16-Apr-2013 07:08 AM
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महाराष्ट्र की जमीनें इमारतों को निगल रही हैं तो फिर उन जमीनों के उदर में पानी कहा से आएगा। यही कारण है कि प्रदेश में 11 हजार 801 गांवों में जब 4 हजार टेंकरों की मदद से पानी पहुंचता है तो हर एक चेहरे पर यह सवाल खड़ा हो जाता है कि एक तरफ महानगरों में ध्वस्त होती इमारतों में दबकर लोग दम तोड़ रहे हैं और दूसरी तरफ सूखे की चपेट में आए किसान या तो आत्महत्या कर रहे हैं या पानी के अभाव में अपनी फसलों को सूखते और मवेशियों को मरता देखने को विवश हैं। ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र में पानी नहीं बरसा। पानी तो 1972 में जितना गिरा था उसे कहीं ज्यादा गिरा है। 1972 में पर्यावरण या ग्रीन हाउस जैसे मुद्दे उतने प्रभावी नहीं थे तब भी महाराष्ट्र में कम पानी गिरा करता था और उस कम पानी से इतना काम तो चल ही जाता था कि मवेशी प्यास से नहीं मरते थे और न ही लोगों को पानी की किल्लत झेलनी पड़ती थी। उस समय राज्य सरकारें 4 हजार टेंकरों से हर दिन पानी पहुंचाने की कवायद भी नहीं करती होंगी, लेकिन आज पानी तो ज्यादा गिरा है पर सूखे की भयावहता इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि सरकार भी घबराने लगी है। सरकार के पास कोई उपाय नहीं है सूखे से निपटने का राज्य के लाखों किसान और 4 लाख 52 हजार से अधिक मवेशी सरकारी वाटर सप्लाई के मोहताज हैं। जबकि प्रदेश में कई जगह गन्ना से लेकर कपास, अंगूर, संतरा आदि की फसल लहलहा रही है। इससे साफ जाहिर है कि संकट सूखे का नहीं है बल्कि पानी के औचित्यपूर्ण वितरण का है। संतरा, गन्ना, अंगूर तथा बीटी कॉटन महाराष्ट्र की फसलें नहीं हैं बल्कि अधिक लाभ कमाने के चक्कर में राज्य के कुछ धनाड्य किसानों ने इन फसलों को अपना लिया है। यही कारण है कि इन फसलों में जितना पानी बर्बाद होता है उतने पानी से राज्य में दूसरी परंपरागत फसलें उगाकर कृषकों और मवेशियों को पर्याप्त पानी दिया जा सकता है, लेकिन चीनी मील के लिए गन्ना उपजाने वाले उत्पादक राज्य सरकार में अच्छी खासी पकड़ रखते हैं। यही हाल संतरा, अंगूर और कपास उत्पादन करने वाली लॉबी का है जो पैसे से भी मजबूत है और राजनीतिक रूप से भी बहुत मजबूत है।
राज्य सरकार इस लॉबी को नियंत्रित करने में असमर्थ है। जिसका खामियाजा गरीब किसानों को भुगतना पड़ रहा है। यह लॉबी भरपूर पैसा खर्च करने में सक्षम है और पैसे के दम पर कई किलोमीटर पाइप बिछाकर जमीन का पानी चूस रही है। जब जमीन में पानी नहीं बचता तो नोटों के दम पर पानी खरीदकर खेतों में फेका जाता है ताकि गन्ना उपजाया जा सके और संतरे, अंगूर से लेकर बीटी कपास जैसी नगद फसलें प्राप्त की जा सकें। मुनाफा कमाने के चक्कर में महाराष्ट्र के कुछ धनी और प्रभावशाली किसान गरीब किसानों तथा उनके मवेशियों के हलक में पानी नहीं पहुंचने दे रहे हैं। यही कारण है कि महाराष्ट्र में आज भी सबसे ज्यादा किसानों की आत्महत्याएं