शांतिदूत की भूमिका में राहुल
18-Jul-2016 09:04 AM 1234806
राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के नए शांतिदूत बन गए हैं। पार्टी उपाध्यक्ष विभिन्न प्रदेशों की कांग्रेस इकाइयों के बीच मतभेद दूर करा रहे हैं। राहुल इसके लिए प्रतिद्वंद्वी गुटों को आमने-सामने बिठाकर उनका परस्पर मनमुटाव दूर करा रहे हैं। राहुल केरल के 60 नेताओं से मिले ताकि राज्य के कांग्रेसी गुटों के बीच सुलह कराई जा सके। राहुल तमिलनाडु और महाराष्ट्र में भी ऐसी बैठकें करने वाले हैं। गौरतलब है कि इन राज्यों में भी प्रदेश कांग्रेस अंदरूनी गुटबाजी की शिकार है। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कहते हैं, इसका मकसद अलग-अलग गुटों में सौहार्द्रपूर्ण तरीके से समझौता कराना है ताकि पार्टी एकजुट होकर मुश्किल हालात का सामना कर सके। हाल ही कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी ये कहकर छोड़ दी थी कि राहुल उन्हें मिलने का समय ही नहीं देते। जिन राज्यों में कांग्रेस गुटबाजी की शिकार हुई उन सब में बागी नेताओं की शिकायत थी कि राहुल गांधी ने उनकी समस्याओं और शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया था। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के अनुसार ऐसे कई नेताओं ने कुछ पत्रकारों से भी राहुल से मुलाकात कराने के लिए मदद मांगी थी। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भी ऐसे ही कारणों से पार्टी से अलग हो गए। मेघालय के कांग्रेसी नेता भी ऐसी ही कहानियां सुनाते हैं। कांग्रेस को जल्दी संगठन में फेरबदल करने की जरूरत है जिसका पांच राज्यों के चुनाव नतीजों के बाद से ही इंतजार है। 2014 के लोकसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद से आत्ममंथन के दौर से गुजर रही कांग्रेस के लिए वरिष्ठ नेता अजीत जोगी और गुरुदास कामत के पार्टी छोडऩे से ये मसला और पेंचीदा हो गया है। गुजरात और राजस्थान के प्रभारी कामत के इस्तीफे के काफी गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इन दोनों राज्यों में पार्टी बाकी राज्यों से थोड़ा अच्छा कर रही है और कामत का जाना फिर उठ खड़े होने कोशिश में जुटी पार्टी का उत्साह कम करेगा। प्रदेश प्रभारी के ना होने से सिर्फ गुजरात और राजस्थान में ही प्रदेश इकाई के प्रभावित होने का खतरा नहीं है बल्कि पत्नी के इलाज के लिए विदेश गए पंजाब और हरियाणा के प्रभारी शकील अहमद भी जल्दी वापस नहीं लौटने वाले हैं। पार्टी महासचिव और प्रभारी शकील अहमद की गैरमौजूदगी हरियाणा में बगावत और पंजाब में चुनाव को देखते हुए काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है। हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर हुड्डा ने राज्यसभा चुनाव में इनेलो के आरके आनंद को समर्थन के फैसले के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया है। ऐसे में प्रदेश प्रभारी के न होने से हालात और बिगड़ सकते हैं। एक वरिष्ठ कांग्रेसी के मुताबिक शकील अहमद की अनुपस्थिति में पार्टी विधायकों और शीर्ष नेतृत्व के बीच संवाद का कोई जरिया नहीं है। इस कठिन चुनाव के वक्त बगावत की खबरें पार्टी के लिए संकट खड़ा कर सकती है। इसीलिए पार्टी एक पर्यवेक्षक भेजने का विचार कर रही है जिस पर जल्द ही फैसला हो जाएगा। पुडुचेरी में वी नारायण स्वामी की मुख्यमंत्री पद की रेस में शामिल होने के समय से ही नॉर्थ ईस्ट में भी कोई प्रभारी नहीं है। नारायण स्वामी 6 जून को मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले चुके हैं। इसके बावजूद उत्तर पूर्व के कांग्रेस शासित राज्यों में होती हुई बगावत को पार्टी दर्शक की तरह देख रही है। अरुणाचल में कांग्रेस सरकार बागियों की भेंट चढ़ चुकी है और मेघालय एवं त्रिपुरा में भी विद्रोह शुरु हो चुका है। एक पार्टी नेता के अनुसार बीजेपी नॉर्थ ईस्ट में कांग्रेस मुक्त भारत का अपना एजेंडा तेजी से पूरा करने में जुटी है, ऐसे में पार्टी को जल्द किसी नेता को जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए जिससे