16-Jun-2016 08:55 AM
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भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद महात्मा गांधी ने कहा था कि देश को अब कांग्रेस की आवश्यकता नहीं है। 1947 में आजादी मिलने के बाद महात्मा गांधी ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने कहा था, कांग्रेस पार्टी का गठन आजादी के आंदोलन के लिए एक संगठन के रूप में हुआ था, आजादी मिल चुकी है इसलिए अब कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर देना चाहिए। लेकिन पं. जवाहर लाल नेहरू और उनके सहयोगियों ने कांग्रेस समाप्त करने की बजाय उसे राजनीतिक दल का दर्जा दिला दिया। लेकिन अभी हाल ही में आए पांच राज्यों के चुनाव परिणामों पर नजर डाली जाए तो यही परिलक्षित होता दिखाई देता है कि देश की जनता ने महात्मा गांधी की बात पर अमल करना प्रारंभ कर दिया है। ऐसे में कांग्रेस में बौखलाहट और भगदड़ मच गई है। वहीं पार्टी में सर्जरी की बात उठने लगी। लेकिन जानकार बताते हैं कि कांग्रेस को नेहरू गांधी परिवार की बचौती का जो रोग लगा है उससे कांग्रेस में कॉस्मेटिक सर्जरी से काम नहीं चलने वाला। जिस तरह देश में नरेंद्र मोदी और राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों के क्षत्रपों का दायरा बढ़ रहा है ऐसे में कांग्रेस को जिंदा रखने के लिए अब कार्डियेक सर्जरी की जरूरत है। यानी पार्टी को नेहरू-गांधी परिवार के चंगूल से मुक्त कराना होगा? लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा...?
वर्तमान में पूरा देश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के सपने को साकार करने के लिए अपने कदम बढ़ाता हुआ दिखाई दे रहा है। 2014 के लोकसभा में कांग्रेस की जो दुर्गति हुई, उसे कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय माना गया। देश के कई राज्यों कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी, ऐसे में कांग्रेस की जो भूमिका होना चाहिए थी, कांग्रेस ने उसकी अनदेखी की और अपना लक्ष्य केवल नरेन्द्र मोदी तक ही केन्द्रित करके रखा। इससे नरेन्द्र मोदी को मुफ्त में ही जबरदस्त प्रचार मिल गया और कांग्रेस लगातार सिमटती चली गई।
लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की एक सबसे बड़ी गलती यह भी कही जा सकती है कि उसे अपनी दशा सुधारने के लिए अपने कार्यक्रमों में परिवर्तन करना चाहिए था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। कांग्रेस केवल और केवल एक ही लक्ष्य बनाकर ही चलती रही कि कैसे भी हो राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता बनाया जाए। आज देश राहुल गांधी के बचकाने व्यवहार को देखकर उससे किनारा करने लगा है, लेकिन कांग्रेस फिर भी राहुल को थोपने वाले अंदाज के लिए ही राजनीति कर रही है। जिस प्रकार से कांग्रेस राज्यों से बेदखल होती जा रही है उससे तो यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस अब डूब रही है। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी विसंगति यही कही जाएगी कि उसके राष्ट्रीय नेता केवल राजा बनकर रह गए हैं। जमीनी राजनीति से बहुत दूर हो चुके कांग्रेस के नेता जनता से जुडऩा ही नहीं चाहते। अगर यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब पूरा भारत कांग्रेस मुक्त हो जाएगा।
