संवेदना का सूखा
16-Apr-2016 08:16 AM 1234808

इसे नियति कहें या विड़बना समझ में नहीं आ रहा है। क्योंकि सितंबर में ही देश में सूखे की चेतावनी दिए जाने के बाद भी न तो केंद्र और न ही राज्य सरकारों ने इस ओर गंभीरता से ध्यान दिया। इसका परिणाम यह हुआ है कि देश के दस राज्य इस वक्त सूखे का सामना कर रहे है। पीने के पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है। सूखे में फसल की बरबादी ने किसानों की कमर तो तोड़ ही दी है, लेकिन उनके सामने अब जिंदगी बचाने के लिए पीने के पानी का नया संघर्ष खड़ा हो गया है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, बुंदेलखंड, तेलंगाना में हालात बद से बदतर हैं। पानी पर बंदूक का पहरा लगाया गया है। राज्यों ने केंद्र से मदद मांगी है और उन्हें मिली भी, लेकिन हालात इतने संगीन हैं कि पानी के लिए तरस रहे लोगों की बदहाली को देखकर किसी की भी आंखें नम हो जाए।
देश में सूखे से परेशान किसानों को राहत दिलाने के लिए खुद सर्वोच्च न्यायालय आगे आया है। हाल ही में एक मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने केंद्र सरकार से साफ कहा है कि आप सूखे के ऐसे भयंकर हालात में अपनी आंखें मूंदे नहीं रह सकते। अदालत ने सरकार को निर्देश देते हुए कहा, इस संबंध में वह फौरन कदम उठाए। प्रभावित लोगों तक देरी से राहत पहुंचने पर तल्ख टिप्पणी करते हुए अदालत ने कहा कि राहत का मतलब है फौरन राहत, न कि एक-दो साल बाद। अदालत ने सूखे की स्थिति पर चिंता जताते हुए केंद्र सरकार से हलफनामा दाखिल कर मनरेगा संबंधी धनराशि और योजनाओं का ब्योरा पेश करने का भी निर्देश दिया। न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर की अध्यक्षता वाले पीठ का साफ कहना था कि अगर पीडि़त लोगों को समय पर मजदूरी नहीं मिलती, तो कल्याणकारी योजनाओं का कोई मतलब नहीं है। अदालत ने सूखे से निपटने में गंभीरता न दिखाने पर खासतौर पर हरियाणा और गुजरात सरकार की खिंचाई की। अदालत का कहना था कि जब सितंबर में ही मालूम चल गया था कि गुजरात में सूखे के हालात हो सकते हैं, तो सूखा घोषित करने में एक अप्रैल तक का इंतजार क्यों किया गया? अगर अब भी अदालत सख्त रुख अख्तियार न करती, तो सूखाग्रस्त राज्यों के करोड़ों लोगों के सामने आजीविका का संकट था। अदालत के निर्देश के बाद उम्मीद बंधी है कि इन लोगों को सरकार की ओर से जल्द से जल्द राहत मिलेगी।
अदालत ने यह आदेश स्वराज अभियानÓ की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया। इस जनहित याचिका में सूखा प्रभावित राज्यों के लोगों को खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत खाद्यान्न उपलब्ध कराने के लिए केंद्र को निर्देश देने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता ने अपनी अपील में अदालत से अनुरोध किया था कि सूखा प्रभावित राज्यों में राहत व पुनर्वास के अन्य उपाय किए जाने के लिए केंद्र को आदेश दिया जाए। स्वराज अभियान ने अपनी याचिका में केंद्र सरकार पर इल्जाम लगाया था कि सरकार सूखा झेल रहे राज्यों को मनरेगा का पैसा नहीं दे रही है, जिससे इन राज्यों में हालात बिगड़ रहे हैं। पिछले दो साल से कम बारिश के चलते महाराष्ट्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना समेत दस राज्य भयंकर सूखे की चपेट में हैं। कई राज्यों में सूखे से हालात इतने बदतर हो गए हैं कि लोग पीने के पानी तक को तरस गए हैं और अब पलायन करने को मजबूर हैं।
