से ज्यादा गांवों में सिलिकोसिस की तबाही बढ़ती जा रही है। इन गांवों में कई मौत की नींद सो चुके। कई धीरे-धीरे उस तरफ बढ़ रहे हैं। कुछ कमजोर होते हुए जिंदा कंकाल हो चुके हैं तो कुछ ने खाट पकड़ ली है। धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले में पडऩे वाले आदिवासियों के कई गांवों का यही हाल है। ये गांव सिलिकोसिस की चपेट में हैं। लोगों की कराह से पूरा वातावरण शोकग्रस्त है। कई परिवारों पर तो सिलिकोसिस का कहर इस तरह टूटा है कि वे पूरी तरह से बर्बाद हो चुके हैं। ये सभी लोग उन आदिवासी मजदूर परिवारों से हैं जो आसपास काम न मिलने की वजह से पेट पालने के लिये पत्थर की पिसाई करने गुजरात गए थे। उन्हें काम तो मिला लेकिन इस दौरान सिलिकोसिस ने उन्हें ऐसा जकड़ा कि वे किसी काम के न रहे।
सिलिकोसिस की गंभीरता का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इससे पीडि़त मरीजों के बचने की कोई उम्मीद नहीं बचती। तिल-तिल कर मरने और हर पल मौत के इंतजार के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होता। अप्रैल 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले के 105 गांवों में सिलिकोसिस से हाहाकार मचा हुआ है। बीते करीब एक दशक के दौरान इस बीमारी के 1721 पीडि़तों में से 589 की मौत हो चुकी है और बाकी 1132 लोग हर एक दिन मौत के साए में दिन गुजार रहे हैं। सिलिकोसिस फेफड़ों की बीमारी है। पत्थर या सीमेंट की खदानों जैसी धूल भरी जगहों पर लगातार काम करते रहने से नाक के जरिये धूल, सीमेंट या कांच के महीन कण फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं। धीरे-धीरे व्यक्ति की शारीरिक क्षमता कम होती जाती है। वह दिन-ब-दिन सूखकर कांटा होता जाता है और आखिर में उसकी मौत हो जाती है।
अलीराजपुर जिले के मालाबाई, रोडधा और रामपुरा जैसे गांवों में यही हुआ है। कुछ परिवारों में मुखिया और औरतों की असमय मौत हो गई। उनमें अनाथ बच्चे रह गए हैं। इसी जिले की ध्याना पंचायत में 80 लोग अपनों को छोड़ इस दुनिया से विदा हो गए। इसी तरह झाबुआ जिले के मुण्डेत, बरखेडा और रेदता गांव के 150 से ज्यादा लोगों ने भी सिलिकोसिस के चलते दम तोड़ दिया। आदिवासियों के फलियों में कहीं अनाथ बच्चे हैं तो कहीं विधवाएं और कहीं परिवार का मुखिया बरसों से खटिया पकड़ कर आसमान की ओर टकटकी बांधे पड़ा है। उसकी सांसें अटक-अटक कर चल रही हैं मानो किसी भी वक्त शरीर का साथ छोड़ देंगी। झाबुआ, अलीराजपुर और धार जिले की 80 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। ये तीनों जिले मध्यप्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में से हैं। यहां रोजी-रोटी का भारी टोटा है। सरकारें इनके रोजगार के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करती हैं लेकिन नाकारा तंत्र और भ्रष्टाचार की वजह से इन तक धेला भी नहीं पंहुच पाता। रोजगार मिल भी जाता है तो मजदूरी पूरी नहीं मिलती। इलाके के 80 प्रतिशत गांवों से लोग मजदूरी के लिये पलायन कर जाते हैं। ज्यादातर लोग इन तीनों जिलों की सीमा से सटे गुजरात के गोधरा और बालासिन्नौर जाकर मजदूरी करते हैं। हालात ये हैं कि बारिश को छोड़ आठ महीने इन गांवों में सन्नाटा रहता है। घर भर के लोग कमाने जाते हैं। फलियों में सिर्फ बूढ़े होते हैं। गोधरा और बालासिन्नौर में पत्थरों की पिसाई के कई कारखाने हैं। इन पत्थरों की धूल से कांच बनता है। यहां बडी संख्या में आदिवासी काम करते हैं। पत्थरों की पिसाई के दौरान लापरवाही से जहरीली और घातक सिलिका धूल सांस के जरिये इनके फेफड़ों में जमा हो जाती है। तीन महीनों में यह महीन धूल फेफड़ों में सीमेंट की तरह जम जाती है। इससे सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। इस बीमारी को सिलिकोसिस कहा जाता है। आरोप आम हैं कि गुजरात की इन फैक्ट्रियों में गैरकानूनी तरीकों से मजदूरों से काम कराया जाता है। आदिवासी अज्ञानता की वजह से पेट के लिये यह काम करते हैं और अपनी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं। आज आलम यह है कि प्रदेश के तीनों जिलों में सैकड़ों लोग तिल-तिल कर मर रहे हैं।
लूप लाइन में जाने को तैयार...
इन क्षेत्रों में तीन स्वयंसेवी संगठन इन पीडि़तों की लड़ाई लड़ रहे हैं। सिलिकोसिस पीडि़त संघ के दिनेश रायसिंह, कुंवरसिंह और खेमसिंह बीमार लोगों के साथ मिलकर उन्हें उनके अधिकारों के बारे में सजग कर रहे हैं। इसी तरह संगठन नई शुरुआत के अमूल्य निधि, मोहन सिंह सुल्या और राकेश सस्तिया लोगों के साथ मिलकर सरकार के खिलाफ अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। जन स्वास्थ्य अभियान भी इसमें मदद कर रहा है। तीनों संगठनों ने 2005-06 में इन जिलों के 21 गांवों का सर्वे किया था। सर्वे में पाया गया था कि 489 लोग इस बीमारी से पीडि़त हैं और 158 लोगों की मौत हो चुकी है। 2008 में 40 गांवों के सर्वे हुआ जिसमें 199 लोगों की मौत का दावा किया गया। 2011-12 में भी एक सर्वे हुआ जिसमें मौतों का आंकड़ा 503 था जिसके 2016 में बढ़कर 589 तक पहुंचने की बात कही जा रही है। नई शुरूआत से जुड़े अमूल्य निधि के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा था कि गुजरात के पत्थर घिसाई कारखानों में पर्यावरण और स्वास्थ्य मानकों का ध्यान नहीं रखा जाता।
-इंदौर से विकास दुबे