कांग्रेस (आई)! मौजूदा कांग्रेस के नाम में इंदिरा का नाम जुडऩे की कहानी पार्टी में लोकतंत्र के खात्मे से शुरू होती है। औपनिवेशिक काल में स्थापित इस पार्टी पर आजादी के बाद से नेहरू-गांधी परिवार का ही वर्चस्व रहा। और परिवार के खिलाफ उठी हर आवाज बेदखल की जाती रही। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दो फाड़ किया और नेहरू की बेटी के नाम से ही कांग्रेस की पहचान बनी। आजादी के बाद लोकसभा में अपने न्यूनतम आंकड़े (44) पर पहुंची कांग्रेस आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। लेकिन आज भी इसका अस्तित्व परिवार के दायरे से बाहर नहीं जा पा रहा, जिसे यह पार्टी लोकतंत्र का नाम देती है। पार्टी में लोकतंत्र का मतलब परिवार के हर फरमान पर कुबूल हैÓ।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का श्रेय एओ ह्यूम को जाता है। एक खास वर्ग यह आरोप लगाता रहा है कि कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजी राज्य के सेफ्टी वॉल्व के रूप में की गई थी। और आज की तस्वीर यह है कि पार्टी एक परिवार के लिए सेफ्टी वॉल्वÓ बन गई है। देश और संसद में लोकतंत्रÓ को बचाने के लिए संघर्ष का बिगुल बजाने वाली कांग्रेस पार्टी को शायद यह मशहूर मुहावरा याद नहीं रह गया है कि दयानतदारी की शुरुआत घर से होती हैÓ। अगर ऐसा होता तो पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी पहले अपने संगठन में लोकतंत्र को बहाल करतीं।
दरअसल, गांधी-नेहरू परिवार का विवादों के साथ चोली-दामन का साथ रहा है, लेकिन परिवार में पार्टी को एकजुट रखने की ऐसी जबर्दस्त ताकत है कि उसका वर्चस्व हमेशा बना रहता है और बड़े से बड़े नेता भी गांधी परिवार के आगे कोर्निश बजाते दिखाई देते हैं। जिन्हें कुबूल नहीं, उनके लिए तो बाहर का रास्ता है ही। ऐसे कई हैं जिन्होंने बाहर का रास्ता पकड़ कर अपना भविष्य बना लिया या फिर समय की गर्त में समा गए।
जंग-ए-आजादी से परिवार बचाने की जंग तक
कांग्रेस का इतिहास भारत की जंग-ए-आजादी के साथ जुड़ा हुआ है। एओ ह्यूम की अगुआई में इसका गठन 1885 में हुआ था। व्योमेश चंद्र बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष थे। स्थापना के बाद पार्टी औपनिवेशिक भारत की प्रांतीय विधायिकाओं का हिस्सा भी बनी। 1905 में बंग विभाजन के बाद पार्टी का अंग्रेजों से मोहभंग हुआ और उनके अत्याचारों की पुरजोर मुखालफत शुरू हुई। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गांधी इसमें शामिल हुए। लाहौर सम्मेलन में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस मजबूती से उभरी और जवाहरलाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने। लंबी गुलामी से आजाद भारत जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अपने पांवों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था। धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक समाजवाद और गुटनिरपेक्षता का नेहरुवियन मॉडल एक नौजवान देश के लिए माकूल समझा गया। नेहरू के दम पर कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के चुनावों में बहुमत हासिल किया था। साल 1964 में नेहरू का निधन हुआ।
पिता की सत्ता पुत्री के हाथ
नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। भले ही प्रधानमंत्री के नाते लालबहादुर शास्त्री ने अपने सीमित कार्यकाल के बावजूद प्रतिष्ठा ज्यादा अर्जित की। लेकिन 1966 में उनकी संदेहास्पद हालात में मौत के बाद इंदिरा गांधी को कांग्रेस और देश की कमान सौंपी गई। हालांकि उस समय मोरारजी देसाई भी प्रबल दावेदार थे, लेकिन उनके आगे इंदिरा को तवज्जो दी गई। 1967 में विपक्ष की जोरदार टक्कर मिली जिसकी अगुआई राममनोहर लोहिया कर रहे थे। देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। कांग्रेस में दो फाड़ हुए और के कामराज की अगुआई में कांग्रेस (ओ) नाम से नई पार्टी बनी जिसका बाद में जनता पार्टी में विलय हो गया। हालांकि 1971 में इंदिरा ने जोरदार वापसी की, लेकिन उनके कामकाज के तरीकों पर विपक्ष हमलावर होता गया। लोकसभा में इंदिरा की जीत को अदालत ने गैरकानूनी घोषित कर दिया, और विपक्ष का उग्र आंदोलन शुरू हो गया। 1974 में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। इंदिरा ने 1975 में आपातकाल घोषित कर दिया। इस गलती का खमियाजा इंदिरा ने 1977 के चुनावों में भुगता और सत्ता से बेदखल हुर्इं। 1980 में उन्होंने वापसी की लेकिन 1984 में उनकी हत्या कर दी गई। 22 मार्च 1977 को चुनावों में हार के बाद इंदिरा गांधी ने कहा था कि मैं और मेरे साथी पूरी विनम्रता से हार स्वीकार करते हैं। कभी मुझे लगता था कि नेतृत्व यानी ताकत है। आज मुझे लगता है कि जनता को साथ लेकर चलना ही नेतृत्व कहलाता है।
