04-Jun-2016 08:56 AM
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सबका साथ, सबका विकासÓ, अच्छे दिन आने वाले हैंÓ जैसे आकर्षक नारों, यूपीए सरकार की अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार व नकारात्मकता से त्रस्त मतदाताओं और मीडिया व संचार माध्यमों के प्रभावी प्रयोग ने लंबे अंतराल बाद एक दल की स्पष्ट बहुमत की सरकार का मार्ग प्रशस्त किया था और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ था। इस सरकार से लोगों को काफी उम्मीदें हैं। लेकिन अभी तक सरकार उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी है। यानी अच्छे दिन के लिए हमें अभी और इंतजार करना पड़ेगा।
हम जानते हैं कि भारत जैसे विशाल व विविधतापूर्ण देश में किसी सरकार के दो वर्ष कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला सकते हैं पर यह समयावधि उसकी मंशा और दिशा को समझने के लिए पर्याप्त है। मोदी सरकार किसी भी उपलब्धि को अपनी या पहली बार बता कर श्रेय लेने और खामी के लिए साठ वर्षों की सरकारों को दोषी ठहराने की नीति पर चल रही है जबकि किसी भी वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धि के लिए दशकों पूर्व की नीतियां, क्रियान्वयन और सतत अनुसंधान का योगदान होता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के दामों में भारी गिरावट के बावजूद बेलगाम महंगाई, विशेष रूप से प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करने वाली खाद्य वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि, रोजगार विहीनता, किसानों की अनवरत आत्महत्याएं, शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं का लगातार महंगा होना, रुपए की कीमत घटना, सद््भाव को ठेस पहुंचाने वाले बयानवीरों पर अंकुश न लगाना, अपने चुनावी वादों को जुमले निरूपित करना, श्रमिक विरोधी कानून में संशोधन व निर्णय, साहित्यकारों, इतिहास वेत्ताओं, वैज्ञानिकों, विचारकों की अवहेलना व अवमानना जैसे अनेक कारण हैं कि सभी वर्गों का मोहभंग इतनी अल्पावधि में इस सरकार से हो गया है। मन की बातÓ कार्यक्रम हो या विदेशों में बसे भारतीयों के बीच राकस्टार की तरह के आयोजन हों, सब एकतरफा संवाद सिद्ध हुए हैं। पहले की सरकारों को दोष देने में प्रधानमंत्री यह भी भूल जाते हैं कि इसमें तीन कार्यकाल अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व की सरकार के भी हैं और यह स्मरणीय है कि वाजपेयी के कार्यकाल में महंगाई पर प्रभावी नियंत्रण रहा है।
देश में आर्थिक विषमता और बढ़ी है, अडानी की संपत्ति में हुआ इजाफा, प्रधानमंत्री की पीठ पर मुकेश अंबानी के हाथ के फोटोग्राफ, विजय माल्या का बैंकों के 9000 करोड़ रुपए हड़प कर लंदन भाग जाना, बकाया करों और बैंकों के एनपीए की वसूली के लिए ठोस पहल न किया जाना, औद्योगिक व व्यावसायिक घरानों को लगभग छह लाख करोड़ की कर व अन्य छूट बरकरार रखना, बैंक ब्याज दरों में कमी के लिए रिजर्व बैंक पर दबाव बनाना और सामान्यजन पर सेवा कर की दर व कर क्षेत्र का विस्तार कर भारी बोझ डालने के क्या संकेत हैं? सरकार किसकी पक्षधर है? मेक इन इंडिया से लाभ किसे होगा? क्या ये विदेशी कंपनियां मुनाफा कमा कर अपने देश में नहीं ले जाएंगी?
