आतंकियों से इतनी हमदर्दी क्यों?
18-Jul-2016 08:48 AM 1234848
भारतीय सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में बुरहान मुजफ्फर वानी की मौत के बाद निकले जनाजे में हजारों लोग उमड़े। शवयात्रा के समय जमकर उत्पात भी हुआ। बुरहान के जनाजे के बहाने अब मुंबई धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन की मुंबई में निकली शव यात्रा को भी जरा याद कर लीजिए। मुंबई में वर्ष 1993 में हुए सीरियल बम विस्फोट के मामले में दोषी याकूब मेमन को नागपुर केंद्रीय कारागार में फांसी दी गयी। इसके बाद उसकी मुंबई में शव यात्रा निकली। उसमें भी हजारों लोग शामिल हुए। सवाल यह है कि क्या कानून की नजरों में गुनहगार साबित हो चुके मेमन और बुरहान को लेकर समाज के एक वर्ग का इस तरह का सम्मान और प्रेम का भाव दिखाना जायज है? हालात यहां तक बिगड़े कि अमरनाथ यात्रा रोकनी पड़ी। केंद्रीय मंत्री एम. वेंकैया नायडू ने वाजिब सवाल पूछा है कि हिज्बुल के एक दहशतगर्द से लोगों की ऐसी हमदर्दी कैसे हो सकती है? लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत यही है कि 15 साल की उम्र में बंदूक उठा लेने वाले उस दिग्भ्रमित नौजवान के मारे जाने से कश्मीरी आबादी का एक हिस्सा आक्रोशित नजर आता है। क्या यह स्थिति कश्मीरी अवाम से भारतीय नेतृत्व की संवादहीनता का संकेत है? अथवा, यह कश्मीरी क्षेत्रीय दलों के राष्ट्रीय पार्टियों के साथ लगातार हुए सिद्धांतहीन गठबंधनों का नतीजा है, जिससे वहां एक तरह के सियासी खालीपन की हालत बनी है? मामला गंभीर है और देश इस सवाल का उत्तर उन सभी से चाहता है, जो मेमन और बुरहान को हीरो के रूप में पेश करने में शर्मिंदगी महसूस नहीं करते। बुरहान हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर के तौर पर काम कर रहा था। आतंकवादियों की भर्ती कर रहा था। प्रशिक्षित कर रहा था, आत्मघाती बना रहा था और मेमन ने मुंबई धमाकों की रणनीति बनाने में खास भूमिका अदा की थी। अब जरूरी यह है कि किसी भी आतंकवादी का अंतिम संस्कार सार्वजनिक तौर पर होना बंद हो। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि याकूब मेनन से लेकर बुरहान जैसे खून के प्यासों की शवयात्रा में शामिल होकर मुस्लिम समुदाय का एक गुमराह वर्ग बेहद खराब संदेश देते हैं। बुरहान वानी सैन्य वेशभूषा में इंटरनेट पर लगातार वीडियो संदेश जारी करता था। उनमें भारत के खिलाफ जहर उगला जाता था। घाटी की 60 फीसदी आबादी 30 वर्ष से कम उम्र के लोगों की है। उनका एक हिस्सा ऐसे भड़काऊ भाषणों के असर में आ गया हो तो उसमें ज्यादा हैरत नहीं है। किंतु यह जरूर आश्चर्यजनक है कि पीडीपी व नेशनल कांफ्रेंस जैसी स्थानीय पार्टियों तथा राष्ट्रीय दलों के नेताओं ने इसे नजरअंदाज किया। उन्होंने सही समय पर वानी के पैगामों के खोखलेपन को बेनकाब करने की सियासी पहल नहीं की। बुरहान वानी के वीडियो किसी भी भारतीय का खून खौलाने के लिए काफी रहे हैं। कितने ही अपने ही मजहब मानने वाले निरीह मासूमों का जिहाद के नाम पर कत्ल कर देने वाले इस हत्यारे को शहीद करार देने वाले हिन्दुस्तान को क्या संदेश दे रहे हैं, यह इस मजहबी जुनूनी भीड़़ की मौजूदगी से पता चल गया। बुरहान वानी को जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने के आरोपी उमर खालिद अब शहीद