कि अरुणाचल वाले हालात फिर से ना बनें। लेकिन हमको उत्तर पूर्व क्षेत्र को समझने वाले नेता की जरूरत है, नारायण स्वामी जैसे नेता की नहीं। नेता बताते हैं, पार्टी में फेरबदल पर जो संशय बना हुआ है उसकी वजह से उन राज्यों में सभी रणनीतियां और कार्यक्रम ठप पड़े हैं जहां अगले साल चुनाव होने हैं। सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश के प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री का है जो अभी तक नहीं जानते कि वो फेरबदल के बाद प्रभारी रहेंगे या नहीं। यूपी में पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए ये निर्णय अब तक हो जाना चाहिए था। यदि मिस्त्री या प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को हटाना है तो प्रभार किसी को दिया जाएगा ताकि जमीन पर काम शुरु हो सके। ये बदलाव चुनाव से ठीक पहले नहीं किए जा सकते, इस देरी से सिर्फ पार्टी का नुकसान होगा। हालांकि पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि संगठन में बदलाव पर अगली कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में फैसला हो जाएगा। जल्दी ही होने वाली इस बैठक में अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की ताजपोशी भी संभव है। एक कांग्रेस नेता के मुताबिक राज्यसभा चुनाव खत्म होते ही वर्किंग कमेटी की बैठक की तारीख घोषित हो जाएगी। संभवत: बेंगलुरु में होने वाली इस बैठक के साथ चिंतन शिविर भी होगा। कांग्रेस का प्लान बी क्या है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरुणाचल प्रदेश में नबाम तुकी सरकार को बहाल करने का फैसला आने के बाद कांग्रेस एक साथ कई मोर्चों पर सक्रिय हो गई है। कैसे इस फैसले को एक प्रतीकात्मक जीत से आगे बढ़ाया जाए और राज्य में कांग्रेस की स्थिर सरकार सुनिश्चित की जाए। संख्याबल उसके साथ नहीं है इसलिए तुकी सरकार का बने रहना आसान नहीं होगा। अरुणाचल में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 60 में 42 सीटें जीती थीं। लेकिन पार्टी के ही विधायक कलिखो पुल ने मुख्यमंत्री नबाम तुकी पर तानाशाही तरीके से सरकार चलाने का आरोप लगाकर बगावत का बिगुल फूंक दिया। उन्होंने 21 विधायकों को साथ लेकर भाजपा के समर्थन से नई सरकार बना ली। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस के और नौ विधायक टूट कर उनके साथ हो गए थे। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद नबाम तुकी फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक पार्टी के एक वरिष्ठ नेता मानते हैं कि अभी तक उनके पास इतना संख्या बल नहीं है कि तुकी सदन में बहुमत साबित कर पाएं। संख्या बल जुटाने की कवायद में जुटे एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, जिन विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी थी उनमें से ज्यादातर को पार्टी से नहीं बल्कि तुकी के नेतृत्व से दिक्कत है। हमें कोई ऐसा तरीका खोजना होगा कि तुकी खुद ही किसी दूसरे चेहरे के लिए रास्ता छोड़ दें।Ó सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि तुकी इसके लिए तैयार हैं लेकिन, उनकी एक शर्त है कि वे दो-तीन लोगों को छोड़कर बाकी किसी को भी स्वीकार कर सकते हैं। वे उनके धुर विरोधी हैं जिनके चलते राज्य में संवैधानिक संकट पैदा हुआ। पार्टी उन बागी विधायकों में से भी कुछ के संपर्क में है जो कलिखो पुल के साथ अलग हुए थे और जो अब पार्टी में लौटने के इच्छुक हैं। पुल सहित 30 विधायक बीते मार्च में अरुणाचल के एकमात्र क्षेत्रीय दल पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल में शामिल हो गए थे। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के फौरन बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल की प्रतिक्रिया थी कि बागी विधायकों के लिए पार्टी का संदेश यह है कि आप परिवार का हिस्सा हैं। एक दूसरे नेता बताते हैं, बैक चैनल से उन सभी के साथ बातचीत हो रही है जिन्होंने पार्टी छोड़ी थी। ज्यादातर तुकी का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन उन्होंने यह संकेत भी दिया है कि किसी नए चेहरे से उन्हें परेशानी नहीं है।