18-Jul-2016 08:57 AM
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यूं तो संघ और भाजपा दोनों सामान्यत: एक-दूसरे से एक समान दूरी रखते हैं, और ये दूरी कुछ ही जगहों पर नजदीकियों में बदलती है, खासकर जब या तो देश में चुनाव हों या किसी प्रदेश में चुनाव होने वाले हों और स्वयं सेवकों की सीधी आवश्यकता बीजेपी को हो।
जाहिर है ऐसे मौको पर, संघ खुद आगे बढ़कर बीजेपी की न सिर्फ मदद करता है, बल्कि मार्गदर्शक के रूप में भी काम करता है और अवसर मिलने पर बीजेपी के कामों और उसके परिणामों की समय-समय पर समीक्षा भी करता है। इसी कारण से संघ के कुछ बड़े अधिकारी समय-समय पर बीजेपी के अंदर पूर्णकालिक के तौर पर भेजे जाते रहे हैं। राम माधव और सूर्य प्रकाश जैसे संघ के बड़े अधिकारी इसी के उदाहरण हैं।
बहरहाल, इन तमाम बातों के बीच दिलचस्प बात ये है कि संघ के हस्तक्षेप के बाद बीजेपी तो सत्ता में आ जाती है, लेकिन पार्टी के सत्ता में आते ही वहां संघ कमजोर हो जाता है या उसकी गतिविधियां शिथिल हो जाती है। हालांकि इसका ठीक उल्टा भी होता है और जहां-जहां बीजेपी कमजोर है, वहां-वहां संघ सांगठनिक तौर पर संघ मजबूत होता है। यानी की जिस भी प्रदेश में भाजपा सत्तारूढ़ दल है, वहां संघ को सांस्कृतिक और वैचारिक स्वतंत्रता तो आसानी से मिल जाती है, मगर साथ-साथ उससे उसकी कई चीजें या तो छीन ली जाती है, या स्वयं ही कुंद पड़ जाती है।
इसका सबसे सटीक उदहारण गुजरात और मध्य प्रदेश हैं। इन दोनों ही जगहों पर बीजेपी एक दशक से ज्यादा सत्ता पर काबिज है, जिसके कारण संघ और उसके कुछ अनुषांगिक संगठन लगातार कमजोर हुए हैं। हालांकि विद्याभारती इसका अपवाद है, जो संघ के स्कूल चलाता है।
दरअसल, विद्याभारती की स्थिति में सभी जगहों पर सुधार ही आया है, जहां जिस प्रदेश में बीजेपी की सरकारें हैं, वहां ये और भी मजबूत हुआ है। मगर बीजेपी शासित प्रदेशों में शाखाओं की संख्या में लगातार कमी आई है, जिसके कई कारण माने जाते हैं। पहला तो ये की सरकार बनने के बाद कार्यकर्ता हो या नेता आराम पसंद तो हर कोई हो जाता है और उसके दिमाग में ये बात कहीं न कहीं से आ ही जाती है कि जिसके लिए हमने संघर्ष किया वो काम अब हो चुका है। इसके अलावा जब सरकार बनती है, तो ये भी समझना पड़ता है कि सरकार का पूरी तरह से संघ के निर्देशों पर चलाना असम्भव है तो एक वैचारिक दुराव आना सामान्य सी बात है। खैर, इस सच्चाई को यदि यूपी चुनाव के संदर्भ में देखें तो इस लिहाज से उत्तर प्रदेश संघ के लिए बढऩे और पोषित होने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान है, क्योंकि वहां लम्बे समय से बीजेपी सत्ता से दूर रही और यही वो जगह है, जहां से बीजेपी चर्चा में आई। राम मंदिर आंदोलन से लेकर बीजेपी के सभी बड़े आंदोलन इसी प्रदेश के इर्द-गिर्द रचे गए। यही कारण है कि सांगठनिक तौर पर संघ सबसे ज्यादा मजबूत स्थिति में उत्तरप्रदेश में ही रहा है, जिसका एक प्रमुख कारण ये भी है कि सबसे ज्यादा प्रचारक उसके इसी क्षेत्र से आते हैं।
संघ हमेशा से कठिन परिस्थितियों में बीजेपी के लिए सहायक बना है, और उसने बीजेपी को निष्ठावान कार्यकर्ता देने में कभी कोई कमी नहीं छोड़ी। इसी का परिणाम है कि नरेंद्र मोदी के ग्लैमर के साथ संघ के सामान्य कार्यकर्ताओं ने असम जैसे दुर्गम स्थानों में भी आसानी से कमल उपजा के दिखा दिया। बहरहाल, यही वजह है कि यूपी में चुनाव को अभी समय है, लेकिन प्रदेश में बीजेपी की कमान अमित शाह की बजाय अब संघ संभालने जा रहा है। सूत्रों की मानें तो उत्तरप्रदेश में संघ के बड़े अधिकारियों की लगातार कई अहम बैठके लखनऊ मेरठ और बनारस में होने वाली है। हमेशा की तरह मीडिया और कैमरे से दूर होने वाली संघ की बैठकें इस बार कुछ खास होने की उम्मीद की जा रही है, क्योंकि इन सभी बैठकों का सीधा सम्बन्ध उत्तर प्रदेश में बीजेपी के चेहरे से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव के पूरे कार्यक्रम को बारीकी से जांचने का भी होने वाला है।
