06-Jul-2016 08:37 AM
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ब्रिटेन के लोगों ने आखिरकार ब्रेक्जिट (ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर होने) का विकल्प ही चुना। लेकिन क्या यह अजीब नहीं लगता कि एक ऐसा देश, जिसने कभी तकरीबन आधी दुनिया को अपना उपनिवेश बनाकर उसका शोषण करते हुए अपने साम्राज्य को समृद्ध व शक्तिशाली बनाया था, आज उसने कायरतापूर्ण ढंग से यूरोप से अलग होने का फैसला किया? क्या यह भी एक विडंबना नहीं है कि एक ऐसा राष्ट्र जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध में जीत के बाद अपने विभिन्न औपनिवेशिक देशों को आजाद करने के लिए मजबूर होना पड़ा और जिसने इन्हें कमजोर और अभावग्रस्त हालत में छोड़ दिया था, उसने खुद उस यूरोप से अलग होते हुए अपने लिए स्वतंत्रता सुनिश्चित की, जिसमें इसके कुछ साथी उपनिवेशवादी भी हैं।
यह एक ऐसा यूरोप है, जो इन दिनों उन पुराने उपनिवेशों से आए लाखों प्रवासियों का घर है। ब्रिटेन वास्तव में इस आशंका से भयभीत है कि उसके पूर्व उपनिवेशों से और भी लाखों शरणार्थी आ सकते हैं, जिससे उसकी मूल पहचान पर संकट गहरा सकता है, जैसे कि यूरोप भी अब उतना यूरोपीय नहीं रह गया है। वास्तव में ब्रिटिश लोगों ने अपनी अलग राष्ट्रीय पहचान की चाह, अपने साम्राज्यवादी अतीत की सुखद यादों और अनिश्चित भविष्य के डर के चलते ही इस तरह का फैसला दिया है। पहले स्कॉटलैंड की आजादी पर और अब यूरोपीय संघ संबंधी जनमत संग्रह! दो सालों में इन दो हलचलकारी जनमत संग्रहों ने बता दिया है कि ब्रिटेन किस तरह अपनी पहचान को लेकर जूझ रहा है।
इस जनमत संग्रह में 71.8 फीसदी मतदान हुआ और तीन करोड़ से ज्यादा लोगों ने अपना वोट डाला। यह ब्रिटेन में 1992 के बाद हुए किसी भी चुनाव में सर्वाधिक मतदान है। इसके पक्ष में 52 और विपक्ष में 48 फीसदी वोट पड़े तथा हार-जीत का अंतर 11,79,758 मतों का रहा। 11 लाख मतों से ज्यादा का यह अंतर ऐसे देश में कोई छोटा आंकड़ा नहीं है, जो कि लोकतंत्र का पुरोधा रहा है।
यह जनमत-संग्रह वास्तव में एक सुपर इलेक्शन है। ऐसा सुपर इलेक्शन जिसने ब्रिटेन के आम लोगों को ऐसे वोट का मौका दिया, जो एक वैश्विक गांव में तब्दील हो चुकी धन व बाजार से संचालित दुनिया से ब्रिटेन को बाहर निकाल लाए। इससे यूरोपीय संघ टूट भी सकता है और नहीं भी, जैसी कि इस अभियान के दौरान आशंकाएं जताई गई थीं, लेकिन यह कमजोर तो अवश्य हो जाएगा। इस जनमत संग्रह के कुछ और पहलू भी हैं। एक तरफ यह इस मायने में ब्रिटिश लोकतंत्र का सम्मान है कि एक प्रधानमंत्री ने भारी दबाव में ही सही, पर अपने चुनावी वादे को निभाते हुए इसका आदेश दिया। यह दुनिया के बाकी लोकतांत्रिक देशों के नेताओं के लिए भी सबक होना चाहिए कि चुनावों के दौरान जो वादे किए जाएं उन्हें निभाया भी जाए। और ऐसे वादे जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता, या पूरा करने की मंशा ही न हो, किए ही न जाएं। लेकिन हम जानते हैं कि राजनेता ऐसा सबक कभी नहीं सीखेंगे और भोले-भाले लोग उन पर भरोसा करते हुए उन्हें वोट देते रहेंगे। दूसरी ओर यह इस बात का भी सबक है कि किस तरह एक आक्रामक अल्पमत लोकप्रिय तूफान का रूप लेते हुए बहुमत को पस्त कर सकता है। यह भारत में हमारे लिए भी सबक है कि अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद का कार्ड खेलना कितना खतरनाक है, फिर चाहे यह नस्लीय आधार पर हो, धार्मिक, जाति, क्षेत्र या भाषायी आधार पर।
चुनावी वादा महंगा पड़ा डेविड कैमरन पर
कभी-कभी चुनावी वादा या जुमला बहुत महंगा पड़ जाता है। ब्रेक्जिट का मामला भी कुछ ऐसा ही है। नतीजों के बाद अब बड़े पैमाने पर उठा पटक होगी। ब्रेक्जिट के पक्ष में आए नतीजों के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की विदाई होगी। वह अक्टूबर में इस्तीफा देंगे। इसे कैमरन के राजनैतिक भविष्य का अंत भी माना जा रहा है। कैमरन ने ही बीते चुनावों में जनमत संग्रह कराने का वादा किया था। कैमरन को उम्मीद थी कि ब्रेक्जिट की बहस छेड़कर वह यूरोपीय संघ पर दबाव बना सकेंगे। ऐसा करने में वह काफी हद तक सफल भी हुए। लेकिन कैमरन को लगता था कि देश के हालात बेहतर कर वह ब्रेक्जिट के खिलाफ भी माहौल बना सकेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उत्तरी आयरलैंड और स्कॉटलैंड के लोग जनमत संग्रह के नतीजों से बेहद दुखी हैं। दोनों प्रांत यूरोपीय संघ में बने रहना चाहते थे। ब्रेक्जिट वोट के बाद नादर्न आयरलैंड और स्कॉटलैंड यूके से अलग होने की मांग कर सकते हैं। यूरोपीय संघ की सदस्यता की वजह से दूसरे देश लंदन को वित्तीय खिड़की के तौर पर इस्तेमाल करते थे।
-ऋतेन्द्र माथुर