06-Jul-2016 07:39 AM
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मध्यप्रदेश में ढ़ाई साल बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया है। मंत्रिमंडल का स्वरूप देखकर स्पष्ट नजर आ रहा है कि मिशन 2018 भी पूरी तरह शिव के भरोसे रहेगा। क्योंकि वर्तमान मंत्रिमंडल में कई तरह की विसंगतियां देखने को मिल रही हैं। इन विसंगतियों का अगर कोई तोड़ है तो वह है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। दरअसल सिंहस्थ के मिथक को तोड़कर शिवराज सिंह चौहान ने यह दिखा दिया है कि वह जो चाहेंगे वह कर सकते हैं। इसलिए इस मंत्रिमंडल विस्तार में ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला है जिससे यह कहा जा सके कि
इनके भरोसे मिशन 2018 फतेह की जा
सकती है। यानी भाजपा के केन्द्रीय संगठन और संघ भी शिवराज सिंह चौहान के भरोसे
2018 में लगातार चौथी बार सत्ता का सपना संजोए हुए हैं।
शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल विस्तार में कई तरह की भ्रांतियां देखने को मिली। मंत्रिमंडल विस्तार में जहां एक ओर बुजुर्ग नेताओं को मंत्री पद पर न रखने का संदेश दिया है, तो दूसरी ओर अन्य दलों से आने वालों को मंत्री पद से नवाजा गया है। ज्ञातव्य है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघ चालक केसी सुदर्शन लगातार इस बात की वकालत करते रहे कि राजनीति में सक्रिय रहने की उम्र तय होनी चाहिए। लगता है कि भाजपा अब उसी दिशा में बढ़ चुकी है, और वह 75 वर्ष की आयु के बाद अपने नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी सौंपने को तैयार नहीं है। इसकी शुरुआत मध्यप्रदेश से हो गई, जब दो मंत्रियों बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को सिर्फ इसलिए इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि वे 75 पार के नेता हैं। एक तरफ जहां भाजपा ने वरिष्ठ नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी से निवृत्त किया है तो दूसरी ओर मंत्रिमंडल विस्तार में उन दो विधायकों को राज्यमंत्री बनाया है, जो अरसे तक दूसरे दलों में रहे हैं मगर वर्तमान में भाजपा के विधायक हैं। पूर्व मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह के बेटे हर्ष सिंह और पूर्व मंत्री सत्येंद्र पाठक के बेटे संजय पाठक मंत्री बने हैं। संभवत: राज्य की सियासत में यह पहला मौका होगा, जब कांग्रेस पृष्ठभूमि के परिवार के विधायक भाजपा की सरकार में मंत्री बने हों। मंत्रीमण्डल का विस्तार कर शिवराज ने जो धमाका किया है, उसकी गुंज न सिर्फ प्रदेश की राजनीति में एक नई बहस का मुद्दा बनेगी। बल्कि इस धमक दिल्ली की राजनीति से लेकर भाजपा की सियासत में छत्रपों के वर्चस्व को भी एक नई दिशा देगी।
उम्रदराज मंत्रियों की कैबिनेट से छुट्टी हो या फिर राज्यमंत्रियों की पदोन्नति नहीं करना, संकेत इसके साथ और भी बहुत कुछ छुपे हैं। जिस तरह शिवराज के बढ़ते कद को कम करने के लिए कुछ नेता सक्रिय थे और केन्द्रीय नेतृत्व के दम पर हूंकार भरते थे उनको दरकिनार कर मुख्यमंत्री ने यह संदेश दे दिया है कि यहां किसी की महत्वाकांक्षा के लिए कोई जगह नहीं है। मुख्यमंत्री ने मध्यप्रदेश की राजनीति में एक बड़ा संदेश दे दिया है जिससे युवा और उर्जावान चेहरों को आगे लाना भाजपा की ही नहीं कांग्रेस की भी मजबूरी होगी। तो संघ के भरोसेमंद माने जाने वाले जयभान सिंह पवैया के साथ अर्चना चिटनिस की कैबिनेट में वापसी के भी अपने मायने हैं। जयभान के साथ रूस्तम सिंह जिनका ताल्लुक ग्वालियर-चम्बल की राजनीति से है बिना केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह को भरोसे में लिए शिवराज के लिए संभव नहीं था। आदिवासी नेता ओमप्रकाश धुर्वे को महाकौशल की राजनीति में फग्गन सिंह की काट के तौर पर तोमर की पसंद पर आगे ही लाया गया है। विश्वास सारंग को राज्य मंत्री बनाकर जिस तरह सुरेन्द्र पटवा और दीपक जोशी के बराबर ला खड़ा कर दिया गया है उसका रास्ता गौर के बाहर जाने से बना है लेकिन नेता पुत्रों की इस तिकड़ी से राजधानी के स्थानीय राजनीति में एक नया समीकरण बनना तय है।
