राज्यों पर थोपा बाहरीÓ
16-Jun-2016 09:38 AM 1234826
लोकसभा और राज्यसभा के चुनावों में एक बुनियादी फर्क है। राज्यसभा के लिए यह जरूरी था कि उम्मीदवार उस राज्य का निवासी हो जहां से वह चुनाव लड़ रहा हो। इसीलिए राज्यसभा को राज्यों के प्रतिनिधियों की परिषद कहा जाता है। लेकिन देश में एक परंपरा सी चल पड़ी हैं कि राजनीतिक दल अपने चहेतों को संसद भेजने के लिए राज्य की सीमा भी लांघ जाते हैं। इस बार हुए राज्यसभा की 57 सीटों के चुनाव में भाजपा ने अपने उम्मीदवारों को एक राज्य से दूसरे राज्य ऐसे भेजा है मानो वे नौकरशाही का स्थांतरण कर रहे हों। ऐसे में राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाला कितना समर्पित रहेगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। राज्य सभा में प्रतिनिधित्व का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। राज्य सभा अब राजाओंÓ के प्रतिनिधियों की संस्था बनती जा रही है। अब यह राज्यों के प्रतिनिधियों की संस्था नहीं रही।  भाजपा राष्ट्रवाद के अपने एजेंडे के मुताबिक इस महत्वपूर्ण सदन के चरित्र को एक सीमा तक बदलने में कामयाब रही है, न कि डॉ. बी आर अम्बेडकर द्वारा ड्राफ्ट किये गये संविधान के प्रावधानों के मुताबिक। कांग्रेस भी भाजपा की ही राह पर चल रही है। पिछले दिनों राज्य सभा की 57 सीटों के लिए नामांकन दाखिल हुए। यह उच्च सदन की कुल सीटों का 23 फीसदी है। संविधान के मुताबिक, कोई भी भारतीय नागरिक राज्यसभा का चुनाव लड़ सकता है। राज्यसभा के लिए यह जरूरी था कि उम्मीदवार उस राज्य का निवासी हो जहां से वह चुनाव लड़ रहा हो। लेकिन यह बदल गया जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने संविधान में एक संशोधन करते हुए राज्यसभा चुनावों के लिए निवासी वाली उपशर्त को हटा दिया। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने इस संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसने इस मामले में हस्तक्षेप से मना कर दिया और इस संशोधन को वैध घोषित कर दिया। तब से राज्यसभा राज्यों के प्रतिनिधियों की संस्था की बजाय तेजी से राजनीतिक राजाओंÓ के प्रतिनिधियों की संस्था बनती जा रही है। यह समझना कठिन नहीं है कि तब से हालात किस तरह खराब हुए हैं और प्रभावशाली बाहरियों ने राज्यसभा की सीटें हासिल की हैं। राजनीतिक दलों के नेता अपने विधायकों पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए लोगों को राज्यसभा पहुंचाते हैं। खास तौर पर भाजपा के नेताओं ने इस कला में महारत हासिल कर ली है।  इस बार केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू को कर्नाटक से राजस्थान भेज दिया गया है। उन्होंने राज्य सभा में तीन बार कर्नाटक का प्रतिनिधित्व किया है। लेकिन इस बार उनके खिलाफ इतना गुस्सा था कि यहां तक कि भाजपा के विधायक भी उनको उम्मीदवार के तौर पर स्वीकारने का साहस नहीं दिखा सके हैं। शिकायत है कि आंध्र प्रदेश से आने वाले नायडू ने राज्यसभा में अपने तीन कार्यकालों में कभी भी कर्नाटक का कोई मसला नहीं उठाया। एक और केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण को नायडू की जगह कर्नाटक से मैदान में उतारा गया। सीतारमण भी कर्नाटक की स्थायी निवासी नहीं हैं। इससे पहले वह आंध्र प्रदेश से चुनी गयी थीं। नामांकन दाखिल करते समय उन्होंने कन्नड़ सीखने और कर्नाटक के मसले उठाने का वादा किया। महाराष्ट्र से आने वाले सुरेश प्रभु हरियाणा से भेजे जाने वाले थे, लेकिन बाद में उन्हें आंध्र प्रदेश भेजा गया। आंध्र से आने वाले जयराम रमेश को कांग्रेस ने कर्नाटक भेज दिया। अगर हम मौजूदा चुनाव में विभिन्न दलों की ओर से घोषित उम्मीदवारों की सूची पर नजर डालें, तो पता चलता है कि समृद्ध राज्यों के मुकाबले गरीब राज्यों में तुलनात्मक रूप से अधिक सीटें बाहरी उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं। झारखंड में छह में से तीन सीटें बाहरियों को मिली हैं। हरियाणा से आने वाले प्रभावशाली व्यवसायी और राजद नेता प्रेमचंद गुप्ता, दिल्ली निवासी पत्रकार एमजे अकबर और गुजराती कारोबारी परिमल नाथवानी इस समय राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इस बार झारखंड से राज्यसभा की दो सीटों पर चुनाव हो रहा है। इस बार एमजे