आखिर कितने आजाद हैं हम?
17-Aug-2016 06:09 AM 1235136
15 अगस्त, 1947 को आधी रात के वक्त, जब पूरा देश गहरी नींद में सोया हुआ था, वर्षों की गुलामी के घने कुहरे को भेदती हुई रोशनी की एक लकीर दाखिल हुई और लंबी दासता के बाद देश ने एक आजाद सुबह में आंखें खोली। यह आजादी अकेली नहीं आई थी। अपने साथ लाई थी, बंटवारे का दर्द और ऐसे गहरे घाव, जो आने वाली कई सदियों तक भरे नहीं जा सकते थे। अंग्रेज हुक्मरान जाते-जाते देश की जमीन को दो टुकड़ों में बांट गए। यह बंटवारा सिर्फ जमीनों का ही नहीं था, यह बंटवारा था दिलों का, स्नेह का, अपनों का, भारत की गौरवमयी साझा सांस्कृतिक विरासत का। यह बंटवारा था, सिंधु-घाटी की सभ्यता, हड़प्पा-मोहनजोदड़ों का। यह बंटवारा उत्तर में खड़े हिमालय का था। उन हवाओं का था, जो इस देश की जमीन से बहकर उस देश की जमीन तक जाती थीं। यह बंटवारा था, इकबाल और मीर का, टैगोर और नजरुल इस्लाम का। कला, साहित्य, संगीत हर चीज को फिरंगियों ने अपनी तेज कटार से दो टुकड़ों में बांट दिया था और हम निरीह सिर्फ उसकी तड़प को महसूस कर पा रहे थे। यह इनसानी रिश्तों, अपनों और सबसे बढ़कर लोगों के दिलों का बंटवारा था। रातों-रात लोग अपने घर, जमीन, खेत-खलिहान सब कुछ छोड़कर एक अनजान धरती के लिए निकल पड़े, जो अंग्रेजों के कानूनी कागजों के मुताबिक उनका नया देश था। आम आदमी के लिए इस आजादी का अर्थ समझना थोड़ा मुश्किल था, जो उनसे उनकी जड़-जमीन सब कुछ छीने ले रही थी। भारत आज भले ही भौगोलिक रूप से एक स्वतंत्र देश है लेकिन इस देश के बाहर की त्रासदी और भीतर की समस्याओं ने हमें इस कदर ग्रसित कर रखा है कि हम एक दूसरे किस्म की परतंत्रता के शिकार हो गए हैं। हालांकि देश को इन समस्याओं से निजात दिलाने के लिए हमारे प्रधानमंत्रियों ने समय-समय पर कई सार्थक कदम उठाए लेकिन समस्या जस की तस है। यही नहीं और नई-नई समस्याएं हमें घेरती जा रही है। विश्व राजनीतिक मानचित्र पर आज भारत का स्थान जिस प्रमुखता से उभरा है, श्रेय भारत के प्रधानमंत्रियों की कार्यकुशलता, नेतृत्व और निर्णय की क्षमता को जाता है। आजादी के बाद, शासन की जो प्रणाली भारत में अस्तित्व में आई, उसमें एक राष्ट्र और उसके जन-जीवन का सारा दारोमदार प्रधानमन्त्री पर होता है। इस प्रकार एक राष्ट्र के रूप में भारत की सफलताओं और उपलब्धियों का समूचा इतिहास अब तक के सभी प्रधानमन्त्रियों की कार्यशैली और नैतृत्व क्षमता में ही निहित है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक सभी 15 प्रधानमंत्रियों ने देश को अपने हिसाब से चलाया है। इनके शासनकाल में जहां देश कुछ कदम आगे बढ़ा है वहीं कई समस्याएं भी खड़ी हो गई हैं। जो दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि समस्याओं से ग्रसित जनसमुदाय में स्वतंत्रता दिवस का जोश नहीं दिखता है। आलम यह है कि देश में सरकार को आजादी का जश्न मनाने के लिए इतनी मेहनत इसलिए करनी पड़ रही है क्योंकि लोगों में उत्साह नहीं है। आखिर हो भी कैसे? 70 दशक तक तो इन्हें केवल सपने दिखाए गए हैं। भारत की आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरु भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 (16 साल 286 दिन) तक देश की सेवा की। जवाहर लाल नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद खस्ताहाल और विभाजित भारत का नवनिर्माण करना कोई आसान काम नहीं था लेकिन पंचवर्षीय योजना उनकी दूरदृष्टि का ही परिणाम था जिसके नतीजे वर्षों बाद मिल रहे हैं। स्वस्थ लोकतंत्र की नींव रखने और इसे मजबूत बनाने में पंडित नेहरू का महत्वपूर्ण योगदान था। चीन के साथ दोस्ती की पहल उन्होंने काफी ईमानदारी से की थी और पंचशील और हिन्दी चीनी भाई-भाई का नारा दिया लेकिन 1962 में भारत पर चीन के हमले से वह काफी आहत हुए और कुछ लोग