मोदी सरकार के कार्यकाल के तीन वर्ष शेष हैं, उन्हें 2020 और 2022 के बजाय 2019 तक के लक्ष्यों को जनता के सामने रखना चाहिए। योजना आयोग को नीति आयोग बनाने या अन्य संस्थानों-कार्यक्रमों के नाम बदल देने, मिथ को इतिहास व इतिहास को मिथ निरूपित करने से देश व समाज को कुछ हासिल नहीं होगा। स्वच्छ भारत अभियान, नमामि गंगे, मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप, स्टेंड अप के अभी तक के अनुभव कालेधन की वापसी जैसे नारे-जुमले ही दिखाई दे रहे हैं। आम धारणा में सरकार की छवि इवेंट मैनेजरों की बन रही है, समय रहते इस छवि को बदलना जरूरी है। यह प्रसिद्ध उक्ति है कि जिसे ज्यादा मिला होता है, उससे ज्यादा पाने की भी उम्मीद की जाती है। दो साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बाइबिल की इस उक्ति का मतलब समझ में आ रहा होगा, जब उन्हें अपनी सरकार के कामकाज की समीक्षा करने के लिए रोजाना वक्त देना पड़ रहा है और अगले तीन साल के कार्यक्रमों और योजनाओं की रणनीति पर दिमाग खपाना पड़ रहा है।
हम पाते हैं कि मोदी को कुर्सी पर बैठे 700 से ज्यादा दिन हो रहे हैं, लेकिन काम के मामले में उनमें अब तक रत्ती भर थकान नहीं दिखती, भले ही उनके कई सहयोगी पस्त हो चुके हों। रात के भोजन के बाद तक चलने वाली कैबिनेट की थकाने वाली बैठकों के बाद भी वे अपने नौजवान सहयोगियों की अपेक्षा ज्यादा चुस्त दिखते हैं। उनकी सरकार में उनसे ज्यादा यात्राएं देश और विदेश में किसी ने नहीं की हैं। अब भी कुछ हटकर नया करने की उनकी चाहत बरकरार है। पिछली बार की गिनती तक उन्होंने स्वच्छ भारत से लेकर बेटी बचाओ और कुशल भारत से स्टार्ट अप तक कुल 30 नई पहलों का बहुप्रचारित ऐलान किया है। कार्यक्रमों और योजनाओं की गिनती के लिहाज से वे इंदिरा गांधी के प्रसिद्ध 20 सूत्रीय कार्यक्रम और राजीव गांधी के छह प्रौद्योगिकी अभियानों को पीछे छोड़ चुके हैं।
मोदी सरकार को एक बड़े कारोबारी घराने के सीईओ की तरह चलाते हैं, एजेंडा तय करते हैं, जवाबदेही की मांग करते हैं और लालफीताशाही के बीच से अपने रास्ते निकालते हैं। उनके कई मंत्री पहली बार अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं, लिहाजा इस सीमित प्रतिभाबल के दबाव में उन्होंने नौकरशाहों का आश्रय लिया है और उनका पीएमओ फैसले लेने और नतीजों की निगरानी करने में सबसे ताकतवर बनकर उभरा है।
ऐसा चुस्त नियंत्रण केंद्रीकरण के आरोपों को आसानी से राह देता है, लेकिन इसने यह आश्वस्त किया है कि उनकी सरकार में अब तक कोई बड़ा घोटाला सामने नहीं आ सका है। जानकार मानते हैं कि शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार यूपीए सरकार के मुकाबले काफी कम हुआ है। अपने दूसरे साल में उन्होंने अपने मंत्रियों को नतीजे दिखाने को मजबूर किया। हालांकि उनके अधिकांश मंत्री उनके पैमाने पर खरे नहीं उतर पाए हैं।
भाजपा नेताओं के ही अच्छे दिन आए हैं : दिग्विजय
मोदी जी के सिपहसालार देशभर में सरकार के विकास कार्यों का लेखा-जोखा परोस रहे हैं, लेकिन विकास तो कहीं दिख ही नहीं रहा है। फिर यह भ्रम क्यों फैलाया जा रहा है। देश में अच्छे दिन आए हैं, लेकिन केवल भाजपा नेताओं के आम जनता के नहीं। यह सभी को दिख रहा है।
-नवीन रघुवंशी