01-Aug-2016 09:14 AM
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सुप्रीम कोर्ट के बाद अब कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने राज्यपाल के पद के औचित्य पर सवाल खड़ा किया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो बराबर आवाज उठाते ही रहे हैं अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी राज्यपाल की भूमिका पर सवाल खड़ा किया है। यह सवाल उस समय खड़े किए गए जब 10 साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में 16 जुलाई को दिल्ली में अंतर राज्यीय परिषद की बैठक हो रही थी। पिछली बार केंद्र और राज्यों के मुख्यमंत्री दिसंबर, 2006 में मिले थे। इससे आप समझ सकते हैं कि केंद्र और राज्य दोनों ही अंतर राज्यीय परिषद को लेकर कितने गंभीर हैं। जबकि बैठक में जिस तरह से खुलकर बातें हुईं, उससे लगता है कि केंद्र और राज्यों के संबंधों को मजबूत करने के लिए कितना जरूरी और गंभीर मंच है।
वैसे तो इस बैठक में कई मुद्दों पर चर्चा हुई और राज्यों ने केन्द्र सरकार को घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सबसे ज्यादा आवाज उठी राज्यपाल के खिलाफ। अगर आप सभी के भाषणों से अलग-अलग तत्वों को लेकर राज्यपाल की छवि बनाएं तो कुछ इस तरह उभरेगी। जैसे राज्यपाल राज्यों में केंद्र की तरफ से लगाया जाने वाला सीसीटीवी कैमरा है। जिसका काम है कि मुख्यमंत्री के दफ्तर में कौन मिलने आ रहा है और कौन वहां से निकलकर उनसे मिलने आ रहा है। इन सबका वीडियो फुटेज रिकार्ड करना और उसकी सीडी केंद्र को भेजना राज्यपाल का काम रह गया है। हाल के कई मामलों में विधायक अपनी सरकार और नेता से नाराजगी और अविश्वास की चि_ियां राज्यपाल को भी लिखते रहे हैं और राज्यपाल स्वीकार भी करते रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने राज्यपाल नामक सीसीटीवी कैमरे से साफ-साफ कहा है कि वो केंद्र का एजेंट नहीं है। लिहाजा मुख्यमंत्रियों को लगता है कि यह सीसीटीवी कैमरा उनके कमरों में कुछ ज्यादा ही दखल देने लगा है। इसलिए इस सीसीटीवी कैमरे को ही हटा देना चाहिए ताकि मुख्यमंत्रियों को लगे कि वे किसी निगरानी में नहीं हैं। नीतीश कुमार ने कहा कि जब तक इसे हटाया नहीं जाता, इसके लगाने की प्रक्रिया पारदर्शी हो और अरविंद केजरीवाल ने कहा कि मुख्यमंत्री से पूछकर इसे लगाया जाए। जयललिता ने कहा कि राज्यपाल नाम के इस सीसीटीवी को महाभियोग के बाद ही हटाया जाना चाहिए न कि राष्ट्रपति की मर्जी से। नीतीश ने कहा कि जब लगा ही रहे हैं तो कैमरे का रिमोट मुख्यमंत्री के पास हो और यह राज्य मंत्रिमंडल की सहायता और परामर्श से काम करे। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने और कोर्ट में इसे गलत साबित होने के बाद कई राज्य राष्ट्रपति शासन लगाने की धारा 356 को लेकर काफी आशंकित दिखे। खासकर गैर भाजपा सरकारों के मुख्यमंत्री। भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने केंद्र द्वारा राज्यों के अतिक्रमण का सवाल नहीं उठाया। आखिर वो अपनी ही केंद्र सरकार से कैसे कह सकते थे कि राज्यों के अधिकार का अतिक्रमण हो रहा है। लगता है भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल काफी अच्छा काम कर रहे हैं।
हालांकि उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक कहते हैं कि संघीय कार्यपद्धति में राज्यपाल की उपयोगिता बरकरार है और उन्होंने इस पद पर रहते हुए केन्द्र और राज्य सरकार के बीच सेतु की जिम्मेदारी का निर्वहन पूरी तरह से संविधान के दायरे में रहकर किया है। नाईक ने कहा कि राज्यपाल का पद खत्म करने के सुझाव पर वह कोई राय जाहिर नहीं करना चाहते, क्योंकि यह उनकी परिधि के बाहर है। हालांकि उन्होंने इतना जरूर कहा कि संघीय कार्यपद्धति में राज्यपाल की उपयोगिता है। वह केन्द्र और राज्य सरकार के बीच सेतु की तरह काम करता है। उन्होंने कहा कि पिछले दिनों दिल्ली में हुई मुख्यमंत्रियों की अन्तरराज्यीय परिषद की बैठक में राज्यपाल का पद खत्म किये जाने का सुझाव जिन कारणों से दिया गया, वह नहीं चाहते कि वे वजहें उत्तर प्रदेश में पैदा हों। ऐसी उनकी हमेशा कोशिश रहती है।