संगठन महामंत्री के पद से अरविन्द मेनन की रवानगी के बाद भी संजय पाठक की मंत्रिमण्डल में धमाकेदार वापसी का मतलब साफ है कि शिवराज का वीटो चला और जिसका महत्वपूर्ण संदेश कांग्रेस के लिए है कि अगले चुनाव से पहले जब वो कांग्रेस के वर्तमान विधायकों को भाजपा से जोडऩे की मुहिम चलायेंगे तो उन्हें भरोसा हो जायेगा सरकार बनने पर वो मंत्री बन सकते हैं। विन्ध्य की राजनीति में केदार शुक्ला का पत्ता काटकर क्षत्रिय नेता की इन्ट्री के मायने कांग्रेस से ज्यादा अजय सिंह की घेराबंदी है जिसके लिए पहले संजय पाठक और नारायण त्रिपाठी को भाजपा पहले ही गले लगा हो चुकी है।
राघव जी का विकल्प
भाजपा में पिछले कुछ सालों से यह चर्चा जोरों पर चल रही थी कि पार्टी विदिशा में राघव जी के विकल्प के रूप में किसे देख रही है। मुख्यमंत्री ने सूर्यप्रकाश मीणा को राज्यमंत्री बनाकर न केवल उन्हें उनकी वफादारी का ईनाम दिया है बल्कि विदिशा सांसद और केन्द्रीय विदेश मंत्री सुषमा की पसंद का ध्यान रख राघवजी का तोड़ निकाल लिया है। ज्ञातव्य है कि विदिशा भाजपा का गढ़ रहा है। लेकिन पिछले कुछ सालों से यहां भाजपा का कोई दमदार चेहरा नजर नहीं आ रहा था। अब मीणा के रूप में एक दमदार चेहरा सामने आ गया है। यही नहीं पार्टी के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर की मंत्री से विदाई के बाद यादवी वोट का संतुलन बनाने के लिए मुख्यमंत्री ने बुंदेलखण्ड से ललिता यादव की ताजपोशी की है। साथ ही क्षेत्र की राजनीति में एक और महिला नेत्री का उदय कर उन्होंने बमुश्किल कुर्र्सी बचाने में सफल हुईं कुसुम महेदेले का भी विकल्प ढूंढ लिया है। इस तरह कई दिग्गजों के मंसूबों पर पानी फिर गया तो क्षेत्रीय और जातीय संतुलन पर जरूर सवाल खड़े होंगे। आरक्षण में पदोन्नति के मुद्दे पर दलित समाज के नये पैरोकार बनकर सामने आये शिवराज ने इस समाज का वर्चस्व और मंत्रिमण्डल में नहीं बढ़ाया जिसके निहितार्थ निकाले जाना लाजमी है।
दिग्गजों को साधने की कोशिश
मुख्यमंत्री ने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से लेकर सुषमा स्वराज को भरोसे में लिया तो इस बार अप्रत्याशित तौर पर प्रदेश प्रभारी विनय सहस्रबुद्धे ने संतुलन और सामंजस्य बनाकर संघ की लाइन को सुहास भगत के साथ मिलकर आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभायी जिनके दबाव के चलते अगले चुनाव नहीं लडऩे वाले बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को जाना पड़ा। मध्यप्रदेश के दिल्ली में सत्ता और संगठन की राजनीति से जुड़े जिस नेता की खूब चली वो और कोई नहीं नरेन्द्र तोमर हैं जो शिवराज सिंह चौहान, नन्द कुमार सिंह चौहान, विनय सहस्रबुद्धे, सुहास भगत पांचवें इकलोते नेता थे। मालवा खासतौर से इन्दौर को इस विस्तार जगह नहीं मिलने का मतलब साफ है कि कैलाश विजयवर्गीय की कुर्सी पर उनकी पंसद यानि रमेश मेंदौला नहीं तो फिर और कोई नहीं। सुदर्शन गुप्ता का मंत्रिमण्डल में शामिल नहीं किया जाना ताई और भाई की आपसी रस्साकशी का फायदा चौहान ने खूब उठाया। इंदौर जैसे बड़े शहर से इस मंत्रिमंडल में एक भी मंत्री का नहीं होना राजनीतिक गलियारों में आश्चर्य जनक माना जा रहा है।