मतलब साफ है कि यहां संघ पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी चेहरा और मुद्दे चुनने की होने वाली है। यही कारण है कि राम माधव जी के साथ संघ से बीजेपी में भेजे गए सूर्य प्रकाश जी जो क्षेत्र प्रचारक रहें हैं, उन्हें उत्तरप्रदेश बीजेपी में प्रमुख नामों में से एक माना जा रहा है। छोटे-बड़े कई फैसलें लेने में सूर्यप्रकाश अपनी अग्रणी भूमिका निभा रहें हैं। इसे बीजेपी में संघ के बढ़ते कद का सटीक उदाहरण समझा जा सकता है। माना जा रहा है की बीजेपी के राजनीतिक निर्णयों में संघ के इस कदर हस्तक्षेप से खुद बीजेपी के आला नेता सकते में हैं, तो वहीं कार्यकर्ता कंफ्यूज भी दिखाई दे रहा है।
कमाल की बात यह है कि संघ को इसके लिए रोकने की ताकत खुद अमित शाह के पास नहीं दिखाई देती। सभी जानते हैं कि संघ के कुछ फैसलों पर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक हस्तक्षेप नहीं करते हैं, और समय-समय पर खुद मोदी को भी संघ के बड़े अधिकारियों के सामने अपने काम का रिपोर्ट कार्ड दिखाना अनिवार्य होता है। हालांकि अब तक संघ के सर संघ चालक से लेकर संघ के सभी बड़े अधिकारी नरेंद्र मोदी के काम से पूरी तरह संतुष्ट नजर आए हैं। खैर, अब ये तो समय ही बताएगा की संघ के प्रयासों और उसकी गतिविधियों का उत्तरप्रदेश की राजनीति में बीजेपी को कितना फायदा पहुंचता है और किस तरह संघ के दिखाए रास्ते को अपनाकर बीजेपी उत्तरप्रदेश में असम दोहरानें में कामयाब हो पाती है। लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यूपी चुनाव में बीजेपी और संघ के बीच रणनीति का अंतर अमित शाह के फैसलों पर सवाल उठा रहा है?
भले ही भाजपा अपने दो साल के सुशासन का गुणगान करते हुए विकास पर्वÓ मनाए, लेकिन दरहकीकत बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने उसे सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। 15 लाख वाली बात को जनता जुमलाÓ मानकर नजरअंदाज कर सकती है, लेकिन महंगाई और बेरोजगारी पर ऐसा करना मुश्किल लगता है। लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार जरूर बड़ा मुद्दा था, लेकिन भाजपा ने महंगाई और बेरोजगारी पर जिस तरह यूपीए सरकार को घेरा था, उसकी बानगी सोशल मीडिया पर तैर रही है कि किस तरह भाजपा का शीर्ष नेतृत्व महंगाई के मुद्दे पर मुखर था। अब महंगाई को मांग और आपूर्तिÓ के सिद्धांत से जोड़कर उसे सही बताने की कोशिश की जा रही है, जो शायद ही जनता के गले के नीचे उतरे।
संघ तैयार कर रहा यूपी विजय का फार्मूला
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, कानपुर के बिठूर में अपने प्रांत प्रचारको की मैराथन बैठक कर रहा है। यूँ तो संघ इसे अपनी नियमित सालाना बैठक करार दे रहा है लेकिन राज्य में आने वाले चुनाव को देखते हुए इस बैठक को बेहद ही अहम है माना जा रहा है। पहले तीन दिनों तक चले संघ के प्रांत प्रचारकों के अभ्यास वर्ग के बाद आखिरी दो दिनों में इस शिविर का असली ऐजेंडा अब तय होगा, क्योंकि संघ के सभी संगठनों के वो तमाम लोग अपनी-अपनी ब्लू प्रिंट के साथ संघ प्रमुख के सामने पेश होकर अपनी रिपोर्ट रखेगें जो चुनावों में अपनी भूमिका देखते हैं। संघ प्रमुख से मिलने वालों का सिलसिला शुरू हो चुका है जो उत्तर प्रदेश के चुनाव में अहम हो सकते हैं। प्रचार से दूर कानपुर के ऐतिहासिक इलाके बिठूर के एक प्राइवेट कॉलेज में संघ का ये महामंथन, प्रचारकों के अभ्यास वर्ग से कहीं ज्यादा अहम है, जिसकी आहट पहले दिन ही सुनाई दे गई जब संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने साफ कर दिया कि पिछले दो सालों से छुट्टी पर चल रहे सह-सर-कार्यवाह सुरेश सोनी न सिर्फ अब सक्रिय हो चुके हैं बल्कि पहले की तरह ही उनका प्रवास और सक्रियता दिखाई देगी। साफ है सुरेश सोनी का वनवास खत्म होना यूपी चुनाव में संघ की रूचि को दर्शाता है। याद होगा सुरेश सोनी संघ के वही अधिकारी हैं जिनकी भूमिका लोकसभा चुनाव के पहले नरेन्द्र मोदी को पार्टी के कैंपेन कमेटी के अध्यक्ष बनाने से लेकर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने तक में रही, लेकिन पिछले दो वर्षों से लगभग निष्क्रिय संघ के इस आला अधिकारी को फिर से सक्रियता बढ़ाने को कह दिया गया है।
-दिल्ली से रेणु आगाल