Ó रिपोर्ट के मुताबिक यह संकेत भी एक वजह थी कि कांग्रेस ने कुछ विधायकों के पार्टी छोड़कर एक अलग समूह बनाने के फैसले को कानूनी चुनौती नहीं दी। हालांकि पार्टी सूत्रों के मुताबिक बागियों के नेता कलिखो पुल को पार्टी में वापस नहीं लिया जाएगा। सिर्फ कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व ही कोशिशें नहीं कर रहा। तुकी खुद भी इस कवायद में लगे हैं। अखबार से बातचीत करते हुए उनका कहना था कि वे कई बागियों के संपर्क में हैं और जरूरत पड़ी तो वे कलिखो पुल तक से संपर्क करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत साबित करने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है। इसलिए सूत्रों के मुताबिक पार्टी की एक रणनीति यह भी होगा कि पर्याप्त संख्याबल जुटाने तक विधानसभा का सत्र टाला जाए। केरल में हार की जिम्मेदारी राहुल केरल में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष वीएम सुधीरन और ओमन चांडी तथा रमेश चेन्नीथला के प्रतिनिधियों से मिले। ये नेता प्रदेश कांग्रेस में आमूलचूल बदलाव चाहते हैं। केरल कांग्रेस में दो मजबूत धड़े हैं। दोनों गुटों के नेता हालिया विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार का ठीकरा एक-दूसरे के सिर फोड़ते हैं। चांडी और चेन्नीथला सुधीरन को पार्टी से निकालने की मांग करते रहे हैं। केरल प्रदेश कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, राहुल गांधी का सीधा संदेश था कि गुटबाजी में शामिल लोगों को लिए पार्टी में कोई जगह नहीं। प्रदेश इकाई के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार राहुल की दो दिवसीय बैठक के बाद पार्टी के दोनों गुटों का आपसी मतभेद सुलझ जाएगा। उधर, तमिलनाडु में प्रदेश कांग्रेस के अंदर कई गुट हैं। इनमें से एक गुट को पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम का संरक्षण हासिल है। तमिलनाडु प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष केवी थांगकबालु और कृष्ण स्वामी और दो बार विधायक हो चुके वसंत कुमार इत्यादि राज्य में प्रभावशाली नेता हैं। राज्य में पार्टी की अदंरूनी गुटबाजी की वजह से ईवीकेएस एलनगोवान को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। असम में भारी नुकसान पार्टी को सबसे बड़ा नुकसान असम में हेमंत बिस्व सर्मा के जाने से हुआ। सर्मा ने पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई से मतभेद के बाद पार्टी छोड़ दी थी। सर्मा राज्य विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हो गए और राज्य में पहली बार बीजेपी की सरकार बनाने में उनकी अहम भूमिका रही। अरुणाचल प्रदेश में भी इसी तरह कांग्रेस अंदरूनी कलह की शिकार हुई। राज्य में बागियों ने कांग्रेस की सरकार गिरा दी और बीजेपी की सरकार बनाने में मदद की। उत्तराखंड में भी अंदरूनी कलह की शिकार हुई पार्टी बहुत मुश्किल से अपनी सरकार बचा सकी। महाराष्ट्र में मतभेद महाराष्ट्र में हाल ही में पार्टी के वरिष्ठ नेता गुरुदास कामत ने इस्तीफा दे दिया था। बाद में उन्होंने अपना इस्तीफा वापस ले लिया। उनका महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस में संजय निरुपम से कामत के मतभेद जगजाहिर हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को लगता है कि इन दोनों नेताओं की आपसी रंजिश नहीं दूर हुई तो प्रदेश में पार्टी का भविष्य उज्जवल नहीं है। पार्टी के एक अंदरूनी सूत्र के अनुसार दोनों के बीच समझौते का मसौदा तैयार है। समझौते के बाद दोनों गुट एकजुट होकर सक्रिय विपक्ष की भूमिका निभाएंगे। राहुल की इस सारी कवायद का नतीजा क्या निकलेगा ये तो वक्त बताएगा। कांग्रेस के राष्ट्रीय कार्यालय के एक नेता कहते हैं, इससे पार्टी में लोगों को अपनी शिकायतें सामने रखने का मौका मिलेगा, पार्टी में पारदर्शिता आएगी जिससे वो मजबूत होगी। -कोलकाता से इन्द्र कुमार
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