इसी को उनके निधन का कारण मानते हैं। उनके निधन के बाद गुलजारी लाल नंदा भारत के पहले कार्यकारी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने 27 मई 1964 से 9 जून 1964 तक 13 दिन के लिये नए प्रधानमंत्री के चुनाव तक इस पद पर कार्य किया। लेकिन इनके कार्यकाल में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। तत्श्चात् स्वतंत्र और गणतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री बने जिन्होंने 1 साल 216 दिन तक प्रधानमंत्री के रुप में राष्ट्र की सेवा की। शास्त्री के शासनकाल में 1965 का भारत-पाक युद्ध हुआ जिसमें भारत ने पाकिस्तान को धूल चटा दी।  शास्त्री ने खाद्य की कमी से जूझ रहे भारत को जय जवान जय किसान का जोशीला नारा दिया था। अपने कार्यकाल के दौरान सोवियत संघ के ताशकंद (वर्तमान उज्बेकिस्तान) में 11 जनवरी 1966 को इनका निधन हो गया था। इनके निधन के बाद गुलजारी लाल नंदा दूसरी बार कार्यकारी प्रधानमंत्री बने। इस बार भी इनका कार्यकाल (11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966) सिर्फ 13 दिनों का ही था। इंदिरा गांधी भारत की तीसरी (पहली महिला) प्रधानमंत्री बनी और 24 जनवरी 1966  31 अक्टूबर 1984 तक उन्होंने देश के उत्थान के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उचित और तुरंत निर्णय लेने की क्षमता ने कांग्रेस सरकार में इंदिरा गांधी की महत्ता और उनके कद को कई गुणा बढ़ा दिया था। अपने दृढ़ और संकल्पशील आचरण की वजह से वह दो बार देश की प्रधानमंत्री रहीं। खलिस्तान आंदोलन को कुचलने और स्वतंत्र भारत में व्याप्त रजवाड़ों का प्रीवी-पर्स समाप्त करने का श्रेय इंदिरा गांधी को ही जाता है। देश में पहला परमाणु विस्फोट करने का श्रेय भी मुख्य रूप से इंदिरा गांधी को ही जाता है।  बैंकों का राष्ट्रीयकरण सर्वप्रथम इंदिरा गांधी ने ही किया था। पांचवी पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत गरीबी हटाओ का नारा दिया और देश से निर्धनता समाप्त करने के बीस सूत्रीय कार्यक्रमों का निर्धारण किया गया। लेकिन इनके सारे प्रयासों पर इनके शासनकाल में लगाई गई दमनात्मक इमरजेंसी ने पानी फेर दिया। लेकिन इंदिरा गांधी ने भारत की मुसीबत बने पाकिस्तान को दो भागों में विभाजित कर अलग बांग्लादेश बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंदिरा गांधी के बाद मोरारजी देसाई भारत के चौथे प्रधानमंत्री और चौधरी चरन सिंह पांचवे प्रधानमंत्री बने। लेकिन इनके कार्यकाल केवल राजनीतिक उठा-पटक वाले ही रहे। इस कारण इंदिरा गांधी को एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला। 31 अक्टूबर 1984 को उनकी हत्या के बाद राजीव गांधी देश के सातवें प्रधानमंत्री बने। वे भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री थे। भारत में कंप्यूटर क्रांति की शुरुआत करने वाले राजीव गांधी एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने तकनीक प्रधान भारतीय समाज जैसे सपने को हकीकत में सच कर दिखाया। भारत में गरीबी के स्तर में कमी लाने और गरीबों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए 1 अप्रैल सन 1989 को राजीव गांधी ने जवाहर रोजगार गारंटी योजना को लागू किया जिसके अंतर्गत इंदिरा आवास योजना और दस लाख कुआं योजना जैसे कई कार्यक्रमों की शुरुआत की। लेकिन इनके कार्यकाल में बोफोर्स जैसा घोटाला होने के कारण इनके सभी किए कराए पर पानी फिर गया। इनका निधन 21 मई 1991 में 46 साल की उम्र में तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदुर में हुआ। राजीव गांधी के निधन के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के आठवें प्रधानमंत्री बने। इनके कार्यकाल की सबसे बड़ी विशेषता या विसंगति मंडल आयोग की अनुशंसाएं लागू करना रहा। जिससे देश में आरक्षण का विष बोया गया था। भारत के नौंवे प्रधानमंत्री के रुप में चन्द्रशेखर ने 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991 तक देश की सेवा की। उसके बाद पामुलापर्ती वेंकट नरसिम्हा राव भारत के दसवें प्रधानमंत्री बने।  