साबित करने की कोशिश कर रहा है। उस पर आतंकवादियों को उकसाने और राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलना जरूरी हो गया है। उमर खालिद ने अपने फेसबुक पोस्ट पर बुरहान की तुलना लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारी चे ग्वेरा तक से कर दी। अब सवाल ये है कि आखिर आतंकी बुरहान वानी को शहीद बताने वाले उमर खालिद पर अब तक कार्रवाई क्यों नहीं हुई? कश्मीर की स्थिति देश के दूसरे हिस्सों के बनिस्बत कहीं ज्यादा संवेदनशील है। वास्तव में इसे देश के अभिन्न हिस्से के तौर पर साथ जोड़े रखना हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी तक सभी के लिए एक बड़ी चुनौती रहा है। कश्मीर की इस समस्या के लिए ब्रिटिशों को दोष देना आसान है, जिनकी कुटिल चालों की वजह से कश्मीर का मुद्दा विवादित बना। इसी तरह कोई नेहरू को भी दोष दे सकता है, जो इस मसले को संयुक्त राष्ट्र में लेकर गए। इसके लिए पाकिस्तान को भी दोष दिया जा सकता है जो यहां अलगाववाद की आग को हवा देता है। हमारी सरकारों द्वारा जम्मू-कश्मीर में समय-समय पर चुनाव भी संपन्न कराए गए, जिनकी खास विश्वसनीयता नहीं रही। हालात बिगड़ते ही गए। नब्बे के दशक तक आते-आते हालात इस कदर बिगड़ गए कि कश्मीरी पंडितों को वहां से खदेड़ दिया गया। हालांकि पिछले तीन चुनाव बाकी चुनावों से अलग थे, जहां स्थानीय अवाम का समर्थन भी मिला। वर्ष 2003 के चुनाव में जहां 45 फीसदी वोटिंग हुई, वहीं 2014 तक आते-आते यह आंकड़ा 70 फीसदी के स्तर को पार कर गया। लेकिन जम्मू-कश्मीर में इन चुनावों से बुनियादी मसलों को सुलझाने में कोई मदद नहीं मिली। कश्मीरी पंडित 25 से ज्यादा सालों के बाद आज भी अपनी जड़ों से दूर हैं। उन्हें राष्ट्रवादियों द्वारा सत्ता में साझेदारी लायक पर्याप्त सीटें जीतने के बावजूद वहां से दूर रहना पड़ रहा है। कश्मीर घाटी में एक तरह का जनादेश आया, तो जम्मू में बिलकुल दूसरी तरह का। सैद्धांतिक रूप से इन दोनों का संयोजन एक आदर्श राजनीतिक स्थिति लगती है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर ऐसा नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि दो विविधतापूर्ण राजनीतिक ताकतों ने इसे ठीक से नहीं संभाला। अहम मुद्दा यह है कि कश्मीरियों ने अलगाववादियों की बहिष्कार की अपील के बावजूद चुनावों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, वे विभिन्न केंद्र सरकारों द्वारा घोषित विकास पैकेजों से लाभान्वित भी होते रहे हैं, फिर भी वे अलगाववाद की हवा के प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यहां पर बाहरी कारक भी अहम है। अलगाववादियों को सरहद पार से हर तरह का सहयोग और समर्थन मिलता है। यदि पाकिस्तान कश्मीर को मुख्य मुद्दा बनाते हुए भारत से रार ठाने हुए है तो अलगाववादियों को भी अपने अस्तित्व की खातिर इस मुद्दे को गरमाए रखना मुफीद लगता है। मौजूदा दौर में एक आम कश्मीरी खुद को हताश महसूस कर रहा है, क्योंकि केंद्र सरकार में से किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली। केंद्र के प्रमुख सत्ताधारी दल द्वारा इस राज्य के चुनावों में आंशिक जीत हासिल करने और सत्ता में साझेदारी पाने के बाद भी इसे सियासी रूप से सुदृढ़ करने के ना के बराबर प्रयास किए गए। घाटी के लोगों और अलगाववादियों