18-Jul-2016 07:34 AM
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बुंदेलखंड की नियति ही कुछ ऐसी है कि यहां के निवासी हमेशा अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं। इस बार सूखे के बाद क्षेत्र में मानसून की मेहरबानी जमकर बरस रही है। लेकिन विसंगति यह है कि वर्षों के सूखे के बाद यहां के किसान इस कदर कंगाल हो गए हैं कि उनके पास खाद और बीज खरीदने के लिए पैसे तक नहीं है। आलम यह है कि ये पहले से ही बैंकों और साहूकारों के कर्ज तले दबे हैं ऐसे में इन्हें कोई कर्ज देने को भी तैयार नहीं है। बुंदेलखंड में बैंकों और साहूकारों के कर्ज तले दबे किसान मजदूर बनने को मजबूर हैं। बुंदेलखंड में अपना लोन टार्गेट पूरा करने के चक्कर में बैंक भी ब्याज में किसानों की जिंदगी मांग रही हैं। किसान भले मरे लेकिन, दलालों और बैंक अधिकारियों की चांदी कटती है। बुंदेलखंड इलाके के ज्यादातर किसान-मजदूर साहूकारों से ब्याज पर पैसा उठाते हैं, क्यों कि बैंकों के नियम कानून काफी पेंचिदा हैं। दूसरी तरफ, जो बड़े काश्तकार हैं, लेकिन बहुत ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं, वे बैंकों में दलाली करने वाले एजेंटों के सहयोग से जमीन गिरवी रखकर लोन लेते हैं। लोन का एक बड़ा हिस्सा कमीशन के तौर पर बैंक अधिकारियों और दलालों के पास चला जाता है, जो थोड़ा-बहुत बचता है वो किसान को मिलता है।
ललितपुर के बजर्रा के रमेश यादव कहते हैं, साहब, अगर बैंक से लोन मिला तो फिर पूरी जिंदगी फंस जाती है। अकाल और बेरोजगारी के बीच लोन चुकाने के दबाव और कहीं से कोई राह निकलता न देख किसान मौत को गले लगा लेता है। बैंक अधिकारी तो यहां तक कहते हैं कि दुबारा लोन लेकर पहले वाला चुका दो, जो फंस गया उसे फिर मौत ही निजात दिला पाती है। सरकार 35 और 40 रुपए मुआवजा देकर जले पर नमक छिड़कती है। दरअसल, बुंदेलखंड के बैंक भी साहूकार बन गए हैं। साहूकारों का ब्याज उनके दिए गए उधार से कई गुना ज्यादा हो जाता है और कर्ज तले दबा किसान अपनी जमीन साहूकार को लिखने को मजबूर हो जाता है। बुंदेलखंड के किसान केसीसी के जरिए लगभग 6 अरब के कर्ज में डूबे हुए हैं। बैंक और साहूकार बुंदेलखंड के तमाम किसानों को मजदूर बना चुके हैं, लेकिन इससे निकलने का रास्ता ना तो किसानों के पास है और ना ही सरकार की इससे निकालने में कोई दिलचस्पी है।
अकाल और गरीबी से जूझ रहा बुंदेलखंड गैर सरकारी संस्थाओं के सेवा भाव के लिए मुफीद इलाका है। कई एनजीओ यानी गैर सरकारी संस्थाएं बुंदेलखंड के जिलों में काम कर रही हैं। इनका पुख्ता आंकड़ा प्राप्त करना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन अगर नरैनी निवासी रामशकल की मानें तो बुंदेलखंड के एक जिले में औसतन पांच सौ से ज्यादा एनजीओ संचालित हो रहे हैं। रामशकल कहते हैं, अगर मोटा-मोटी कहें तो बुंदेलखंड के 13 जिलों में 5 हजार से ज्यादा एनजीओ संचालित हो रहे हैं। कुछ बुंदेलखंड के जिलों में रजिस्टर्ड हैं तो कुछ बाहर से आकर काम कर रहे हैं। जमीनी स्तर पर सही काम करने वाले गैर सरकारी संस्थाओं की संख्या एक दर्जन से थोड़ी ही ज्यादा होगी। शेष संस्थाएं केवल लूटतंत्र में शामिल हैं। कई अधिकारियों के रिश्तेदार और परिचित भी इस बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं।
किसान, गरीब, सूखा, बीमारी, स्वच्छता के नाम पर गैर सरकारी संस्थाओं का धंधा जोर शोर से चल रहा है। किसको कितना फंड मिल रहा है, कौन कहां से पैसा लाकर अपनी जेब भर रहा है, विदेशों से कितना पैसा आ रहा है, कहीं कोई पूछने वाला या बताने वाला नहीं है। यही लोग घास की रोटी दिखाकर बुंदेलखंड को बदनाम कर रहे हैं ताकि बरबादी से जूझ रहे बुंदेलखंड में इनका उद्योग चलता रहे। दरअसल बुंदेलखंड केवल नेताओं, अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए ही नहीं बल्कि अन्य गैर सरकारी संस्थाओं की कमाई का केन्द्र है। उनका यह कारोबार तब तक चलता रहेगा जब तक यहां के लोग खुद जागरुक नहीं होंगे।
सूखे में वोटों की खेती
बुंदेलखंड केवल अकाल, भूख और किसानों की लाशों पर धंधा करने वालों से ही नहीं जूझ रहा बल्कि सियायत की फसल उगाते-उगाते भी आल्हा-उदल की यह धरती बंजर हो चली है। किसानों की लाश को खाद बनाकर वोटों की फसल बोने में कोई दल या कोई नेता पीछे नहीं है। बुंदेलखंड भले ही सूखा हो, लेकिन नेता लोग वोटों की फसल की सिंचाई घडिय़ाली आंसू बहाकर कर रहे हैं। दिल से कोई नहीं चाहता की हालात बदले। वरना, क्या कारण थे कि बुंदेलखंड को पैकेज मिलने के बाद भी किसानों की मौत रूक नहीं रही है। अरबों खर्च के बावजूद हालात बदल नहीं रहे हैं। शायद ही, कोई अपनी खुशी से मरता होगा? पिछले दो सालों में नरेंद्र मोदी, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, सीएम अखिलेश यादव, मुख्य सचिव आलोक रंजन के इस धरती पर जाने के बावजूद हालात वैसे ही हैं, जैसे पहले था। बुंदेलखंड के नाम पर करोड़ों के पैकेज के बावजूद यहां ना तो गांवों की स्थिति बदली है ना ग्रामीणों की हैसियत। अगर कुछ बदलता है तो केवल बुंदेलखंड के नाम पर विलाप करने वाले राजनीतिक दलों के सुर।
-जबलपुर से धर्मेंंद्र सिंह कथूरिया