कब युवा होगी कांग्रेस?
06-Jul-2016 08:28 AM 1234840
किसी भी योद्धा के लिये लड़ाई तब बहुत मुश्किल हो जाती है, जब उसे अपने ही फैसले से लडऩा होता है। कांग्रेस की हालत भी कुछ ऐसी ही हो रही है। पार्टी अध्यक्ष भले ही सोनिया गांधी हैं, लेकिन कांग्रेस के सारे पदाधिकारी राहुल गांधी के नेतृत्व में काम कर रहे हैं। विसंगति यह देखिए कि राहुल जिन नेताओं का नेतृत्व कर रहे हैं वे सभी उनकी दादी और पिता के कार्यकाल के हैं। आज कांग्रेस जिन नेताओं के दम पर हुंकार भर रही है वे सभी दगी हुई तोप के समान हैं। ऐसे में अब सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस कब युवा होगी। ऐसा नहीं है कि पार्टी में युवा नेताओं की कमी है। लेकिन बुजुर्ग उन्हें जगह देने को तैयार नहीं है। ज्ञातव्य है कि लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में एक राय बनी की पार्टी को युवा और मेहनती नेताओं और कार्यकर्ताओं को आगे लाना है। जब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की चुनावी जंग में उतराने की बारी आई, तो कांग्रेस ने गुलाम नबी आजाद जैसे पुराने नेताओं को प्रदेश प्रभारी बना दिया। गुलाम नबी आजाद के बाद मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उतारने की अंदरखाने कांग्रेस में चर्चा चल रही है। कांग्रेस को अगर उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में खड़े होना है, तो उसे पुराने चेहरों के मोह से आजाद होना पड़ेगा। नेहरु खानदान की चौथी पीढ़ी अगर यह सोचकर कांग्रेस की कमान संभालने की तैयारी कर रही है कि वह देश की कमान भी संभाल लेगी या जनता राहुल गांधी के हाथ में देश की बागड़ोर सौंप देगी तो इससे ज्यादा बड़ा कोई सपना मौजूदा वक्त में हो नहीं सकता है। क्योंकि कांग्रेसियों को नहीं पता है कि उसे सर्जरी करनी भी है तो कहां करनी है। वोट बैंक तो दूर खुद बिखरे कांग्रेसियों को ही कांग्रेस कैसे जोड़े इस सच से वह दूर है। फिर आजादी के दौर के बोझ को लिये कांग्रेस मौजूदा सबसे युवा देश को कैसे साधे इसके उपाय भी नहीं है। इसीलिये कांग्रेस को लेकर सारी बहस कमान संभालने पर जा ठहर रही है। यानी सोनिया और राहुल के बीच फंसी कांग्रेस। यानी अभी सोनिया गांधी के हाथ में कमान है तो गंठबंधन को लेकर कांग्रेस लचीली है। सहयोगी भी सोनिया को लेकर लचीले हैं। अगर राहुल गांधी के हाथ में कमान होगी तो राहुल का रुख सहयोगियों को लेकर और सहयोगियों का कांग्रेस को लेकर रुख बदल जायेगा। तो क्या कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी से बड़ा कोई सवाल नहीं है। और राहुल गांधी के सामने कांग्रेस के सुनहरे युग को लौटाने के लिये खुद के प्रयोग की खुली छूट पाने के अलावा कोई बड़ा सवाल नहीं है। या फिर पहली बार गांधी परिवार फेल होकर पास होने के उपाय खोज रहा है। यानी गांधी परिवार को लेकर कांग्रेस में इससे पहले कोई सवाल नेहरु इंदिरा या राजीव के दौर में जो नहीं उठा वह सोनिया के दौर में राहुल गांधी को लेकर उठ रहे हैं। तो यह कांग्रेस की नहीं गांधी परिवार के परीक्षा की घड़ी है। लेकिन सवाल ये है कि क्या वाकई कांग्रेस बदलने को तैयार है। आज कांग्रेस में सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मीनाक्षी नटराजन, मिलिंद देवरा जैसे युवा चेहरे हैं जो पार्टी के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। पार्टी को ऐसे नेताओं को संगठनात्मक जिम्मेदारी देनी पड़ेगी, वर्ना विघटन रूकेगा नहीं। सवाल उठता है कि कांग्रेस पार्टी को क्या अपने कार्यकत्र्ताओं तथा नेताओं के निरंतर हो रहे क्षरण को लेकर चिंतित होना चाहिए? क्या चूहे डूब रहे जहाज को छोड़ रहे हैं? इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टी अपनी संगठनात्मक गहराई खो रही है, विशेषकर मोदी के सत्ता में आने के बाद से। विभिन्न राज्यों में विद्रोह के स्वर उठ रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि यह क्षरण 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले ही शुरू हो गया था जब बीरेन्द्र सिंह (हरियाणा), जीके वासन (तमिलनाडु), जयंती नटराजन (तमिलनाडु), गोमांगो (ओडिशा), के।