जिन्होंने 21 जून 1991 से 16 मई 1996 (4 वर्ष 330 दिन) तक देश के पीएम के रुप में सेवा की। भारत का सौभाग्य था जो 1991 में उसे पीवी नरसिंहराव के रूप में प्रधानमंत्री मिला। उन्होंने नेहरू के लाईसेंस, समाजवादी अंधकार से देश को बाहर निकाला।  एक तरफ राजीव, वीपीसिंह, चंद्रशेखर के राज की दिवालिया नीतियों से भारत अपना 67 टन सोना ब्रिटेन और स्विट्जरलैंड को बेचने को मजबूर था। भारत के पास जरूरी आयात के लिए विदेशी करेंसी नहीं थी तो दूसरी और नरसिंहराव हिम्मत दिखा रहे थे कि जो चला आ रहा है उसे बदलना है। नरसिंहराव की हिम्मत के हिमालय से ही भारत के आर्थिक सुधार निकले। राव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। अपने पहले कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी 16 मई 1996 से 1 जून 1996 (13 दिन) तक देश के प्रधानमंत्री रहें। लेकिन उन्होंने कुर्सी पर जमें रहने के लिए सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उसके बाद हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवगोड़ा भारत के ग्यारहवें और फिर  इंद्र कुमार गुजराल 12 वे प्रधानमंत्री बने। इन दोनों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा से भारत के तेरहवें प्रधानमंत्री बने। इस दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए। जिनमें पोखरण विस्फोट प्रमुख है। वाजपेयी के बाद मनमोहन सिंह देश के चौदहवें प्रधानमंत्री बने। इनका कार्यकाल 10 साल का रहा। इनके कार्यकाल में सर्वाधिक घपले-घोटाले हुए। जिससे त्रस्त होकर जनता ने नरेन्द्र मोदी को पंद्रहवें प्रधानमंत्री के रूप में भारत की बागडोर सौंपी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों के मन में आजाद मुल्क का नागरिक होने का भाव तो जगाया है। उन्होंने विदेशों में भारत का परचम लहराया है। जिससे हर भारतवासी गौरवांवित महसूस कर रहा है। लेकिन समस्याएं आज भी वहीं है। जो पिछले 14 प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में रही। यानी आज भी पाकिस्तान हमारा सुख चैन छीन रहा है। चीन आज भी हमें घुड़की दे रहा है। इन 70 वर्षों में देश के लगभग हर हिस्से में अलोकतांत्रिक व्यवहार, धरना, प्रदर्शन और हिंसा के चलते मनमानी तंत्र ही नजर आया। इस मनमानी के चलते देश में अलगाववादी, आतंकवादी, प्रांतवादी, सांप्रदायिक, भाषावादी और भ्रष्टाचारवादी प्रवृत्तियां पनपती रहीं और देश को विखंडित किए जाने का दुष्चक्र चल रहा जो आज अपने चरम पर है। क्या आजादी का यही मतलब है कि हम नए तरीके से गुलाम होने या विभाजित होने के रास्ते खोजें? कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और खंभात से लेकर सिक्किम तक भारतवासी भय, भुखमरी और असुरक्षा की भावना में जी रहे हैं। हमने तरक्की के नाम पर युवाओं के हाथों में मोबाइल, इंटरनेट, शराब की बोतल, धर्म और राजनीति का झंडा दे दिए, लेकिन अपना सुख-चैन, आपसी प्रेम और विश्वास खो दिया। स्वतंत्रता के बाद पहले जयप्रकाश नारायण के जनआंदोलन के कारण इमरजेंसी ने आजादी पर ग्रहण लगाया, फिर मंडल आयोग ने देश के सामाजिक ताने-बाने में सेंध लगाई। बाबरी ढांचे के विध्वंस का तमाशा सबने देखा। फिर मुंबई बम कांड और फिर गोधरा कांड के कारण गुजरात दंगों के दंश को झेला। आरक्षण के नाम पर छात्र आंदोलन की आग बुझी ही नहीं थी कि गुर्जर और मीणाओं की तनातनी भी देखी। फिर आ गए अन्ना हजारे जिनके आंदोलन को अरविन्द केजरीवाल ने भस्म कर कर दिल्ली के सिंहासन को अपने कब्जे में कर लिया। अब गुजरात में