मध्यप्रदेश के छियालीस जिलों में सूखे का भयानक असर है, वहीं छत्तीसगढ़ की एक सौ सत्रह तहसीलें सूखाग्रस्त हैं। छत्तीसगढ़ में तो इस वक्त हालात यह हैं कि यहां के बांधों और जलाशयों में सिर्फ तीस फीसदी पानी बचा है। हालात मध्यप्रदेश में भी ठीक नहीं। अभी अप्रैल महीना शुरू हुआ है और यहां के आधे बांधों में सिर्फ दस फीसदी पानी बचा है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में विभाजित बुंदेलखंड में बासठ लाख से ज्यादा किसान व मजदूर पलायन कर चुके हैं। इस साल बुंदेलखंड इलाके में सिर्फ बीस फीसदी जमीन पर ही बुवाई हो पाई है। यहां पानी की एक-एक बूंद के लिए जद््दोजहद हो रही है। लगातार सूखे की वजह से पहले फसलें बर्बाद हुर्इं और अब तालाबों, कुओं और नलकूपों ने भी जवाब दे दिया है। इस इलाके के ज्यादातर हिस्से में लोग पानी के लिए कई किलोमीटर का चक्कर लगा रहे हैं।
हालात देश के विकसित राज्य माने जाने वाले महाराष्ट्र और गुजरात में भी ठीक नहीं। महाराष्ट्र के छब्बीस हजार गांव फिलहाल सूखे की चपेट में हैं। सरकार ने इन गांवों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया है। सूखे से निपटने के लिए मराठवाड़ा से अस्पताल और जेल तक दूसरे इलाकों में स्थानांतरित किए जा रहे हैं। राज्य के मराठवाड़ा, उत्तर महाराष्ट्र और विदर्भ के चौदह जिलों में सूखे के चलते पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। इन इलाकों में दंगा होने तक की नौबत आ गई है जिसके चलते लातूर और परभणी जिलों में धारा 144 लागू कर पानी पर पहरा लगा दिया गया है।
मराठवाड़ा के पच्चीस लाख से ज्यादा किसान अपनी जिंदगी बचाने के लिए गांवों से पलायन कर चुके हैं। इस क्षेत्र के गांव के गांव खाली हो गए हैं। सूखे से राज्य में भीषण जलसंकट का खतरा मंडरा रहा है। मराठवाड़ा समेत कई जलाशयों में केवल चार से पांच फीसदी पानी बचा हुआ है। गुजरात की अगर बात करें, तो राज्य के सौराष्ट्र में भी पानी का भयंकर संकट है। सूखे से यहां के हालात इतने नासाज हैं कि जलाशयों में सिर्फ दस फीसदी पानी बचा हुआ है। यह पानी ज्यादा से ज्यादा दो महीने और चलेगा।
पानी की तंगी कच्छ और उत्तरी गुजरात में भी है। सूखे से हालात इतने विकराल हो गए हैं कि देश के इक्यानबे प्रमुख जलाशयों में सिर्फ पच्चीस फीसदी पानी बचा हुआ है। देश के पूर्वी हिस्से में चौवालीस फीसदी, मध्य क्षेत्र में छत्तीस फीसदी, दक्षिण में बीस फीसदी, पश्चिम में छब्बीस फीसदी और उत्तरी इलाके में सिर्फ सत्ताईस फीसदी पानी बचा हुआ है। केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक इकतीस मार्च को इक्यानबे प्रमुख जलाशयों में सिर्फ 39.651 अरब क्यूबिक मीटर पानी था। जलाशयों में मौजूद पानी की यह मात्रा पिछले दस साल के औसत से भी पच्चीस फीसदी कम है। आयोग के मुताबिक पानी की कमी का सबसे ज्यादा असर उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु पर होगा। प्रभावित राज्यों में नब्बे फीसदी भूजल का इस्तेमाल हो चुका है। यानी धरती में सिर्फ दस फीसदी पानी बचा हुआ है।
बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में भी दिन-पर-दिन पेयजल संकट गहराता जा रहा है। हैंडपंप सूख रहे हैं और कुओं का पानी गहराई में जा रहा है। पानी तो पानी, लोगों को भोजन का भी संकट है। फसल न होने की वजह से कृषि श्रमिकों को काम नहीं मिल पा रहा है। मनरेगा जो कि ग्रामीणों को रोजगार देने की एकमात्र योजना है, उसमें भी उन्हें जरूरत के मुताबिक काम नहीं मिल पा रहा है।
मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने सरकार से जवाब तलब किया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा, सूखा प्रभावित राज्यों में कैसे लागू की जा रही है? अदालत ने सरकार से यह भी जानना चाहा कि इन राज्यों में वह किस तरह से फंड मुहैया करा रही है। अदालत का कहना था कि चूंकि केंद्र, राज्यों को मनरेगा के तहत पर्याप्त कोष जारी नहीं कर रहा है, लिहाजा राज्य मनरेगा के तहत लोगों को काम देने के इच्छुक नहीं हैं और औसत कार्यदिवस कम होते जा रहे हैं। मनरेगा में काम की स्थिति यदि जानें, तो सरकार कहती है कि वह मनरेगा में मजदूरों और किसानों को कम से कम सौ दिनों का काम दे रही है। वहीं केंद्रीय मंत्रिमंडल डेढ़ सौ दिनों का काम देने का प्रस्ताव मंजूर कर चुका है। यही नहीं, कुछ राज्य तो अपने यहां मजदूरों को दो सौ दिन काम देने की भी बात करते हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही है।
सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक, देश में मनरेगा में औसत कार्यदिवस सिर्फ छियालीस ही हैं। यानी सौ दिनों के बदले सिर्फ छियालीस दिनों का ही वास्तविक तौर पर काम दिया जा रहा है। जाहिर है यदि सूखा-पीडि़त राज्यों में मनरेगा के तहत लोगों को काम मिल रहा होता, तो यहां इतने विकट हालात नहीं होते। रोजगार के अभाव में लोग मजबूरी में गांवों से पलायन नहीं करते।
पहले खेत सूखे, फिर पेट सूखे, अब हलक सूखे
पहले खेत सूखे, फिर पेट सूखे, नदी-नाले सूखे और अब हलक सूखे। पिछले चालीस सालों के सबसे भयावह सूखे से जूझ रहे आज के बुंदेलखंड की यही असल तस्वीर है। खेतों में अर्से से वीरानियां हैं। गांव-देहात बूढ़े और महज लाचार लोगों की बस्तियां हैं। पीने के पानी के लिए भी अब धरती से पाताल तक जद्दोजहद करनी पड़ रही है। पानी के झगड़े अब हिंसक हो रहे हैं और इससे सामाजिक समरसता खत्म हो रही है। नदी-नाले सूखने से जानवरों ने दम तोडऩा शुरू कर दिया है। अब सबसे बड़ी चुनौती जो जिंदा है, उनके लिए जिंदा बने रहने की है।  मेरी पैदाइश इसी बुंदेलखंड की धरती की है। जो तस्वीर आज देख रहा हूं, इससे पहले कभी नहीं देखी। सूखे के बारे में खूब सुना-पढ़ा था लेकिन ललितपुर जिले में इस तरह के बदतर हालात इससे पहले कभी नहीं देखे। बुंदेलखंड का चाहे वो उत्तर प्रदेश का इलाका हो या मध्यप्रदेश का, कमोबेश हालात करीब-करीब एक जैसे ही हैं। ललितपुर जिले की बार तहसील के एक गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक दीपक जैन कहते हैं, अब असल चुनौती अगले तीन महीने की हैं। इन तीन महीनों से पार पाना इलाके के लोगों के लिए अपने जीवनरण की चुनौती है। जैन बताते हैं कि इलाके के गांवों से तेजी से पलायन हो रहा है। गांव में केवल वही बचे हैं जो लाचार हैं और कहीं दूसरी जगह जाकर कमा नहीं सकते। ज्यादातर जवान लड़के पंजाब और आसपास के दूसरे शहरों में पेट पालने की जद्दोजहद में पलायन कर चुके हैं।
-मुंबई से बिन्दु ऋतेन्द्र माथुर

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