16-Apr-2016 07:18 AM
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बिहार के कई गांवों में परंपरा रही है कि देवताओं पर प्रसाद के रूप में दारू चढ़ाई जाती है। सदियों से डाकबाबा, गोरैयाबाबा, डीहवाल और मसानबाबा पर देसी दारू चढ़ाने की परंपरा है। लेकिन बिहार में पहली अप्रैल से देसी-विदेशी शराब पर

पाबंदी लगा दी गई है। अब अगर देसी शराब उपलब्ध नहीं होगी तो देवताओं पर गांव वाले क्या चढ़ाएंगे। गांव वालों का मानना है कि देवताओं पर दारू नहीं चढ़ पाएगी तो देवता नाराज हो जाएंगे और इसका खामियाजा ग्रामीणों को भुगतना पड़ सकता है।
देवता की नाराजगी और प्रसन्नता का असर तो गांव तक ही सीमित रहेगा, लेकिन अगर शराब की पाबंदी में लापरवाही साबित हुई तो इसका सीधा असर राज्य सरकार पर पड़ेगा। जाहिर तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बड़े उद्देश्य को लेकर प्रदेश में शराब की बिक्री पर पाबंदी लगाई है। लेकिन इसे सख्ती से लागू नहीं किया गया तो इसका सीधा असर गांव के गरीबों पर पड़ेगा। प्रदेश में देसी दारू का सेवन गांव के गरीब लोग करते थे। इनमें वे लोग भी शामिल हैं जो डीहवाल, डाकबाबा, गौरयाबाबा और मसानबाबा पर दारू चढ़ाने में आस्था रखते हैं।
लेकिन सरकारी घोषणा के बावजूद अवैध तरीके से शराब की बिक्री होगी तो इसका खामियाजा गरीबों को भुगतना पड़ेगा। पहले जो व्यक्ति 30 रूपए की दारू से काम चला लेते थे उन्हें कालाबाजार में कई गुना अधिक राशि खर्च करनी पड़ेगी। यही नहीं, अवैध तरीके से महुआ शराब के निर्माण पर अंकुश नहीं लगाए जाने का असर भी उन सबों पर ही दिखेगा। अवैध शराब से मौत का खतरा विद्यमान रहता है। सरकारी स्तर पर जो कानून बनाए गए हैं, सरकार की लचर कार्यप्रणाली रही तो इसका खामियाजा भी गरीबों को भुगतना पड़ेगा। जेल जाएंगे, सजा होगी। ऐसी स्थिति में शराब बंद करने का श्रेय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जब मिलेगा तब व्यवस्था की लचर कार्यप्रणाली की जवाबदेही भी नीतीश के जिम्मे होगी।
बता दें कि राज्य में हर माह करीब 8232394 लीटर देशी शराब की खपत होती थी। जबकि 3677816 लीटर विदेशी और 3658646 लीटर बियर की खपत होती थी। लेकिन अब शराब पर पाबंदी लगा दी गई है। सरकार ऐसा मान रही है कि शराब पर प्रतिबंध लगाए जाने से ग्रामीणों को काफी राहत मिलेगी। जो गरीब अपनी मजदूरी का आधा हिस्सा दारू में खर्च कर देते थे। उनकी वह राशि बचेगी। महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं थमेंगी। बच्चों की पढ़ाई में मदद मिलेगी। लेकिन जब विफलता होगी तो गरीबों का गुस्सा भी सरकार पर होगा। क्योंकि विफलता की कीमत गरीबों को चुकानी पड़ेगी। जाहिर तौर पर यह गुस्सा नीतीश पर भारी पडऩे वाला है। क्योंकि इनकी आबादी बड़ी है।
वैसे देखा जाए तो शराब को लेकर पिछले तीन साल के भीतर नीतीश के नजरिये में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। कभी विवाद और आलोचनाओं को दरकिनार कर नीतीश खुलेआम शराब का सपोर्ट किया करते थे, लेकिन अब वैसा बिलकुल नहीं है। 2012 में नीतीश ने कहा था, अगर आप पीना चाहते हैं तो पीजिए और टैक्स पे कीजिए। मुझे क्या? इससे फंड इक_ा होगा और उससे छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल की स्कीम जारी रहेगी।
2015 में नीतीश ने कहा, शराब से परिवार में अशांति पैदा होती है। परिवार में नशे की लत के कारण सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को झेलनी पड़ती है। हम बिहार में महिलाओं का दर्द समझ सकते हैं। उन्होंने कहा कि सरकार का यह प्रयास होगा कि नशा सेवन के कारण तबाह परिवारों में खुशी लौटे, उन परिवारों की आमदनी की राशि शिक्षा, पोषणयुक्त भोजन पर खर्च हो न कि नशा सेवन पर। इससे परिवार की महिलाओं को भी शराबबंदी से खुशी मिलेगी और परिवार का विकास तेजी से होगा और उन्होंने प्रदेश में देशी शराब पर पाबंदी लगा दी है।
शराबबंदी का असर
विपक्ष के हो हल्ले से बेपरवाह नीतीश ने पीने वालों के लिए सूबे में करीब 6,000 दुकानें खुलवा दी थी। ऐसा लगता जैसे हर नुक्कड़ पर दुकानें सज गईं हों। लोग छक कर पीने भी लगे। मालूम हुआ कि बिहार के लोग हर साल 1410 लाख लीटर शराब पी जाते हैं। इसमें करीब 1000 लीटर देशी और 420 लाख लीटर विदेशी शराब शामिल है। ङ्ख॥ह्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 30 फीसदी लोग शराब पीते हैं जिनमें 13 फीसदी तो इसका नियमित सेवन करते हैं। इतना ही नहीं पीने वाले ग्रामीण अपनी आमदनी का 45 फीसदी हिस्सा शराब पर खर्च कर देते हैं - और 20 फीसदी मौतें शराब पीकर गाड़ी चलाने से होती हैं। शराब की खपत के मामले में भारत दुनिया का तीसरा बड़ा देश है। पूरे बिहार में शराब की करीब 6 हजार दुकानें हैं। शराब के चलते राज्य के राजस्व में 10 साल में 10 गुणा उछाल आया है। शराब की बिक्री से 2005-06 में जो कमाई 320 करोड़ रुपये रही वो 2014-15 में बढ़कर 3,665 करोड़ हो गई। शराबबंदी की हालत में इस तरह करीब चार हजार करोड़ रुपये का सालाना नुकसान होगा। नीतीश कुमार की इस घोषणा के दिन शराब कंपनियों के शेयरों में जोरदार गिरावट भी दर्ज की जा चुकी है।
-कुमार विनोद