दरअसल इस देश में राज्यपाल की भूमिका रेफरी की तरह है। हर खेल में एक रेफरी या अंपायर की जरूरत होती है। अंपायर गलत फैसले भी देते हैं लेकिन अंपायर का पद समाप्त नहीं किया जाता और कोशिश की जाती है कि निष्पक्ष और तटस्थ अंपायर को नियुक्त किया जाए। राज्यपालों के मामले में भी राजनीतिक दलों के बीच एक आम राय का बनना बहुत जरूरी है क्योंकि हर दल को किसी न किसी समय राज्यपालों के पक्षपातपूर्ण आचरण के कारण नुकसान झेलना पड़ता है। इसलिए उनके बीच यदि इस पर आम राय बन जाए कि इस संवैधानिक पद पर उन व्यक्तियों को ही बैठाया जाएगा जिन्होंने किसी न किसी गैर-राजनीतिक क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाया हो, समाज में आदर और प्रतिष्ठा अर्जित की हो और अपने आचरण से लोगों को प्रभावित किया हो। ऐसे ईमानदार और समाज के लिए समर्पित लोग ही व्यक्तिगत या दलगत हानि-लाभ को भूलकर बिना लाग-लपेट के फैसले ले सकते हैं। यदि राजनीतिक दल व्यापक राष्ट्रीय हित के बजाय केवल अपने संकीर्ण स्वार्थों को ही देखते रहे, तो भविष्य में स्थिति के और अधिक बिगड़ जाने का खतरा है। बैठक के दौरान केंद्र के सामने राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जो बातें कही हैं उससे अंदाजा लगता है कि राज्य और केंद्र के बीच सबकुछ ठीक नहीं है। सहयोगी संघवाद कहिये या टीम इंडिया कहिये, इन नारों से अलग हकीकत कुछ और है।
कितना जरूरी है राज्यपाल का पद
राज्यपाल संवैधानिक पद हैं और इन पर आसीन व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे इन पदों पर रहते हुए अपनी राजनीतिक निष्ठाओं को भूलकर निष्पक्ष ढंग से काम करें, काफी कुछ उस अंपायर की तरह जिसका लगाव या खिंचाव किसी भी टीम के साथ नहीं होना चाहिए और जिसका हर फैसला बिना किसी पक्षपात के लिया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है, न राजनीति में और न ही खेल के मैदान में। इसका प्रमुख कारण यह है कि सभी राजनीतिक दल सत्ता में होते समय इन पदों का अपने हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करते हैं और विपक्ष में होने पर इस प्रकार के दुरुपयोग का विरोध करते हैं। यही कारण है कि 1980 के दशक में गठित सरकारिया आयोग की उन सिफारिशों पर आज तक अमल नहीं किया गया जिनमें उसने कहा था कि राज्यपाल के पद पर विभिन्न क्षेत्रों के ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों को नियुक्त किया जाए जो राजनीति से दूर हों और निष्पक्ष तरीके से अपने पद की जिम्मेदारियां निभाएं।
क्यों न खत्म कर दिया जाए राज्यपाल का पद
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि सभी राज्यों में राज्यपाल का पद समाप्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वर्तमान संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसका जारी रहना जरूरी नहीं है। कुमार ने कहा है कि यदि संवैधानिक पद समाप्त करना संभव नहीं है तो उसके विवेकाधीन अधिकारों में कटौती की जाए। किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री की राज्यपाल की नियुक्ति और उसे हटाने में भूमिका होनी चाहिए। उन्होंने कहा है कि वर्तमान संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्यपाल का पद जारी रहना जरूरी नहीं है। यदि उसे समाप्त करना संभव नहीं तो हमारे विचार से राज्यपाल की नियुक्ति से जुडे प्रावधानों की स्पष्ट रूप से व्याख्या होनी चाहिए।
कई राज्यपालों ने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है...
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि कुछेक सम्माननीय अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश राज्यपाल केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के एजेंट के रूप में काम करते हैं। दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच रार तो अब आम बात हो गई है। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने भी संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए राज्य की मंत्रिपरिषद से सलाह किए बगैर मनमाने फैसले लिए और विधायकों के एक गुट को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा दी। नतीजतन पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने एक बर्खास्त सरकार को बहाल करने का ऐतिहासिक और अभूतपूर्व निर्णय लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर सहयोगपूर्ण संघवाद की बात करते हैं, लेकिन उनकी सरकार और उसके इशारे पर काम करने वाले राज्यपालों का आचरण इसके पूरी तरह से विपरीत है। अतीत में भी जब कभी राज्यपालों ने अपने आचरण से अपने पद की गरिमा को ठेस पहुंचाई है, तभी इस पद को ही समाप्त करने की मांगे उठी हैं और इनके पक्ष में काफी मजबूत तर्क भी पेश किए गए हैं। लेकिन यह पद समाप्त करना ऐसा ही होगा जैसे अंग्रेजी कहावत के मुताबिक नहाने के पानी के साथ शिशु को भी बाहर फेंक देना।
-श्यामसिंह सिकरवार