इसके बावजूद इस मंत्रिमंडल विस्तार ने फिलहाल उन सियासी अटकलों पर विराम लगा दिया है जो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बारे में चल रही थी। इस फेरबदल के माध्यम से शिवराज सिंह ने अपनी ताकत का अहसास भी कराया है क्योंकि उन्होंने वह सब कर लिया जो वे करना चाहते थे। मंत्रिमंडल में सबसे बड़ा हैरानी भरा नाम सूर्य प्रकाश मीणा का रहा। वे मुख्यमंत्री के करीबी माने जाते हैं। ऐसा लगता है कि अब पार्टी 2018 का विधानसभा चुनाव भी चौहान के ही नेतृत्व में लड़ेगी। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के भीतर बढ़ रहे इस असंतोष को रोकना होगा। दिल्ली से आए नामों और संघ व संगठन की पसंद और नापसंद को लेकर सूची अंतिम समय तक उलझी रही, यह भी किसी से छिपा नहीं है।
दरअसल, सत्ता सुंदरी का वरण कैसे किया जाता है, इसको मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भलीभांति जानते हैं। इसीलिए जब भी चुनावी चौसर बिछानी होती है आलाकमान भी उन्हें फ्री हैंड दे देते हैं। इसका परिणाम पिछले चुनाव में देखने को मिला है। यानि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कांग्रेस मुक्त भारत की परिकल्पना को अगर कोई साकार कर रहा है तो वह हैं शिवराज सिंह चौहान। उन्होंने इसी के सापेक्ष में अपने मंत्रिमंडल में विस्तार किया है। शिवराज सरकार के वर्तमान मंत्रिमंडल को देखकर ऐसा साफ दिख रहा है कि यह मिशन 2018 फतह की तैयारी है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि जिस शिवराज के सिंहस्थ के बाद दिल्ली जाने की रोज कयास लगाये जाते थे यदि उन अटकलों पर विराम लग गया है तो फिर संदेश साफ है कि मोदी ने क्षत्रपों को छेडऩे का दुस्साहस नहीं किया जिसके पीछे उनकी अपनी रणनीति हो सकती है लेकिन चौहान ने एक नया कीर्तिमान रचकर न सिर्फ मध्यप्रदेश के अबतक के सभी मुख्यमंत्रियों को पीछे छोड़ दिया है बल्कि अटल, आडवाणी युग से बाहर निकलकर मोदी और शाह के युग में प्रवेश कर भाजपा की अन्दरूनी राजनीति में अपनी ताकत और रसूख का लोहा एक बार फिर मनवाया है।
इनके सपने नहीं हुए पूरे
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे वीरेंद्र सकलेचा के पुत्र और नीमच से तीसरी बार विधायक ओमप्रकाश सकलेचा और भाजपा के सात बार से अधिक सांसद रहे स्व. लक्ष्मीनारायण पांडे के पुत्र और जावरा से तीसरी बार विधायक राजेंद्र पांडे भी खुद को मंत्री न बनाने को लेकर नाराज बताए जा रहे हैं। इनकी नाराजग़ी इस बात से भी है कि जब पटवा, जोशी और सारंग के पुत्रों को मंत्रिमंडल में जगह मिल सकती है तो इन्हें क्यों नहीं। दिग्गज आदिवासी नेता रहे दिलीप सिंह भूरिया की पुत्री और चौथी बार की विधायक निर्मला भूरिया को भी मंत्री बनने की आस थी।
विस्तार में अपना नाम चलने और अंतिम समय तक फाइनल न हो पाने से विंध्य के केदारनाथ शुक्ल भी नाराज बताए जा रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी संगठन ने उनके नाम पर विचार तो किया पर वे फाइनल सूची में जगह नहीं बना पाए। सतना के वरिष्ठ विधायक शंकरलाल तिवारी की उम्मीद भी टूटी। इसी प्रकार मनासा से पांचवी बार के विधायक और दो बार कैबिनेट मंत्री रह चुके कैलाश चावला मंत्रिमंडल विस्तार से नाखुश हैं। अनुशासन से यह नेता अभी खुलकर बोलने से परहेज कर रहे हैं। एक तरफ दो उम्र दराज मंत्रियों से इस्तीफा ले लिया गया, वहीं पन्ना विधायक व मंत्री कुसुम महदेले केवल इसलिए बच गई, क्योंकि उन्हें उमा भारती का विरोधी माना जाता है। इसके अलावा वे लोधी समाज का प्रतिनिधित्व भी करती है।
चिटनीस और धुर्वे क्यों?
