16-Apr-2013 06:58 AM
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कर्नाटक में चुनावी शंखनाद हो चुका है और आगामी पांच मई को यहां चुनाव होने हैं, लेकिन सत्तासीन दल भारतीय जनता पार्टी में भ्रम तथा अनिश्चितता का वातावरण देखा जा रहा है। कुछ समय पूर्व हुए नगरीय निकाय के चुनाव में भाजपा की पराजय के कारण कार्यकर्ताओं में वैसा उत्साह नहीं रहा जैसा पहले कभी देखने में आया था। कांग्रेस और जनता दल एस भी उतने तैयार नहीं दिखते, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि सत्ता विरोधी मत का लाभ कांग्रेस को जरूर मिलेगा। उधर टिकटों के आवंटन को लेकर भाजपा में खींचतान देखने में आई है। अनंत कुमार ने एक बार फिर नेतृत्व के सामने परेशानी पैदा करने का प्रयास किया और केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव डाला कि वे अधिक से अधिक संख्या में उनके समर्थकों को टिकट दें। दरअसल कर्नाटक में भाजपा के सत्तासीन होने के साथ ही अनंत कुमार ने मुख्यमंत्री पद के सपने देखना शुरू कर दिया था और उन्हीं की महत्वाकांक्षा के कारण कर्नाटक में भाजपा का कबाड़ा हो गया। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। भाजपा का जीतना इन बदले हुए हालातों में एक चमत्कार ही माना जाएगा। हालांकि भाजपा के विरोध में खड़ी कांग्रेस उतनी संगठित नहीं है, लेकिन भाजपा की कमजोरियों का फायदा उसे मिलना अवश्यंभावी है। कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद को लेकर कोई प्रत्याशी सामने नहीं आया है। एसएम कृष्णा एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं कि उन्हें प्रोजेक्ट करके चुनाव लड़ा जाए। हालांकि आलाकमान ने फिलहाल कोई ऐसा संकेत नहीं दिया। कर्नाटक के चुनाव में कुछ अभिनेत्रियों और अभिनेताओं के सामने होने से ग्लैमर अवश्य बढ़ गया है। फिल्म एक्ट्रेस पूजा जो कभी जनता दल सेकुलर में थी वे अब बीआरएस कांग्रेस से जुड़ गई हैं। बीआरएस कांग्रेस पूर्व भाजपाई मंत्री बी श्री रामुलु ने गठित की है। रक्षिता प्रेम नामक एक अभिनेत्री भी इसी दल में शामिल हो गई है। लेकिन भाजपा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। जगदीश शेट्टार मंत्रीमंडल में शामिल रहे राजू गोडा उर्फ नरसिम्हा नायक नामक विधायक ने भारतीय जनता पार्टी छोड़कर जनता दल सेकुलर का दामन थामा है। भाजपा से पलायन लगातार जारी है। कर्नाटक जनता पक्ष नामक बीएस येदियुरप्पा की पार्टी भले ही चुनाव न जीत पाए लेकिन वह भाजपा की जिस तरह दुर्गति करने वाली है उसकी कल्पना ही की जा सकती है। भाजपा से जिस तरह बड़े-बड़े नेता दूर जा चुके हैं। लग रहा है कि दक्षिण के एकमात्र राज्य में भाजपा का अस्तित्व विलीन होने की कगार पर है। शायद यही भांपकर नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने कर्नाटक के चुनाव से अपनी दूरी बना ली है। 8 अप्रैल को ये दोनों नेता बैंगलोर में आयोजित एक विशाल रैली में भाग लेने के लिए पहुंचने वाले थे, लेकिन दोनों की यात्रा स्थगित हो गई। भाजपा ने इस औचक परिवर्तन का कोई कारण नहीं बताया है। खास बात यह है कि कई हफ्तो से राज्य भाजपा नेता मोदी और आडवाणी के भाग लेने का प्रचार कर रहे थे पर ऐन वक्त पर दोनों नेताओं ने आने से इनकार कर दिया। मोदी ने हाल ही में नवगठित भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में भी भाग नहीं लिया था, जिसमें कर्नाटक चुनाव के लिए 140 प्रत्याशियों की पहली सूची घोषित की गई थी। समझा जाता है कि मोदी कर्नाटक चुनाव से जानबूझकर दूरी बनाकर चल रहे हैं। क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि राज्य में भ्रष्टाचार और गुटबाजी के कारण पार्टी समाप्त होने की कगार पर है। ऐसे हालात में चुनावी कमान अपने हाथ में लेकर मोदी हार से शुरूआत नहीं करना चाहते। 30 जिलों वाले कर्नाटक में केवल पांच जिलों में ही मोदी को बतौर प्रचारक बुलाया जा रहा है इससे भी पता चलता है कि राज्य में मोदी को लेकर कोई विशेष उत्साह नहीं है। अभी तक यह भी ज्ञात नहीं है कि मोदी इन जिलों में कितनी सभाएं करेंगे। कर्नाटक भाजपा इकाई ने मांग की थी कि मोदी की राज्य में अधिक से अधिक सभाए करवाई जाएं ताकि चुनावी फायदा उठाया जा सके क्योंकि मोदी को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में प्रोजेक्ट किए जाने की संभावना है। पूर्व मुख्यमंत्री डीवी सदानंद गौडा का भी कहना है कि उन्होंने मोदी से अनुरोध किया था कि वे कम से कम राज्य में 10 दिन प्रचार करें। वर्ष 2008 में भी मोदी ने राज्य में प्रचार किया था, लेकिन उस समय उनके प्रचार से कोई खास फायदा नहीं मिला।
अभी फिलहाल भाजपा से विधायकों और मंत्रियों का पलायन जारी है। हाल ही में तीन विधायकों ने पार्टी को अलविदा कह दिया है जिनमें पर्यटन मंत्री आनंद सिंह भी शामिल हैं। इसी प्रकार बेल्लारी के एक और विधायक जी सोमशेखर रेड्डी जाने की तैयारी में हैं। उधर कुछ नेता ऐसे भी हैं जो राज्य में भाजपा का चुनाव प्रचार कर रहे हैं, लेकिन येदियुरप्पा की पार्टी के साथ न जुड़ पाने का दुख भी सारेआम प्रकट कर रहे हैं। इस कारण जनता भ्रम में है और अब राष्ट्रीय नेताओं की बेरुखी के कारण यह भ्रम और बढ़ गया है। सवाल यह है कि भाजपा की इस दुर्गति का फायदा किसे मिलेगा। क्या कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आ सकेगी या वर्ष 2008 की तरह बार-बार गठबंधन सरकारों के नाटक कर्नाटक में देखने को मिलेंगे। चुनावी परिदृश्य की बात की जाए तो किसी भी पार्टी की लहर चलती दिखाई नहीं दे रही है भाजपा भले ही अंतरविरोधों से घिरी रही हो लेकिन कर्नाटक में उसके शासनकाल में कुछ अच्छा काम भी हुआ है पर दुविधा यह है कि जिन लोगों ने इस अच्छे काम में भागीदारी की है वे अब भाजपा के साथ नहीं है।
संजय शुक्ला