16-Apr-2016 08:02 AM
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मध्य प्रदेश के लगभग 94 हजार वर्ग किमी जंगल के दायरे में 10 नेशनल पार्क और 25 अभ्यारण हैं जो यहां की वन संपदा की संपन्नता को दर्शाते हैं। प्रदेश के नेशनल पार्क और अभयारण्य वन्य प्राणियों के लिए स्वर्ग हैं। लेकिन पिछले कुछ
सालों से माफिया, तस्कर, सफेदपोश और अफसरों की मिलीभगत से वन्य प्राणियों के ये स्वर्ग उनके लिए कब्रगाह बन गए हैं। प्रदेश में अन्य वन प्राणियों के साथ बाघों का लगातार शिकार हो रहा है। जिससे मध्यप्रदेश के लिए अब टाइगर स्टेट का दर्जा हासिल कर पाना लगभग नामुमकिन है। वर्ष 2011-12 के बाद ये तमगा छिन जाने से सबक लेते हुए हालात सुधरने के बजाय कितने बिगड़े इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मप्र में पिछले एक वर्ष में 16 बाघों की मौत हुई है। बाघों के संरक्षण को लेकर वन विभाग की लापरवाही ने कई वर्षों के लिए मप्र को टाइगर स्टेट के तमगे से दूर कर दिया है। इसका सीधा असर यहां पर्यटन में गिरावट के तौर पर सामने है। इस गिरावट को प्रदेश के पर्यटन राज्य मंत्री सुरेंद्र पटवा भी स्वीकारते हैं। बाघों की सुरक्षा पर 923 करोड़ रुपए खर्च करके भी वन विभाग इनके शिकार पर अंकुश नहीं लगा सका। चार साल में करीब 36 बाघों की जान शिकार के चलते जाने की आशंका है। बाघों की मौत के कई मामले संदिग्ध रहे, लेकिन इनकी जांच को लेकर विभाग ने गंभीरता नहीं दिखाई। इसमें वनरक्षक निलंबित कर इतिश्री कर ली गई। पेंच टाइगर रिर्जव के महाराष्ट्र की सीमा से लगे इलाके को लेकर वन विभाग ने महाराष्ट्र की सूचनाओं के बाद सक्रियता नहीं बढ़ाई, जिसके चलते नौ बाघों की मौत हुई, जिसमें शिकार की आशंका है। गैर सरकारी संगठन इसके लिये जहां सरकार को दोषी ठहराते हैं वहीं दूसरी ओर वन विभाग के अधिकारी इनमें से अधिकतर मौतों को सामान्य बता रहे हैं। वन विभाग के अतिरिक्त प्रमुख वन संरक्षक (वन्यजीव) शहबाज अहमद कहते हैं कि प्रदेश सरकार और वन विभाग बाघों के संरक्षण की दिशा में बेहतर से बेहतर प्रयास कर रहा है। वे प्रदेश में बाघों की मौतों को नगण्य बताते हुए कहते हैं कि इनमें से अधिकतर बाघों की मौत सामान्य कारणों से हुई है। पीसीसीएफ नरेंद्र कुमार कहते हैं कि स्वभाविक मौत के मामले नहीं टाले जा सकते। टेरीटरी के लिए बाघ आपस में लड़ते और मरते हैं। अब हर बाघ के पीछे नहीं लगा जा सकता। लोगों का मूवमेंट बढ़ रहा है, उनके पास साधन है इसलिए कहीं-कहीं शिकार हो जाते हैं। हमारे पास स्टाफ की भी कमी है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में एक बाघ पर सालाना खर्च साढ़े 11 लाख रुपए का खर्च आता है। इसके बावजूद प्रदेश को टाइगर स्टेट का छिना हुआ दर्जा वापस नहीं मिल पा रहा है। हाल के दिनों में बाघों के लिए प्रसिद्ध टाइगर रिजर्व, सेंचुरी और पार्को के बजट में तीन फीसदी से अधिक की कटौती हुई है। इसका भी असर सुरक्षा पर पड़ा माना जाता है। पेंच पार्क में बाघों की संख्या 50 के लगभग बताई जाती है। पिछले नौ महिनों में नौ बाघों की मृत्यु हो चुकी है यदि इसी हिसाब से लापरवाही के चलते बाघ शिकार बनते रहे तो आने वाले 5 सालों में पेंच में एक भी बाघ नहीं बचेगा। बाघ के आने पर मुनादी होगी नेशनल पार्कों के बफर जोन में बसे ग्रामीणों व वन्य प्राणियों के बीच संघर्ष की संभावनाओं को टालने के लिए वन विभाग संवेदनशील हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में वन्य प्राणी और जंगल के गांवों में चहल-कदमी का नतीजा कुछ ऐसा रहा कि दोनों ही परिस्थितियों में अपूर्णनीय क्षतियां हुई हैं। कभी बाघ ने वन्य ग्रामों की सीमा लांघकर ग्रामीणों पर हमला किए तो आक्रोशित ग्रामीणों ने भी वन्य प्राणियों से बदला लिया। ऐसे हालात अब निर्मित न हो इसके लिए वन अमला टाइगर रिजर्व क्षेत्र में बाघों को गांवों के इर्द-गिर्द देखने पर मुनादी कर ग्रामीणों को अलर्ट करेगा प्रबंधन के अनुसार पहले भी इस दिशा में प्रोजेक्ट तैयार हुए लेकिन इस बार संवेदनशीलता के साथ गांवों के बीट प्रभारियों को जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के डायरेक्टर के रमन कहते हैं कि बाघों की सुरक्षा को लेकर पार्क प्रबंधन निरंतर प्रयासरत है। जंगल के गांवों में अधिकतर कांफ्लिक्ट की संभावनाएं बनती हैं। यदि ग्रामीण जन सावधानी बरते तो खतरा भी कम होगा। अब देखना यह है कि विभाग का यह प्रयोग कितना कारगर होता है।
-भोपाल से अरविंद नारद