06-Jul-2016 08:18 AM
1234782
चीन की छलनीति से भले ही भारत परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में शामिल नहीं हो सका, लेकिन उसने अपने दबदबे का लोहा पूरे विश्व को मनवा दिया। किसे विश्वास था कि, इस बैठक में भारत को 48 देशों के इस समूह की सदस्यता मिल जाएगी। शायद हमारी सरकार को। और संभवत: इसलिए कि, आज की तारीख में दुनिया का सबसे ताकतवर देश, अमरीका हमारे साथ है। संभवत: इसलिए भी कि फ्रांस और ब्रिटेन जैसे बड़े देश भी हमारे साथ थे। ये सब रहे भी लेकिन हमारी तमाम कोशिशों के बाद चीन ने वही किया जिसका डर था। उसने हमारी सदस्यता पर वीटो लगा दिया।
लेकिन इसके साथ यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि 48 सदस्यीय समूह में हमारे पक्ष में ज्यादातर देश न केवल आए बल्कि हमारी अनुपस्थिति में जमकर वकालत की। यह क्या सामान्य कूटनीतिक सफलता है? यह हमारे लिए संतोष का विषय होना चाहिए। आखिर सिओल बैठक में क्या हुआ? भारत की सदस्यता चर्चा का मुख्य केन्द्र बिन्दु बना। भारत से बैठक आरंभ हुई और भारत पर ही खत्म। इसमें समर्थन ज्यादा और विरोध कम। अंतिम समय में तो ऐसा लगा कि 48 में से 47 सदस्य इस पर राजी हो गए कि भारत को सदस्य बना लेना चाहिए। तो एक सदस्य का विरोध कूटनीतिक विफलता हो गई और 47 का समर्थन क्या हुआ? सिओल बैठक में जो हुआ, उसे देखिए। जापान ने हमारी सदस्यता के लिए प्रस्ताव रखा। अर्जेंटीना के निवर्तमान अध्यक्ष राफाएल ग्रोसी ने अपने आरंभिक अध्यक्षीय वक्तव्य में ही भारत की नाभिकीय अप्रसार के प्रति वचनबद्धता तथा उसके अनुपालन का समर्थन करते हुए सकारात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत किया। उनके बाद अध्यक्षता संभालने वाले दक्षिण कोरिया ने भी भारत की सदस्यता से बातचीत आरंभ की। लेकिन चीन ने प्रक्रिया का प्रश्न उठा दिया।
चीन के विरोध का डर हमें पहले से था। तभी तो सियोल बैठक से चौबीस घंटे पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ताशकंद में, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिले। उनसे समर्थन की बात की। जिनपिंग ने कूटनीतिक जवाब भी दिया था। इस जवाब से हमने चीन के समर्थन की उम्मीद पाल लीं लेकिन उसने वही किया जो सन 1962 में किया। यानी विश्वासघात। लेकिन क्या यह धोखा चीन ने दिया? या यह धोखा भारत ने खाया। वह भी सब जानते-बूझते।
भारत में बच्चा-बच्चा जानता है, चीन के बारे में। वह यह भी जानता है कि, चीन हमसे कितनी नफरत करता है? क्यों करता है? तब हमने उससे समर्थन की उम्मीद ही क्यों पाली? चीन ने हमें सपोर्ट नहीं किया तो उसमें उसका क्या दोष? गलती तो हमारी है कि हमने उसके समर्थन की उम्मीद की। हमें लगा कि, भारतीय प्रधानमंत्री के गृह राज्य में, उनके साथ झूला झूलकर जिनपिंग का मन बदल गया होगा? पर चीन इतना जल्दी बदलने वाला नहीं है। उसके राष्ट्रपति झूले को भी भूल गए और नागरिक अभिनंदन को भी। उन्हें याद रहा तो दिन ब दिन मजबूत होता भारत।
भारत एशिया ही नहीं दुनिया में चीन का बड़ा प्रतिद्वंद्वी है और रहेगा। वह पाकिस्तान की तरह उसका पिछलग्गू नहीं बन सकता। क्योंकि पिछले 30-40 सालों में पाकिस्तान को तमाम तरह की तकनीक देकर परमाणु क्षमता सम्पन्न बनाया ही चीन ने है लिहाजा वह उसे खड़ा भी रखना चाहता है। तभी तो उसने शर्त रख दी कि, बिना परमाणु प्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए यदि भारत को एनएसजी का सदस्य बनाना है तो पाकिस्तान को भी बनाओ। अपने रुख से चीन ने भारत को ही नहीं अमरीका को भी आईना दिखाने की कोशिश की है अमरीका ही नहीं चीन भी दम रखता है। यही समय है जब भारत को भी अपनी ताकत दिखानी चाहिए।
ध्यान रखने की बात है कि चीन के विरोध के बावजूद भारत का आवेदन खारिज नहीं हुआ। इन देशों ने सम्मेलन की विज्ञप्ति में एक बिन्दु ऐसा डलवा दिया, जिससे अगली बैठक में भी भारत की सदस्यता पर विचार हो सकता है। तो मामला खत्म नहीं हुआ है। एक विशेष बैठक इसी वर्ष हो सकती है। यह भी समझने की जरूरत है कि एनएसजी की सदस्यता से भारत के लिए बहुत ज्यादा व्यावहारिक अंतर नहीं आने वाला है।
बाजार बंद करे भारत
बाजारीकरण के दौर में चीन के लिए भारत का बड़ा बाजार बंद करने की कोशिश करनी चाहिए। बेशक ऐसे फैसले बहुत सोच-समझकर लेने होते हैं लेकिन हिम्मत से कर लिए तो भविष्य के लिए उपयोगी भी बहुत होते हैं। यदि अमरीका भी इसमें साथ जुड़ जाए तो कहने ही क्या? इससे अमरीका हमारा कितना साथ देगा, और किस हद तक साथ देगा, यह भी पता चल जाएगा। यदि आर्थिक रूप से चीन कमजोर होता है तो फिर पाकिस्तान उसे खड़ा नहीं रख पाएगा। उसकी मजबूरी होगी हमें साथ लेना और हमारी जरूरत है खुद को बुलंद करना। बार-बार धोखा खाने से बचना। यह चीन की छलनीति थी, क्योंकि एनपीटी कई देशों के लिए धार्मिंक आस्था जैसा है।
-अक्स ब्यूरो