हो रही हैं। सूखे से निपटने के लिए केंद्र सरकार से दो हजार सात सौ करोड़ रुपए मांगे गए थे, जिसके एवज में केंद्र में 1208 करोड़ रुपए ही स्वीकृत किए हैं, लेकिन यह पैसा भी पूरी तरह खर्च नहीं हो पाया। जो फौरी उपाय किए गए हैं। उन पर कुल जमा 778 करोड़ रुपए खर्च हुआ है। उधर, मवेशियों के 593 चारा केम्प स्थापित किए गए हैं जिनके लिए 750 करोड़ रुपए वितरित किया गया है। लेकिन बीमारी का उपचार सही तरीके से नहीं किया जा रहा है। राज्य सरकार को जितनी सहायता मिली है तकरीबन उतने ही रुपए का पानी निजी उत्पादकों द्वारा खरीदकर खेतों में डाला जा रहा है। इससे साफ है कि आम आदमी पिसने के लिए विवश है और कुछ लोग मौज उड़ा रहे हैं। हजारों बोर वेल खुदे हैं, सैंकड़ों की संख्या में कुएं हैं, लेकिन उसके बाद भी आलम यह है कि पानी की एक बूंद निकाली नहीं जा सकती। जमीन विशेषज्ञ भी कहते रहे हैं कि गन्ने की जगह पारंपरिक अनाजों की खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। पर चीनी लॉबी की मुठ्ठी में बंद महाराष्ट्र सरकार ने इन सिफारिशों को अनदेखा किया है। सन 1999 तक राज्य में 119 चीनी कारखाने थे, जो अब 200 हो गए है। नए प्रस्तावों का आना, पास होना फिर भी बंद नहीं हुआ है। महाराष्ट्र के कृषि आयुक्त उमाकांत दांगट ने खुद कहा है कि गन्ने के कारण राज्य में बार-बार सूखा पड़ता है, पर हम लाचार हैं। पानी बचाने के लिए ड्रिप और स्प्रिंकल पद्धति अपनाने की सिफारिश भर कर सकते हैं। देश का सबसे बड़ा डैम नेटवर्क महाराष्ट्र में है। देश के कुल बांधों में से 36 प्रतिशत यहीं हैं। वॉटरशेड बनाने के मामले में महाराष्ट्र अग्रणी रहा है। विडंबना देखें कि फिर भी हर दूसरे साल यहां सूखा पड़ता है। राज्य की पानी नीति बनाने के लिए सरकार ने स्टेट वॉटर बोर्ड और वॉटर अथॉरिटी गठित की है। सरकार की लापरवाही का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आठ साल में इसकी एक भी बैठक नहीं हुई है। इस साल के राज्य बजट का 25 प्रतिशत हिस्सा पानी के लिए आबंटित किया गया है। पानी प्रबंधन के बारे में तब भी कोई अनूठा, ठोस या दीर्घकालीन उपाय सामने नहीं आया है।
इधर क्लाइमेट चेंज के कारण कृष्णा और गोदावरी नदियों में पानी कम हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। राज्य की एक हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी सिंचाई योजनाएं अधूरी दशा में हैं। हर बार हमारी सरकार बड़ी योजनाओं में बड़ी-बड़ी खामियां छोड़ती जा रही है। गन्ने के कारण जानवरों के लिए चारा उगाने में बाधा आ रही है। सूखा पड़ता है तो चारा गन्ने से और पानी सोने से भी महंगा हो जाता है। फिलहाल महाराष्ट्र के हजारों ग्रामीण मुंबई की झोपडिय़ों और फुटपाथों पर देह टिकाने पर मजबूर हैं। उन्हें बारिश का इंतजार है। सरकार को भी बारिश का ही इंतजार है, ताकि चुनाव आने तक त्रासदी की धार कम हो और सूखाग्रस्त लोगों को नए सब्जबाग दिखाए जा सकें।
मुंबई से ऋतेन्द्र माथुर