बसपा में भगदड़ फिक्सिंग तो नहीं?
18-Jul-2016 09:07 AM 1234838
अपनी लकीर को लंबा दिखाने का एक तरीका दूसरे की लकीर को छोटा करना भी होता है। चुनाव से ऐन पहले बसपा के खेमे में मची भगदड़ को इस लिहाज से भी देखा जाना चाहिए। कुछ दिन पहले ही बहुजन समाज पार्टी से विदा हुए स्वामी प्रसाद मौर्य ने कल लखनऊ में एक जनसभा की। इसका मकसद बदले हालात में अपनी ताकत का अहसास करवाना था। गोमती नगर में हुए इस आयोजन में उमड़ी भीड़ देखकर मौर्य उत्साह से भर गए। माइक पकड़ते ही उन्होंने बसपा सुप्रीमो मायावती पर हमला शुरू कर दिया। उनका कहना था कि दलितों का मसीहा कौन है इसका अहसास वे आने वाले चुनावों में करवाएंगे। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि धनलोलुपता में मायावती ने दलितों का बहुत नुकसान किया है। एक नई पार्टी बनाने का संकेत देते हुए मौर्य ने 22 जुलाई को एक और रैली करने का भी ऐलान किया। इससे ऐन पहले ही पार्टी के एक और बड़े नेता आरके चौधरी के बसपा छोडऩे के ऐलान ने मायावती को जोर का झटका दिया था। चौधरी ने भी बसपा सुप्रीमो पर एकाधिकारवादी कार्यशैली, पैसे के लिए टिकटों की सौदेबाजी और बहुजन समाज के उद्धार के उद्देश्य से भटक जाने के आरोप लगाए थे। उनका कहना था, बीएसपी अब रियल एस्टेट कम्पनी बन गई है जिसकी मालिक मायावती हैं।Ó उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मायावती टिकटों की सौदेबाजी करती हैं जिसके चलते पार्टी में भूमाफिया और प्रापर्टी डीलर बढ़ते जा रहे हैं और मिशनरी कार्यकर्ता बाहर जाने पर मजबूर हैं। इन दिनों राजनीति का जो स्वरूप है उसमें नेताओं का पार्टी छोडऩा आम बात है। बसपा में भी ऐसी घटनाओं की लंबी सूची रही है। लेकिन अगले चुनावों में जिस पार्टी को उत्तर प्रदेश की सत्ता का सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा हो उसके कद्दावर नेताओं के चुनाव से ऐन पहले पार्टी छोडऩे के क्या निहितार्थ हो सकते हैं? आरके चौधरी पार्टी में महासचिव के पद पर थे और बसपा की स्थापना से पहले से वे काशीराम के साथ जुड़े हुए थे। काशीराम के आह्वान पर उन्होंने वकालत छोड़ कर सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। काशीराम के निर्देश पर ही चौधरी ने पार्टी के लिए समर्पित रहने के उद्देश्य से विवाह न करने का फैसला भी किया था। बसपा की पहली साझा सरकार में वे मंत्री बने थे और उस समय उन्हें उत्तर प्रदेश में मायावती के बाद दूसरे नंबर का नेता माना जाता था। लेकिन एक-एक करके बसपा से नेता बाहर होते जा रहे हैं। मप्र में पार्टी प्रभारी राजाराम कहते हैं कि चुनाव से पहले मौका परस्त लोगों का यह चेहरा सामने आने से पार्टी सचेत हो गई है। यह किसका दांव अपनी लकीर को लंबा दिखाने के लिए एक तरीका यह भी होता है कि दूसरे की लकीर को छोटा कर दिया जाए। मायावती के खेमे में मची भगदड़ को इस लिहाज से भी देखा जाना चाहिए। क्रिकेट की मैच फिक्सिंग की तरह यह उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व राजनीति की फिक्सिंग भी हो सकती है। समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह के बारे में तो यह जगजाहिर ही है कि वे दुश्मन को चित करने का हर दांव जानते हैं। उधर प्रदेश में भाजपा जिस रणनीति पर चल रही है उससे शक की सुई उसकी तरफ भी जा रही है। आखिर यह किसका दांव है। शीला जरूरी या मजबूरी पंजाब के कपूरथला में जन्मीं और दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला कपूर दीक्षित उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनेंगी...अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो! आखिर ऐसा क्या है शीला दीक्षित में जिस पर कांग्रेस ने राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य में दांव लगाया है। और शायद ये पहला मौका है जब कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा की है। आखिर वो कौन सी बात है जिसके आधार पर यूपी के घोर जातिवादी चुनाव की संभावना, मायावती की सोशल इंजीनियरिंग, बीजेपी के धु्रवीकरण, समाजवादी पार्टी के ओबीसी कार्ड और कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन और एक्सेल शीटों को पार करते हुए 10 जनपथ ने शीला दीक्षित के नाम पर मुहर लगाई है। कहीं ऐसा तो नहीं शीला दीक्षित कांग्रेस की मजबूरी का नाम हैं। जिस तरह शीला दीक्षित का नाम आगे आया है उससे तो यही लगता है कि उत्तरप्रदेश में कांग्रेेस के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसे वह आगे कर सकें। -लखनऊ से मधु आलोक निगम
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