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में अर्चना चिटनीस और ओमप्रकाश धुर्वे के नाम शामिल होने से चर्चा जोरों पर है कि आखिर मुख्यमंत्री ने इन्हें मंत्रिमंडल में क्यों शामिल किया। दरअसल दोनों नेताओं के खिलाफ लोकायुक्त में शिकायत दर्ज है। दरअसल धुर्वे पहले कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं और उनकी छवि तेज तर्रार मंत्रियों की थी। महाकौशल में पार्टी को एक आदिवासी चेहरे की जरूरत थी, जो क्षेत्र और उस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर सके। संगठन की पसंद के चलते उन्हें फिर मंत्रिमंडल में लिया गया।
वहीं पूर्व मंत्री चिटनीस को केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह की सिफारिश पर मंत्रिमंडल में लिया गया। वह प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की विरोधी मानी जाती है, इसी वजह से पिछली बार मंत्री बनने से रह गई थी। दो पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष के दबाव और संघ की सहमति के कारण इस बार चौहान बाधा नहीं बन पाए।
शिवराज मंत्रिमंडल में ढाई साल बाद हुए विस्तार से मध्य भारत और ग्वालियर-चंबल संभाग का दबदबा बढ़ गया। कैबिनेट में सूर्यप्रकाश मीना की एंट्री के बाद मध्यभारत से सर्वाधिक मुख्यमंत्री सहित सात मंत्री हो गए। वहीं रुस्तम सिंह एवं जयभान सिंह पवैया के शामिल होने के बाद ग्वालियर-चंबल के 6 सदस्य हो गए। उधर, ललिता यादव के शामिल होने से तीसरे नंबर पर बुंदेलखंड है जहां से पांच मंत्रियों का प्रतिनिधित्व हो गया। उधर, प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर के हाथ खाली रहे, कैलाश विजयवर्गीय के स्थान की भरपाई भी नहीं हो पाई। मंत्रिमंडल विस्तार के बाद क्षेत्रीय असंतुलन उभरकर सामने आ गया। वहीं इंदौर को स्थान नहीं मिल पाया।
मध्यभारत (7): मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, डॉ. गौरीशंकर शेजवार, उमाशंकर गुप्ता, रामपाल सिंह, सुरेंद्र पटवा, विश्वास सारंग, सूर्यप्रकाश मीना।
ग्वालियर-चंबल (6): यशोधरा राजे सिंधिया, माया सिंह, डॉ. नरोत्तम मिश्रा, रुस्तम सिंह, जयभान सिंह पवैया, लालसिंह आर्य।
बुंदेलखंड (5) : गोपाल भार्गव, भूपेंद्र सिंह, जयंत मलैया, कुसुम महदेले, ललिता यादव।
मालवा-निमाड़ (5) : पारस जैन, अंतर सिंह आर्य, विजय शाह, अर्चना चिटनिस, दीपक जोशी।
महाकौशल (4) : गौरीशंकर बिसेन, ओमप्रकाश धुर्वे, शरद जैन, संजय पाठक।
विंध्य (3) : राजेंद्र शुक्ल, ज्ञान सिंह, हर्ष सिंह।
न ताई जीती न भाई जीत पाए
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का इंदौर से विशेष लगाव रहा है। वैसे भी यह शहर पूरे प्रदेश का प्रतिनिधित्व करता है। इसी शहर से प्रदेश की आर्थिक मंशाएं पूरी होती हैं। साथ ही विकास के सारे सौपान इसी शहर में साकार हो सकते हैं। इन्हीं कारणों से मुख्यमंत्री ने इंदौर शहर को अपने सपनों का शहर बनाया और वे नहीं चाहते कि इस शहर में कोई भी राजनीतिक अवरोध उनकी मंशाओं और प्रयासों के आड़े आए। मंत्रिमंडल के प्रारंभिक दौर में केवल कैलाश विजयवर्गीय को मंत्री बनाना उनकी मजबूरी थी, लेकिन विजयवर्गीय के जाने के बाद इंदौर के प्रतिनिधित्व के लिए बढ़ते दबाव के बावजूद वे इससे बचते रहे और उनकी यह मंशा कल तब पूरी हो गई, जब इंदौर के गुटीय विवादों में एक बार फिर इंदौर मंत्रिमंडल के प्रतिनिधित्व से अछूता रह गया।