के साथ बातचीत कर उनकी समस्याएं के बारे में जानने-समझने का मुश्किल काम उन लोगों के जिम्मे छोड़ दिया गया, जो यहां से निर्वाचित होकर आए हैं। ऐसे में बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत ने पहले से तनावपूर्ण चल रही स्थिति को और गंभीर बना दिया। यह भी अजीब विरोधाभासी स्थिति है कि जो सुरक्षा बलों के लिए बोनस है, वह राजनेताओं के लिए पेनल्टी है। इससे पहले कि हालात और बिगड़ें, केंद्र व राज्य सरकार को तुरंत कदम उठाते हुए स्थितियों को अपने नियंत्रण में लेना होगा। इसके साथ-साथ उन्हें स्थानीय लोगों के साथ जुड़ते हुए समाधान तलाशना होगा और उनकी बुनियादी समस्याएं दूर करनी होंगी। इससे दूर भागने से कुछ नहीं होगा। यह सही है कि कश्मीर मसले का कोई आसान समाधान नहीं है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि इसे तलाशा ही ना जाए। इसके लिए ईमानदार प्रयास जरूरी हैं। सर्वप्रथम केंद्रीय नेतृत्व को ये आकलन करना चाहिए कि घाटी में स्थिति लगातार क्यों फिसल रही है? सुरक्षा-व्यवस्था के मोर्चे पर तो वर्तमान सरकार ने पर्याप्त कुशलता दिखाई है, मगर सियासी पहल करने और लोगों का दिल जीतने के मोर्चों पर बात क्यों आगे नहीं बढ़ी? मजहबी कट्टरपंथ से प्रेरित और आतंक की राह चलने वाले एक गुमराह नौजवान के लिए इस स्तर पर समर्थन दिखे, यह अत्यंत चिंताजनक बात है। इस स्थिति से निपटने की कारगर रणनीति अब अविलंब बनानी होगी। आतंकी संगठन का पोस्टर बॉय बुरहान वानी 22 वर्षीय आतंकी बुरहान वानी हिजबुल मुजाहिदीनका पोस्टर बॉय था और अपने युवाई आकर्षण तथा इंटरनेट का इस्तेमाल करते हुए वहां अलगाववादी हिंसा भड़काने की कोशिशों में लगा था। बहरहाल, कश्मीर में उपजी इस अशांति का एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि एक लंबे समय बाद अब वहां सुरक्षा बलों को निशाना बनाया जा रहा है। यह सब सिर्फ हिंसक पथराव तक सीमित नहीं है। हिंसक भीड़ द्वारा एक पुलिसकर्मी की हत्या करने के बाद उसकी मृत देह को झेलम नदी में फेंक देने की घटना से पता चलता है कि प्रदर्शनकारियों में सेना या पुलिस का कोई भय नहीं और वे अपनी जान जोखिम में डालने के लिए तैयार हैं। दूसरा चिंताजनक पहलू यह है कि इस हिंसा से अब वहां के पढ़े-लिखे युवा भी जुड़ रहे हैं, जो बेरोजगार हो सकते हैं और नहीं भी। लगता है, इन दिग्भ्रमित युवाओं को इस वक्त अपनी रोजगार-सुरक्षा या परिवार की बेहतरी से ज्यादा ऐसे हिंसक विरोध प्रदर्शनों से जुडऩा ज्यादा आकर्षक लग रहा है। 1996 के बाद सबसे व्यापक प्रदर्शन भारत प्रशासित कश्मीर में हिजबुल के चरमपंथी बुरहान वानी की मौत के बाद प्रदर्शन जारी है, जिसमें अब तक 36 लोगों की मौत हो चुकी है। कहा जा रहा है कि कश्मीर में कई साल के बाद ऐसे प्रदर्शन हो रहे हैं। उसकी एक वजह ये हो सकती है कि कश्मीर मुद्दे को लेकर लंबे समय से भारत सरकार या राज्य सरकार की तरफ से कोई भी पहल नहीं हुई है। पहले कभी कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत होती रहती थी। कभी भारत सरकार यहाड्ड के हुर्रियत और बाकी अलगाववादियों से बात करती थी, तो लगता था कि कोई न कोई कहीं न कहीं कश्मीर मुद्दे को लेकर दिलचस्पी ले रहा है और काम करना चाहता है। -श्यामसिंह सिकरवार
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