अकबर की जगह केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ले रहे हैं। अकबर को मध्य प्रदेश भेज दिया गया है। मध्य प्रदेश में राज्यसभा की 11 सीटें हैं और इनमें से तीन पर इस बार चुनाव हो रहे हैं। मौजूदा स्थिति यह है कि राज्य से राज्यसभा की 36 फीसदी सीटें बाहरियों के पास हैं। बिहार से इस बार राजद ने राम जेठमलानी को आगे बढ़ाया है, जबकि जदयू ने शरद यादव को। केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को यहां से राज्यसभा भेज कर भाजपा ने पहले ही अपना बाहरियों का कोटा पूरा कर लिया है। जेठमलानी पहले भाजपा उम्मीदवार के तौर पर राजस्थान से राज्यसभा जा चुके हैं। केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली और स्मृति ईरानी गुजरात का प्रतिनिधित्व करने वाले बाहरी हैं। महाराष्ट्र में 15 फीसदी सीटें बाहरी लोगों को जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में, जहां क्षेत्रीय दलों का दबदबा है, केवल छह फीसदी बाहरियों के पास हैं। कांग्रेस ने दिल्ली वासी वकील कपिल सिब्बल को इस बार यहां से संसद भेजा जबकि भाजपा के मनोहर पार्रिकर पहले ही यहां से राज्यसभा के लिए चुने जा चुके हैं। जब मनमोहन सिंह दस साल तक प्रधानमंत्री रहे, तब कांग्रेस ने उनको असम से राज्यसभा भेजा था। उसके बाद कांग्रेस ने यहां से संजय सिंह का नाम आगे बढ़ाया, जो उत्तर प्रदेश से आने वाले राजनेता हैं। कांग्रेस के एक अन्य दिग्गज पी चिदंबरम, जो तमिलनाडु से आते हैं, को इस बार महाराष्ट्र से पार्टी राज्यसभा भेजा है। भारत का संघीय और गणतांत्रिक चरित्र सुनिश्चित करने के लिए संविधान में राज्यसभा का प्रावधान किया गया था। लेकिन राष्ट्रवाद के नाम पर बाहरियों को थोप कर इस चरित्र को नष्ट किया जा रहा है।  इसका असर कमजोर राज्यों से आने वाले उम्मीदवारों पर पड़ेगा, साथ ही वंचित जातियों, धर्मों और भाषा समूहों से आने वाले उम्मीदवारों पर भी। राजनीतिक दलों के गिरोह में फंसा लोकतंत्र राज्यसभा का चुनाव बताता है कि हमारा लोकतंत्र राजनीतिक दलों के गिरोह में फंस गया है। सांप्रदायिकता की लड़ाई सिर्फ  गरीब हिन्दू-मुसलमान के लिए है। वही इसके खिलाफ लड़ता है और वही मारा जाता है। सियासतदान लडऩे के नाम पर सौदा करता है और मलाई खा लेता है। राजनीति एक धंधा है और इस धंधे में सब व्यापारी हैं। मुनाफा जिसका धर्म है। जिस सदन को राजनीति में उच्च आदर्शों वाला माना गया और उसके गठन की मंशा यही थी कि यह चुन कर आए लोगों के सदन से अलग जन दबाव से ऊपर उठ कर नीतियों पर विचार करेगा, उस सदन का चुनाव आम चुनावों की तरह ही अनैतिक और लूट पाट के किस्सों से भरा हुआ है। ऐसे में राज्य सभा के सांसदों से अधिक की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। हार के लिए मतदान चौंकाने वाली जीत और हार आमतौर पर सीधे चुनावों में देखी जाती है। अप्रत्यक्ष रूप से होने वाले राज्य सभा चुनावों में ऐसा कम होता है और जब होता है तो यह अक्सर आपसी कलह और संदिग्ध किस्म के बाहरी प्रभाव की कहानी कहता है। हालिया राज्य सभा चुनावों के आखिरी दौर में हरियाणा में कांग्रेस और कर्नाटक में जनता दल (सेकुलर) को उनके ही विधायकों ने झटका दे दिया। इन दलों के नेतृत्व ने जो रणनीति बनाई थी वह धरी की धरी रह गई। नेतृत्व के फैसलों से असंतुष्ट विधायकों ने पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार की हार सुनिश्चित कर दी। हरियाणा में चेतावनी के संकेत पहले ही मिल गए थे। लेकिन भाजपा द्वारा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार और मीडिया क्षेत्र के दिग्गज सुभाष चंद्रा को किसी भी कीमत पर हराने को आतुर कांग्रेस हाईकमान ने इनकी उपेक्षा की। वरिष्ठ अधिवक्ता आरके आनंद को जिताने के लिए पार्टी नेतृत्व का इंडियन नेशनल दल से हाथ मिलाना कांग्रेस की हरियाणा इकाई के लिए झटका था। दोनों पार्टियां राज्य में एक-दूसरे की धुर विरोधी रही हैं। कांग्रेस हाईकमान और राज्य इकाई के हित आपस में टकरा रहे थे। हाईकमान इस पर अड़ा था कि राज्य सभा में भाजपा की सीटों में एक की ही सही पर कमी आए। लेकिन पार्टी के विधायक हरियाणा के सियासी रण के समीकरणों को लेकर ज्यादा फिक्रमंद थे। -दिल्ली से रेणु आगाल
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