16-Apr-2013 09:24 AM
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मुंबई के उपनगरीय क्षेत्र ठाणे में फिर एक इमारत भरभरा कर गिर पड़ी और 74 लोगों की कब्र उसी स्थान पर बन गई। मुंबई को हादसों का शहर यूं ही नहीं कहा जाता। यहां की खोखली नमकीन जमीन में हर वर्ष सैकड़ों इमारतें जमींदोज हो जाती हैं। लेकिन जब मौत के आंकड़े बढ़ते हैं तो इमारतें भी सुर्खियों में आती हैं और दुनिया यह जानकर बड़ा आश्चर्य करती है कि तकनीकी रूप से विकसित हो चुके आज के दौर में भी देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई में ऐसी इमारतें बनाई जाती हैं जो कभी भी धराशायी होने को आतुर रहती हैं। ठाणे में जिस इमारत ने 74 लोगों की जान ली वह पूरी तरह बनी ही नहीं थी, 30 प्रतिशत से अधिक काम बाकी था, लेकिन बिल्डिंग माफिया ने उसमें भी लोगों को बसाने में देरी नहीं की। आनन-फानन में लोगों को इस सात मंजिला इमारत में बसा दिया गया। न तो इमारत की परमीशन ली गई थी और न ही उसमें उन मापदण्डों का पालन किया गया था जिनके पालन करने के उपरांत इमारतें 50-60 साल तक बल्कि 100-150 सालों तक खड़ी रहती हैं। मुंबई में किसी भी इमारत की मजबूती की गारंटी नहीं दी जा सकती। यहां जो लोग इमारतों के निर्माण में लगे हैं वे केवल मुनाफा बटोरना जानते हैं। उन्हें इमारतों की मजबूती से कोई सरोकार नहीं है। स्थानीय निकाय से लेकर सरकारें भी भू-माफिया और बिल्डरों की इस काली करतूत से मुंह मोड़े रहती हैं। क्योंकि राजनीतिक पार्टियों को सबसे ज्यादा चंदा देने वाले और स्थानीय निकायों की जेब भरने वाले यही लोग हैं। ये मौत के सौदागर मुंबई महानगर को कंक्रीट के कब्रिस्तान में तब्दील करने में जुटे हुए हैं और इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यदि इनका कुछ बिगड़ा होता तो अब तक आधे से ज्यादा बिल्डिंग कारोबारी मुंबई महानगर से अपना कारोबार ही समेट चुके होते। इस वर्ष अभी तक कई इमारतें गिर चुकी हैं, जिनमें सैकड़ों लोग दबकर मरे हैं। फरवरी माह में एक इमारत की बालकनी गिरने से आठ वर्षीय बच्चे की मौत हो गई थी, उसके एक हफ्ते बाद ही मोहम्मद अली रोड पर खटीजा मंजिल का एक स्लेब भरभरा कर सुबह पांच बजे के करीब गिर पड़ा और 4 लोगों की जान चली गई तथा कई घायल हो गए। अकेले ठाणे में ही लगभग 800 इमारतें ऐसी हैं जो कभी भी गिर सकती है और ऐसी इमारतों की संख्या तो अच्छी खासी है जिन्हें बिना किसी परमीशन के यूं ही बना दिया गया है। वर्ष 2010 में जब ठाणे में गैस सिलेंडर फटने से एक इमारत का चौथाई हिस्सा धराशायी हो गया था उस वक्त भी इमारतों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठाए गए थे, लेकिन कुछ दिन तक हल्ला मचने के बाद जिम्मेदार लोग शांत होकर बैठ गए और बिल्डिंगों का गिरना जारी रहा।
ठाणे महानगरपालिका के शील फाटा इलाके में जो बिल्डिंग लोगों के लिए आशियाना बनने की बजाय कालघर बन गई उसके निर्माताओं में एक कबाडिय़ा भी शामिल है जिसने बाकी के छह लोगों के साथ मिलकर बढ़ते बिल्डर उद्योग में हाथ आजमाया था। ऐसे अनुभवी और क्षमतावान बिल्डरों के काम का परिणाम है कि दर्जनों जिंदगियों का काम तमाम हो गया। अब भले ही ठाणे महानगर पालिका कार्रवाई करते हुए अपने कुछ अधिकारियों को बर्खास्त करने का नाटक कर रहा हो लेकिन महानगर पालिकाओं की हकीकत यही है कि वहां पूंजी और पहुंच के आधार पर जो बिल्डर जैसा चाहता है वैसी परमीशन हासिल कर लेता है। मसलन, जिस सात मंजिला बिल्डिंग के गिरने के कारण यह हादसा हुआ वह बिल्डिंग अपने आपमें ही एक हादसा है। मुंबई में बढ़ती भीड़ के कारण कंस्ट्रक्शन का कारोबार चढ़ा हुआ है और मुंबई, ठाणे और आस पास के उपनगरों में सिर्फ बहुमंजिला इमारतें ही बन रही हैं। इस बिल्डिंग को भी मात्र तीन महीने में बनाकर तैयार कर लिया गया। भवन बनाने की इतनी जल्दी थी कि रेती की जगह भूसी का इस्तेमाल कर लिया गया। लोहे का इस्तेमाल भी मजबूती लाने की बजाय दिखाने के लिए ही किया गया। अब ठाणे मनपा के अधिकारी कह रहे हैं कि नींव की गहराई कम रखी गई, मात्र छह फीट जबकि जिस तरह का यह नम जमीन वाला इलाका है वहां नींव की गहराई कम से कम 30 से 35 फुट होनी चाहिए थी। लेकिन उस वक्त ठाणे मनपा के अधिकारी क्या कर रहे थे जब जमीन में गड्ढा खोदकर उसे सात मंजिला बिल्डिंग की नींव बनाई जा रही थी? जो बात आज वे कह रहे हैं, वह तो उस वक्त भी उन्हें मालूम ही रही होगी? फिर उस वक्त उन्होंने कार्रवाई क्यों नहीं की? लेकिन कार्रवाई करने जैसी गतिविधियां कम ही होती है। इसका परिणाम यह होता है कि हमारे आस पास अवैघ और बिना स्टैण्डर्ड वाले भवनों का अजायबघर खड़ा कर दिया जाता है। मीडिया की कुछ रपटों का दावा है कि अकेले ठाणे महानगरपालिका के भीतर ही 51 भवन अत्यंत संवेदनशील हैं। लेकिन महानगरपालिका ही अकेले दोषी हो ऐसा भी नहीं होता है। महानगरपालिका के अधिकारी कार्रवाई करने भी चलें तो जनता के नाम पर उनके रास्ते में रोड़ा अटका दिया जाता है। शील फाटा की जो बिल्डिंग के गिरने से यह हादसा हुआ है उस बिल्डिंग को ही गिराने से बचाने के लिए आटोवालों तक को लाकर भर दिया गया था ताकि उसमें रिहाइश दिखे और बिल्डिंग को गिराने से बचाया जा सके। चालाकियों की बदौलत बिल्डिंग तो बचा ली गई लेकिन वे जिन्दगियां न बचाई जा सकीं जिनका गुनाह सिर्फ इतना था कि वे एक छत की आस में वे उस बिल्डिंग में रहने के लिए चले आये थे।
मुंबई से बिंदु माथुर