17-Aug-2016 06:21 AM
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गुजरात यानी भाजपा का अभेद्य किला। ऐसे किले का किलेदार बनने के लिए या बने रहने के लिए लोग नैतिकता को भी दांव पर लगा देते हैं। लेकिन आनंदीबेन पटेल ने इस राज्य की किलेदारी (मुख्यमंत्री पद) इसलिए छोड़ दी की वे 75 साल की होने वाली है। मगर उनकी इस बात पर किसी को विश्वास नहीं होता। क्योंकि अगर उनमें इतनी नैतिकता होती तो ऐसे कई अवसर आए जब उनकी कुर्सी पर आरोप लगे, लेकिन वे टस से मस नहीं हुईं। दरअसल आनंदीबेन के कार्यकाल में गुजरात में न केवल भाजपा का जनाधार कम हुआ है बल्कि प्रदेश में सरकार के खिलाफ जबर्दस्त माहौल बना है। जिससे निपटने में आनंदीबेन और उनकी सरकार विफल रही है। ऐसे में अपने दरकते भगवा दुर्ग को बचाने के लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह के इशारे पर आनंदीबेन ने अपनी बलि दी है।
दरअसल, पार्टी ने लगभग 25 वर्ष के शासनकाल में जो लोकप्रियता हासिल की थी उसे आनंदीबेन ने नुकसान पहुंचाया है। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की बंपर जीत और पीएम मोदी के दिल्ली जाने के बाद, नरेंद्र मोदी ने आनंदीबेन को गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में चुना था। आनंदीबेन पटेल राज्य के प्रशासन में अमित शाह के कथित हस्तक्षेप से परेशान थीं। बताया जाता है कि शाह के साथ उनके संबंध बहुत अच्छे नहीं है। इस कारण राज्य के अधिकारी मुख्यमंत्री की अनदेखी करते हुए सीधे शाह के पास अप्रोच करते थे। ऐसे में स्थिति यह थी कि आनंदीबेन जहां एक तरफ सरकार में शाह के हस्तक्षेप से परेशान थीं, वहीं सरकार के खिलाफ लगातार जन आक्रोश फैल रहा था। गुजरात में पिछले दो सालों के घटनाक्रम पर अगर नजर डाले तो आनंदीबेन पटेल सरकार की कथित नाकामियों से वहां भाजपा की परेशानी बढऩे के संकेत थे।
दरअसल, गुजरात में अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव हैं। पिछले महीनों में जिस तरह वहां पटेल आंदोलन ने रंग लिया और फिर स्थानीय चुनाव में भाजपा की शिकस्त हुई, उससे नेतृत्व पहले से आशंकित था। मुख्यमंत्री के बदलाव की मंशा तो पहले से थी लेकिन पिछले दिनों आनंदीबेन की पुत्री अनार पटेल के खिलाफ कुछ मामलों ने इसे और तेज कर दिया। ऊना में गाय की खाल को लेकर दलितों की पिटाई को मुद्दा बनाकर विपक्ष जिस तरह गोलबंद है, इस मुद्दे से भी पार्टी नेतृत्व चिंतित था। पाटीदार आंदोलन के बाद अहमदाबाद में हुई दलितों की रैली दूसरी ऐसी बड़ी और सफल रैली रही जिसमें सत्ताधारी भाजपा की कोई भूमिका नहीं थी, बल्कि यह दोनों रैलियां भाजपा के खिलाफ थीं। 31 जुलाई को हुई रैली में करीब 25 हजार दलितों नेे हिस्सा लिया और उन्होंने मरे हुए जानवरों को नहीं उठाने का संकल्प लिया। रैली के अगले ही दिन मुख्यमंत्री आनंदी बेन ने सोशल मीडिया पर अपने इस्तीफे की घोषणा करते हुए पार्टी आलाकमान से गुजरात भाजपा को नया नेतृत्व दिए जाने की मांग की। आनंदीबेन ने 75 साल की उम्र का हवाला देते हुए खुद को हटाए जाने की मांग की है, लेकिन उनसे इस्तीफा लिया गया है। पटेल होने के बावजूद आनंदीबेन न केवल पाटीदार आंदोलन बल्कि दलित आंदोलन से पैदा हो रहे सामाजिक असंतोष को खत्म करने में विफल रही हैं। यही कारण है कि पार्टी ने आनंदीबेन को इस तरह किनारे लगाया कि लाठी भी न टूटे और सांप भी मर जाए। लेकिन लोठी पटकने की आवाज तो बाहर आ ही गई है।
रूपानी के सामने चुनौतियों की भरमार
गुजरात में नए मुख्यमंत्री के रूप में विजय रुपानी की ताजपोशी हो चुकी है। वहां पर 14 माह बाद विधानसभा चुनाव संभावित हैं और यह देखते हुए रुपानी के लिए अपने पार्टी कैडर में पुन: जोश का संचार करने और लोगों का भरोसा वापस जीतने की चुनौती आसान नहीं रहने वाली है। रुपानी को खासकर उस वोट बैंक को अपनी पार्टी के साथ पुन: जोडऩे के लिए काफी मेहनत करनी होगी, जो आनंदीबेन पटेल के दो साल के कार्यकाल में दूर छिटक गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि गुजरात में सत्ता गंवाने से उनकी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर भी गहरा आघात लगेगा। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल तो प्रभावित होगा ही, साथ ही उनकी स्थिति भी कमजोर होगी और उनके लिए केंद्रीय सत्ता में वापसी करने की राह और दुष्कर हो जाएगी। इससे पिछले बिहार विधानसभा चुनाव की तरह विपक्षी दलों द्वारा अपने वोट वैंक को सुदृढ़ करने के प्रयास और परवान चढ़ेंगे। भाजपा और मोदी अब भी स्थितियों को संभाल सकते हैं, लेकिन यह तो तय है कि उनकी राह आसान नहीं रहने वाली है। गुजरात में खासकर दो वजहों से भाजपा के लिए हालात विकट हो गए। पहले पाटीदार समुदाय ने नौकरियों व शिक्षा में ओबीसी की तरह कोटा निर्धारित करने की मांग को लेकर आंदोलन की राह पकड़ी, जिसके चलते इस आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल को जेल में भी डाल दिया गया। इसके बाद उना में एक मृत गाय की चमड़ी निकालने वाले कुछ दलित युवाओं की बेरहमी से पिटाई के मामले ने तूल पकड़ लिया। इन मामलों के चलते पटेल और दलित दोनों समुदाय भाजपा के प्रति आक्रोशित हैं।
-विशाल गर्ग