मुलायमवादियों के भरोसे आर या पार
06-Jul-2016 08:36 AM 1234836
उत्तर प्रदेश में होने वाले अगले साल के चुनाव में दांव पर न सिर्फ अखिलेश यादव हैं, बल्कि समाजवादी पार्टी का भविष्य भी है। जिस तरह भाजपा ने दलित राजनीति को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश में ताल ठोकी है तो माई (मुस्लिम-यादव) का गणित गड़बड़ा गया है। ऐसे में अखिलेश को चुनावी समर में आर-पार करने के लिए मुलायमवादियों की याद आने लगी है। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में चुनावी हलचल बढऩे के साथ ही सियासी हलचल और गुणा भाग शुरू हो गया है। ऐसे में सपा अब मुलायमवादियों को एक करने में जुटी है। लेकिन माफिया सरगना मुख्तार अंसारी की पार्टी के विलय ने सपा परिवार की एकता की पोल खोल दी है। हांलाकि इस मामले को लेकर सपा में उठे विवादों के बाद यादव परिवार के सभी प्रमुख नेता 29 जून को पहली बार एक साथ एक मंच पर दिखे लेकिन दोनों धड़ों के बीच तल्खी साफ नजर आयी। मौका था, सपा महासचिव रामगोपाल यादव के जन्मदिन के मौके पर उनकी किताब संसद में मेरी बातÓ के विमोचन का। इस कार्यक्रम में शिवपाल यादव सपा के राज्यसभा सदस्य अमर सिंह के साथ देर से पहुंचे और लोगों की भीड़ में बैठ गये।  इससे साफ इशारा भी मिल गया कि विलय विवाद के बाद यादव परिवार ऊपरी तौर पर भले ही एक दिखे लेकिन उसमें दिलमैली मौजूद है। मालूम हो कि लम्बा आपराधिक इतिहास रखने वाले मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के सपा में विलय को लेकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनके चाचा मंत्री शिवपाल यादव के बीच मतभेद उजागर हुए थे। ज्ञातव्य है कि 1990 में मुख्यमंत्री के बतौर अपने पहले कार्यकाल में मुलायम ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को बचाकर मुसलमानों के हितैषी की छवि बनाई और मंडल आंदोलन के बाद की राजनीति में वे पिछड़े नेता के रूप में उभरे, जिसके सहारे उनका एक व्यापक जनाधार तैयार हुआ था। अब उनकी सेहत बहुत ठीक नहीं है, तो पकड़ भी ढीली हो रही है। अब यह अखिलेश के जिम्मे रह गया है कि वे अपने परंपरागत वोट बैंक को कैसे पकड़े रखें और पार्टी के आधार को कैसे विस्तार दें। यही वजह थी कि मुलायम ने 2012 में उन्हें मुख्यमंत्री बनवाया ताकि सत्ता का हस्तांतरण सहजता से किया जा सके। मुख्यमंत्री के बतौर अखिलेश का पहला कार्यकाल हालांकि कानून-व्यवस्था से जुड़े विवादों से ही घिरा रहा है, नौकरशाहों ने उन्हें दरकिनार किया है, क्योंकि वे अब भी उनके पिता को ही असली मुखिया मानते हैं और परिवार के सदस्यों ने भी उन्हें बांधे रखा है। अखिलेश दरअसल अपने पिता की जगह लेने के लिए अब तक एक जनाधार वाले नेता के तौर पर उभर नहीं पाए हैं। इसकी आंशिक वजह यह है कि खुद मुलायम ही अपनी तरफ से नियंत्रण की लगाम ढीली नहीं कर सके हैं। इस बात का डर है कि लगातार दो दशक तक सबसे बड़ी क्षेत्रीय ताकत की भूमिका में रही सपा पांच साल सत्ता से बाहर रहने के बाद हाशिए पर न पहुंच जाए और अखिलेश का राजनैतिक भविष्य कहीं हमेशा के लिए खत्म न हो जाए। मुख्यमंत्री के बतौर अखिलेश के कामकाज का विश्लेषण करने के लिए उनकी विशिष्ट स्थिति को समझना बहुत जरूरी है। एक ओर उनके पिता हैं, जो अक्सर अपनी लगाम कसे रहते हैं, तो दूसरी ओर परिवार के कुछ लोग हैं जिनकी सत्ता तक सीधी पहुंच है। इसके लिए हमें यादव परिवार को और गहरे उतर कर समझना होगा। तीन दशक पहले किसान और पहलवान के रूप में मुलायम से जो कहानी शुरू हुई थी, वह छात्र नेता से यूपी के पिछड़ों के लिए उनके नेताजी बनने से लेकर अब हाल के वर्षों में कुछ भाइयों, भतीजों, चचेरे भाइयों और बहुओं की जटिल पारिवारिक दास्तान में तब्दील हो चुकी है। ऐसे में आगामी चुनाव में परिवार को संतुष्ट करने के साथ ही पार्टी के अन्य पदाधिकारियों और नेताओं को मैनेज करने की जिम्मेदारी अखिलेश पर होगी जो किसी चुनौती से कम नहीं है। बसपा में बगावत...मौर्य के जाते मची भगदड़ स्वामी प्रसाद मौर्या के बसपा का दामन छोडऩे के बाद अब पार्टी को पश्चिमी यूपी में एक बड़ा झटका लगा है। 28 जून को पश्चिमी यूपी के एक हजार से अधिक कार्यकर्ताओं ने बहुजन समाज वादी पार्टी से सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीकांत त्यागी के साथ त्यागी समाज ने अपने मंडल अध्यक्षों के साथ पश्चिमी यूपी के हजारों समर्थकों के साथ में पार्टी से इस्तीफा दिया। पार्टी छोडऩे पर कार्यकर्ताओं की तरफ से मायावती पर गंभीर आरोप लगाए गए हैं। दावा किया गया है कि 2002 से कार्यकर्ताओं को लिखित रूप से ज्वाइन नहीं कराया जाता, ताकि विरोध करने पर उन्हें निष्कासित किया जा सके। श्रीकांत त्यागी का आरोप है कि बहुजन समाजवादी पार्टी अपने आर्थिक लाभों के फेर में बाबा साहब के आदर्शों को भूल गई है। -मधु आलोक निगम
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