एस। राव, आर। सम्बाशिवा राव, किरण रैड्डी तथा जगन रैड्डी (सभी आंध्र प्रदेश से), जगदम्बिका पाल (उत्तर प्रदेश) तथा सतपाल महाराज (उत्तराखंड) जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी थी। दिवंगत एनटी रामाराव की बेटी पुरंदेश्वरी ने भाजपा के लिए कांग्रेस को धोखा दिया था। कृष्णा तीरथ (दिल्ली), दत्ता मेघे (महाराष्ट्र), जगमीत सिंह बराड़ (पंजाब), अवतार सिंह भडाना (हरियाणा) तथा मंगत राम शर्मा (जम्मू-कश्मीर) जैसे अन्य ने भी पार्टी छोड़ दी थी। अभी हाल ही में  छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी ने पार्टी का दामन छोड़ दिया। दुविधा को और बढ़ाते हुए कांग्रेस के 6 विधायकों ने गतदिनों त्रिपुरा में पार्टी छोड़ दी। यानी कांग्रेस पूरी तरह संक्रमण काल से गुजर रही है और वह तभी संभलेगी जब युवाओं के हाथ में संगठन हो। बहुत से वरिष्ठ कांग्रेसी इस स्थिति को लेकर चिंतित हैं और उन्हें डर है कि यदि बहुत देर होने से पहले सुधारात्मक पग नहीं उठाए गए तो कांग्रेस और अधिक डूब सकती है। इस बात की अत्यंत जरूरत है कि सही व्यक्ति को सही कार्य पर लगाया जाए तथा युवा व पुराने लोगों के मिश्रण के साथ संगठन का पुनर्गठन किया जाए। दूसरा है नेतृत्व के कार्य करने के तरीके में बदलाव लाना। तीसरा, जमीनी स्तर पर पार्टी कार्यकत्र्ताओं के लिए कार्यक्रम तथा योजनाएं बनाना। चौथा यह कि राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाकर वर्तमान असमंजस को समाप्त किया जाए ताकि वह 2019 के लिए योजना बना सकें। 130 वर्ष पुरानी पार्टी को इस तरह संकट में नहीं रहने दिया जा सकता है। अतीत में रहना कोई उत्तर नहीं है और भविष्य के लिए काम करना आगे बढऩे का तरीका है। यही समय है मंथन करने का। कांग्रेस की कुंडली में कलह ही कलह कांग्रेस की कुंडली में ऐसा कौन सा दोष आ गया है जो विदा होने का नाम ही नहीं ले रहा। लोकसभा चुनाव के समय से शुरू हुआ संकटों का दौर लगता है स्थाई रूप से कुंडली में घर जमा चुका है। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखण्ड, जम्मू-कश्मीर, केरल और असम में पार्टी सरकारों की विदाई के बीच पार्टी के अपने ही संकट बढ़ाने से बाज नहीं आ रहे। पार्टी में बगावती तेवरों के चलते पहले अरुणाचल प्रदेश की सरकार धराशाही हुई तो फिर उत्तराखण्ड की सरकार पर संकट खड़ा हो गया। उत्तराखण्ड की सरकार जैसे-तैसे बची तो अंदरुनी कलह का खेल अब कर्नाटक में शुरू हो चुका है। इन चेहरों के भरोसे कब तक दरअसल  राहुल गांधी भी कांग्रेस के संगठन में ऐसा कोई परिवर्तन करने को तैयार है जिससे नये चेहरे, नयी सोच, नये विजन का समावेश हो। क्योंकि कांग्रेसी कद्दावर नामों को ही देखिये। चिदंबरम, एके एंटोनी, कपिल सिब्बल, जयराम रमेश, आनंद शर्मा, अंबिका सोनी, गुलाम नबीं आजाद, आस्कर फर्नांडिस, चिरंजीवी, रेणुका चौधरी, पीएल पूनिया, व्यालार रवि। यह सभी चेहरे मनमोहन सिंह के दौर में उनके कैबिनेट मंत्री रहे हैं। और सभी मौजूदा वक्त में राज्य सभा में हैं। इन नेताओं की अपनी कार्यशैली है और काम करने का अपना मापदंड है। ऐसे में इन नेताओं से वह अपेक्षा नहीं की जा सकती जो युवा वर्ग से की जा सके। ऐसे में इन चेहरों के भरोसे कब तक कांग्रेस चलेगी। संकट का सामना करने में फेल बुजुर्ग आलाकमान को शायद इस बात का अहसास ही नहीं है कि बुजुर्ग नेता पार्टी को इस संकट से उबारने के काबिल नहीं रह गए हैं। यह हैरानी की बात है कि देश के विभिन्न हिस्सों में बागियों द्वारा अपनी गतिविधियां तेज करने के बावजूद अभी भी कांग्रेस नेतृत्व स्थिति की गम्भीरता को समझने में असफल रहा है। पार्टी राहुल गांधी तथा उनके चुने हुए लैफ्टीनेंटों, जिनमें से अधिकतर बाहर से इम्पोर्टÓ किए गए हैं, की भूमिका को लेकर असमंजस में है। यानी कांग्रेस असमंजस में फंसी है और वह दिन पर दिन रसातल में जा रही है। -दिल्ली से रेणु आगाल
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