इंदिरा गांधी के नाम पर हमें परमाणु विस्फोट से लेकर बैंक राष्ट्रीयकरण जैसी कई उपलब्धियां ख्याल आती हैं। जो सबसे बड़ी घटनाएँ उन उपलब्धियों पर हावी साबित हुईं, वे थीं युद्ध और आपातकाल। वे कांग्रेस की सर्वशक्तिमान नेता बनीं, जैसा उन्होंने चाहा, किया। कांग्रेस में आला कमान संस्कृति इंदिरा गांधी की देन है। इस संस्कृति ने कांग्रेस को बांधे भी रखा, उसी ने पार्टी को तानाशाही की ओर धकेला। अगर पार्टी के लोकतंत्र को इंदिरा गांधी अपनी जेब में न रखतीं तो न आपातकाल होता, न पंजाब समस्या का सैनिक उपचार, न उनकी त्रासद हत्या।
मां के बाद बेटे राजीव का राज
इंदिरा की हत्या के बाद बेटे राजीव गांधी को पार्टी की कमान सौंपी गई और 84 के चुनावों में कांग्रेस शानदार तरीके से जीती भी। 1991 में दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। राजीव की मौत सोनिया गांधी के लिए बड़ा झटका था। इसके पहले वे राजनीति में सक्रिय भी नहीं थीं और बच्चे राहुल और प्रियंका राजनीतिक विरासत संभालने लायक बड़े नहीं हुए थे। इसलिए पार्टी की कमान पीवी नरसिंह राव को सौंपी गई और वे प्रधानमंत्री भी बने। ऐसा लगा कांग्रेस में एक नए इतिहास की शुरूआत हो गई है। नरसिम्हा ने परिवारवाद को पीठ दिखाई और अपना राज किया। सत्ता का सुख चौदह बरस तक नेहरू खानदान से रूठा रहा।
सोनिया गांधी को सत्ता मिल सकती थी, लेकिन बड़ी चतुराई से वे सत्ता हांकने वाली बन गईं। वफादार मनमोहन सिंह को जिम्मेदारी सौंपी गई, जिन्होंने कभी नरसिम्हा राव की मानिंद दगा नहीं किया। इस बीच, सोनिया गांधी ने बेटे राहुल गांधी को नेतृत्व संभालने के लिए तैयार कर लिया। निस्संदेह अब भी इस परिवार का दबदबा कांग्रेस में कायम है। यह बात दुर्भाग्य की भी हो सकती है और कांग्रेस के लिए सौभाग्य की भी, कि वही ताकत उसे बाँध और हाँक सकती है, भले वह उतनी लोकतांत्रिक न जान पड़ती हो। फिलहाल, पूरी पार्टी परिवार की पार्टी होकर रह गई है। राहुल गांधी के साथ उनकी बहन भी पार्टी गतिविधियों में रुचि लेती दिखाई देती हैं।
सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्षा के कार्यकाल को 15 वर्ष पूरे हो गए। इन पंद्रह वर्षों के सोनिया के कार्यकाल और कांग्रेस की राजनीति पर एक मशहूर शेर याद आता है- कौन याद रखता है, बुरे वक्त के साथियों को, रोशनी आते ही चिराग बुझाए जाते हैं। सोनिया गांधी का जब बुरा वक्त चल रहा था तब उनके जो भी साथी थे आज वे कहां हैं? सोनिया के पॉवर सर्कल में अधिकांश वही महत्वपूर्ण हैं जो उनके बुरे वक्त में 10, जनपथ के साए से भी कटने में अपनी भलाई मानते थे। जून 1991 में जब सोनिया गांधी ने संकेत दे दिया कि वह कांग्रेस पार्टी की बजाय अपने बच्चों को वक्त देना पसंद करेंगी और एक बार जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली तो ज्यादा समय नहीं लगा जब जनपथ के करीब जाने वालों के पर कतरे जाने लगे। तब सोनिया गांधी के नाम का झंडा उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज, अर्जुन सिंह, कैप्टन सतीश शर्मा, माखनलाल फोतेदार जैसे कुछ चुनिंदा नेताओं ने उठा रखा था। आज विंसेंट जॉर्ज कांग्रेस के सत्ता समीकरण में हाशिए पर हैं। माखनलाल फोतेदार लुप्तप्राय हो चुके हैं। 