दरअसल ताई ने सुदर्शन गुप्ता को मंत्री बनाने के लिए दबाव बनाया था। इंदौर की सांसद और वर्तमान सरकार में लोकसभा अध्यक्ष के सर्वोच्च पद पर आसीन सुमित्रा महाजन की मंशा को ठुकराना मुख्यमंत्री के लिए मुश्किल था। दूसरी ओर से भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय विधायक रमेश मेंदोला के लिए दबाव बना रहे थे। दोनों के राजनीतिक युद्ध में जमकर संगठन का उपयोग हुआ। सुमित्रा महाजन जहां सुदर्शन गुप्ता के इकलौते नाम पर अड़ी थीं, वहीं कैलाश विजयवर्गीय ने तीन प्रस्ताव दे डाले। उनका कहना था कि या तो सुदर्शन गुप्ता के साथ रमेश मेंदोला को मंत्री बनाया जाए और यदि मेंदोला को मंत्री बनाने में असुविधा महसूस हो रही हो तो इंदौर से किसी भी विधायक को मंत्री बना दिया जाए। वे महेन्द्र हार्डिया, उषा ठाकुर से लेकर मनोज पटेल तक के नाम पर सहमत हो गए थे, लेकिन ताई अड़ी रहीं कि सुदर्शन गुप्ता की ही ताजपोशी की जाए। इस पर तीसरा विकल्प विजयवर्गीय ने दिया कि मंत्रिमंडल के इस विस्तार में यदि मेंदोला या उनकी जगह कोई और मंत्री नहीं बनता है तो फिर किसी को भी प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाए।
भाजपा में नई संस्कृतिÓ की शुरुआत
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार के मंत्रिमंडल का विस्तार नई संस्कृति की शुरुआत करने वाला रहा। मुख्यमंत्री ने बुजुर्ग नेताओं को मंत्री पद पर न रखने का संदेश दिया है। साथ ही यह भी संदेश दे दिया है कि पार्टी में 75 वर्ष की आयु के बाद के नेताओं को मंत्री पद नहीं दिया जाएगा। हालांकि कुसुम मेहदेले अपवाद के रूप में सामने आई हैं। हालांकि बाबूलाल गौर और सरताज सिंह ने यह कहकर पद न छोडऩे को कहा था कि वे किसी से कम नहीं हैं। लेकिन पार्टी नेतृत्व ने साफ तौर पर कहा कि पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर एक नीति बनाई है, जिसके मुताबिक 75 वर्ष की आयु से अधिक के लोगों को बड़ी जिम्मेदारी नहीं दी जाएगी। दोनों मंत्रियों के इस्तीफे पर मुख्यमंत्री शिवराज ने कहा है कि उन दोनों ने अपनी जिम्मेदारियों को बेहतर तरीके से निभाया और पार्टी नेतृत्व के निर्देश पर पद से इस्तीफा दे दिया है, जो उन तक पहुंच गया है। हालांकि कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव का मानना है कि भाजपा में भी अब कोई सैद्धांतिक बात नहीं रही, वह राजनीतिक अवसर भुनाने में भरोसा करने लगी है।
उधर राजनीति के जानकार कहते हैं कि
भले ही लाख दलील दी जाए कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के इस मंत्रिमंडल विस्तार में केंद्रीय नेतृत्व का दखल रहा है लेकिन हकीकत इससे बिलकुल अलग है। जिस तरह से आखिर तक नामों में फेरबदल होता रहा, उसमें न अमित शाह को कोई रुचि थी और न ही किसी और को। यही वजह थी कि शिवराज के लिए लोगों को अंदर-बाहर करना ज्यादा मुश्किल साबित हो रहा था। ज्यादा दावेदार और ज्यादा लोगों को भरोसा देना ही सबसे बड़ी मुश्किल थी कि आखिर में किस भरोसे को पूरा करें और किसे अधूरा छोड़कर आगे बढ़ जाएं। इस बदलाव में न दिल्ली के बताए नाम जोड़े गए और न ही दिल्ली ने कोई नाम काटने की राजनीति की। जो कुछ हुआ, बस मुख्यमंत्री निवास की मर्जी से हुआ। नामों के जोड़-तोड़ की सियासत में प्रदेश के नेताओं ने रुचि जरूर दिखाई, लेकिन वह भी शिवराज की राजनीति के आगे पस्त हो गए। पूरे घटनाक्रम ने साफ कर दिया कि प्रदेश की सियासत में फिलहाल वही होगा जो शिवराज चाहेंगे।