पाटीदार फिर दलित आंदोलित हैं। हर आंदोलन ने देश में असंतोष की आग तो लगाई साथ ही नए राजनेता पैदा कर दिए जिसमें आश्चर्यजनक रूप से वे लोग हमेशा से ही हाशिये पर धकेल दिए गए जिन्होंने आंदोलन की शुरुआत की या तो आंदोलन के पूल थे। मेन स्ट्रीम में आ गए वे नकली लोग जो सत्ता के भूखे और चालक लोग थे। ऐसे लोगों के कारण ही हमारी आजादी किसी काम की नहीं रही। इसलिए इस देश को एक और आजादी की जरूरत है। और उसे कौन दिलाएगा। यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। आजाद हिन्दुस्तान में आजादीÓ की तलाश देश को आजाद हुए 7 दशक हो रहे हैं। इस दौरान हिन्दुस्तान में बहुत कुछ बदला, लेकिन अगर कुछ नहीं बदली तो वो है गुलामी की मानसिकताÓ। 1947 का उजाला आज संगीन अंधेरी रात की शक्ल ले चुका है। साम्राज्यवाद और देशी पूंजीवाद के राहु-केतु ने हिन्दुस्तान के विकास के सूरज को पूरी तरह से ग्रस्त की लिया है। दरअलस आजादी का झंडा बुलंद करने वाले राजनेताओं की बातों पर भरोसा करें तो विदेशी पूंजी निवेश के बिना न तो देश का विकास संभव है और न ही देश में रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। हकीकत यह है कि देश की पूंजी, अगर भ्रष्टाचार में बर्बाद नहीं हो तो देश का एक भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं रहेगा और यदि बेईमान लोगों के पास पूंजी जमा न होकर जब देश के ढांचागत विकास एवं व्यवसाय में लगे तो देश में इतनी समृद्धि आ जाएगी कि हम दूसरे देशों को पैसा ब्याज पर देने की स्थिति में होंगे। जरा सोचिए, भारत इतना गरीब देश है कि सवा लाख करोड़ के नए-नए घोटाले आम हो गए हैं। क्या गरीब देश भारत से सारी दुनिया के लुटेरे व्यापार के नाम पर 20 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष ले जा सकते हैं? विदेशी बेंकों में जमा धन कितना हो सकता है? ये कैसी आजादी की बात हम कर रहे हैं जिसमें अरबों-खरबों के घोटाले, जातिवादी और कट्टरपंथी धार्मिक राजनीतिक के हथकंडे, सांप्रदायिक दंगे, दलित उत्पीडऩ, महिलाओं के खिलाफ हिंसा का प्रकोप के बीच पूरा हिन्दुस्तान अपने होने के अस्तित्व से जूझ रहा है। क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि आजाद हिंदुस्तान में हम एक और आजादी ढूंढ रहे हैं। आजादी के समय और आजादी के 7 दशक बाद भारत 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ उस समय भारत न सिर्फ विदेशी कर्जों से मुक्त था, बल्कि उल्टे ब्रिटेन पर भारत का 16.62 करोड़ रुपए का कर्ज था। आज देश पर 70 अरब रुपए से भी ज्यादा का विदेशी कर्ज है। आजादी के समय जहां एक रुपए के बराबर एक डॉलर होता था, आज एक डॉलर की कीमत 67 रुपए है। महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। जल्द ही ये स्थित नहीं सुधरी तो हम मानसिक गुलामी से तो उबर नहीं पाए और आर्थिक गुलामी के चंगुल में फंस जाएंगे। आजाद हिन्दुस्तान में आम आदमी को ना तो भूख से आजादी है और ना ही बीमारी से। शिक्षा के अभाव में वह अंधविश्वास का गुलाम बना हुआ है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी कन्या भ्रूण हत्याएं समाप्त नहीं हो सकी हैं और ना ही बाल विवाह और दहेज को लेकर महिलाओं का उत्पीडऩ। इससे पूरा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का सवाल है, इसके लिए दिखाने को कानून बहुत से हैं पर यहां भी इन तबकों की आजादी पूरी नहीं समझी जा सकती। विडंबना यह भी है कि सरकार आंकड़ों की भूल-भुलैया में आलोचकों को उलझाकर गद्दी पर बने रहना ही अपना कर्तव्य समझती है। बंधुआ मजदूर हो अथवा कर्ज में डूबे खुदकुशी करने वाले किसान या फिर गरीबी की सीमा रेखा के नीचे 20 रुपए रोज पर जिंदगी बसर करने वाले दिहाड़ी मजदूर, खुद को आजाद कैसे समझ सकते हैं भला?
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