2009 में मंत्रिमंडल में जगह बना पाने में नाकामयाब रहने के बाद जब अर्जुन सिंह को पता चला कि कांग्रेस की कार्यसमिति की सदस्यता से भी उन्हें मरहूम कर दिया गया है तो उस झटके ने उनकी जान ही ले ली। कैप्टेन सतीश शर्मा 1991 से 2004 तक सोनिया गांधी के परिवार का खर्च वहन किया करते थे। जब 2004 में कांग्रेस सत्ता में आई तो कैप्टेन शर्मा को उम्मीद थी कि बुरे वक्त में परिवार की सेवा के बदले उन्हें सरकार में महत्वपूर्ण दायित्व मिलेगा। प्रियंका गांधी की लामबंदी से कैप्टेन शर्मा को राज्यसभा की सदस्यता जरूर मिली पर 9 साल में वह डॉ. मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में जगह बनाने में कामयाब नहीं हो पाए। जो शेर सोनिया गांधी के दरबार पर लागू है कमोबेश कांग्रेसी सत्ता की राजनीति का वह चरित्र बन चुका है।
प्रधान कुर्सी के पीछे सोनिया
कांग्रेस के पास नेहरू-गांधी परिवार के आकर्षण के सिवा कुछ भी नहीं बचा था। 2004 में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की पूरी तैयारी हो गई। लेकिन विदेशी नाम पर चले विरोध के कारण उन्होंने इस पद का त्यागÓ करना ही बेहतर समझा। 2004 के चुनावों में कांग्रेस को महज 145 सीटें मिली थीं। इसलिए पार्टी ने सहयोगी दलों के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) बनाया और डॉक्टर मनमोहन सिंह इसके पहले प्रधानमंत्री बने। मनमोहन सिंह दो बार प्रधानमंत्री रहे लेकिन उन पर कठपुतली प्रधानमंत्री का विपक्ष का हल्ला बोल लगातार रहा। आरोप लगते रहे कि वे गांधी परिवार के रिमोट से चलते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता सोनिया गांधी के हाथ में ही है। हालांकि उसके बाद 2014 के चुनावों में नेहरू-गांधी का नाम कांग्रेस का सहारा नहीं बन सका। इन चुनावों में महज 44 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस लोकसभा में मजबूत विपक्ष का दर्जा मांगने लायक भी नहीं रही।
किसी के नहीं कांग्रेसी
नरसिंहराव के कार्यकाल में कांग्रेस मुख्यालय 24, अकबर रोड का संचालन मुख्य रूप से तीन महासचिव किया करते थे जनार्दन पुजारी, देवेंद्र द्विवेदी और बीपी मौर्या। राव को पार्टी से निकालने के कुछ दिन बाद सीताराम केसरी चाचाÓ ने तीनों को पार्टी और पद से निकाल दिया। तब तारिक अनवर और अहमद पटेल चाचाÓ के सबसे प्यारे भतीजे हुआ करते थे। तारिक अनवर को कांग्रेस अध्यक्ष का राजनीतिक सलाहकार तो अहमद पटेल को कोषाध्यक्ष बनाया गया था। चाचाÓ महत्वपूर्ण फैसलों के लिए तब प्रणव मुखर्जी और एके एंटनी से जरूर परामर्श करते थे। गुलाम नबी आजाद, अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया, कमलनाथ जैसे कद्दावरों को नरसिंहराव के कार्यकाल के आखिरी दिनों में या तो हाशिए पर फेंक दिया गया था या पार्टी से निकाल दिया गया था। चाचा इन सबको पार्टी में वापस ले आए थे। इन सबकी राजनीतिक अंधियारे वाले काल में चाचा केसरी ही चिराग साबित हुए थे। पर जैसे ही सोनिया गांधी ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के माध्यम से यह संदेश भेजा कि वह कांग्रेस की सक्रिय राजनीति करना चाहती हैं तो रोशनी देखते ही चाचाÓ के चिराग को बुझाने के लिए उनके भतीजे ही सक्रिय हो गए और नवनिर्वाचित सांसदों में सोनिया के लिए लामबंदी करने लगे। 5 मार्च 1998 को दबाव बना कर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में मांग उठी कि सोनिया गांधी को अब कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व स्वीकारना चाहिए और उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का नया नेता चुनना चाहिए। जैसे ही केसरी हटे प्रणव मुखर्जी ने कांग्रेस संविधान में संशोधन का प्रस्ताव पेश कर गैरसांसद सोनिया गांधी को संसदीय दल का नेता बनवा दिया।
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले...
कांग्रेस में देखा गया है कि जो जितना बड़ा नेता बनने की कोशिश करता है उसी उतनी जल्दी ही हासिए पर पहुंचा दिया जाता है। इसका तार्जा उदाहरण कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता, राज्यसभा और लोकसभा के पूर्व सांसद और छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री रहे अजीत जोगी का है। छत्तीसगढ में आलाकमान की मंशा के विपरीत उन्होंने वहां का शाह बनने की कोशिश की तो उन्हें कोने में उठा फेका गया। 10 जनपथ की परिक्रमा के बाद भी जोगी को तव्वजो नहीं मिली तो उन्होंने ख़ुद को कांग्रेस से मुक्त करने की घोषणा कर दी और वह राज्य में नई पार्टी का गठन करने जा रहे हैं। अपनी नई पार्टी के नाम आदि की घोषणा वह बाद में करेंगे। अभी उन्होंने अपने समर्थकों को कई विकल्प देकर एक का चयन करने को कहा है, लेकिन उन्होंने जो अभी किया, उसके लिए उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं थे। या तो वह बहुत बेआबरू होकर भी उसी कूचे में बने रहते या फिर निकल जाते। उन्होंने गालिब की तरह निकल लेना ठीक समझा। अब उनके अरमानों की परीक्षा है। कांग्रेस से किनारा करने से पहले उन्होंने ठीक तरह से भांप लिया था कि जिस आलाकमान की शह पर वह अब तक अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देते आए हैं, उस शह का कोटा अब खत्म हो चला है। इस शह के दम पर ही उन्होंने कभी दिग्विजय सिंह से खुली लड़ाई लड़ी तो कभी छत्तीसगढ़ के लिए चुनाव प्रभारी रहे प्रियरंजन दासमुंशी को बुरी तरह लताड़ा और कभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सामने भी गुस्ताखियां कीं। एआईसीसी के प्रभारी महासचिवों को तो उन्होंने हमेशा अपने से कमतर माना। मोतीलाल वोरा जैसा एकाध अपवाद छोड़ दें तो छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं की तो वह अपने सामने कोई बिसात ही नहीं मानते थे।
अबकी बारी, राहुल गांधी
सोनिया ने विरासत बेटे राहुल गांधी को सौंपी है जो इस समय पार्टी के उपाध्यक्ष हैं। सोनिया के बाद कांग्रेस की कमान राहुल को देने की पूरी तैयारी है। अपने नेतृत्व पर कई तरह के सवाल उठने के बाद भी अपनी पारिवारिक विरासत की वजह से राहुल मैदान में टिके हैं। सोनिया गांधी की पुत्री प्रियंका सक्रिय राजनीति से दूर हैं। लेकिन उनके पति राबर्ट वाड्रा जो देश के सबसे ताकतवर परिवार के साथ रिश्ता बनते ही अपनी कारोबारी ताकत को कई गुणा बढ़ा चुके हैं अब राजनीति में भी कदमताल करने के इच्छुक दिख रहे हैं। फिलहाल यह परिवार राजनीतिक कुशलता से लेकर भ्रष्टाचार के सवाल पर खुद को बचाने की जंग लड़ रहा है। कांग्र्रेस की समस्या सिर्फ यह नहीं है कि जिस पार्टी का कभी देशभर में एकछत्र राज हुआ करता था, उसका शासन सिमटकर एक छोटे से कोने तक सीमित रह गया है। उसकी समस्या केंद्र और राज्यों में भी, सिर्फ चुनावी हार-जीत से बड़ी है। वास्तव में विधानसभाई चुनाव के हालिया चक्र ने साफ तौर पर दिखाया है कि कांग्र्रेस-मुक्त भारतÓ की ओर बढऩे के संघ-भाजपा के नारे की सारी अतिरंजना के बावजूद, देश की सबसे पुरानी पार्टी पिछले आम चुनाव में लगे जबर्दस्त धक्के से उबरना तो दूर रहा, इस लुढ़कन को रोकने तक में असमर्थ नजर आ रही है। स्वाभाविक रूप से चुनाव के ताजातरीन चक्र के बाद एक बार फिर, कांग्रेस की दशा-दिशा की चर्चाओं ने जोर पकड़ा है। कांग्रेस के अति-मुखर महासचिव, दिग्विजय सिंह ने पार्टी में बड़ी सर्जरीÓ की नाटकीय मांग तक कर डाली, हालांकि बाद में उन्हें यह स्पष्टï करना पड़ा कि उनकी मुराद कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में काट-छांट से नहीं थी। लेकिन देश की राजनीति को जानने वाले कहते हैं कि दिग्विजय सिंह चाणक्य की बुद्धि रखते हैं और उन्होंने कांग्रेस आलाकमान को संकेत दे दिया है कि कांग्रेस को पटरी पर लाने के लिए सर्जरी जरूरी है। लेकिन कांग्रेस को इस दुर्दिन से उबारने के लिए कॉस्मेटिक नहीं, कार्डियेक सर्जरी की जरूरत है।