31-Mar-2016 11:05 AM
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अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्व विख्यात उत्तराखंड का इन दिनों सबसे विद्रुप चेहरा लोगों के सामने आया है। जिससे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। यहां सत्ता के लिए जिस तरह बगावत, छल-कपट और खरीद-फरोख्त का मंजर देखने को

मिला है उससे राजनीति का दामन मैला हो गया है। पिछले कई दिनों से चल रहे इस महाभारत की परिणीति उत्तराखंड में राष्ट्र्रपति शासन लागू होने से हुई है। लेकिन सौम्य, सुंदर और शांति प्रिय इस राज में पिछले कुछ दिनों में जो कुछ भी घटित हुआ वह भारतीय राजनीति का सबसे स्याह पक्ष है।
उत्तराखंड की राजनैतिक अस्थिरता वैसी ही है जैसी कि आमतौर पर पूर्वोत्तर राज्यों मे ंदेखने को मिलती है। उत्तराखंड ऐसा प्रदेश है जहां गरीबी और असमानता का संकट रहा है पर वहां विकास की अपार संभावनाएं रहीं। अब वहां दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार और दल-बदल के हालात का घृणित चित्र देखने को मिला है। उत्तराखंड सरकार के हालात देखने से लगता है कि यदि कांग्रेस ने वहां विजय बहुगुणा की बजाय शुरुआत में ही हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया होता तो आज जैसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियां तो बिल्कुल ही नहीं होती।
इसे राजनीति का कौन सा रूप कहेंगे कि सरकार में मंत्री ही विधेयक पर मत विभाजन की मांग करने लगें और वही दल-बदल कर जाएं, इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति क्या होगी? उत्तराखंड विधानसभा में विनियोग विधेयक पेश करने के साथ कांग्रेस से बगावत कर नौ विधायक, राज्य में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की शरण में जा बैठे। मान-मनौव्वल के दौर चले लेकिन सब बेकार। विधानसभा स्पीकर ने हालांकि इन विधायकों को विधानसभा की सदस्यता से तो अयोग्य करार देकर कांग्रेस को सदन में बहुमत दिलाने का इंतजाम तो कर लिया लेकिन राष्ट्रपति शासन लागू होने से सारे किए-कराए पानी फिर गया। सवाल यह है कि इस सारे घटनाक्रम में संवैधानिक तौर पर क्या सही रहा और क्या गलत? नैतिकता ताक पर रखकर राजनीतिक लाभ के लिए लिये फैसले का खमियाजा राज्य क्यों उठाए?
बागी नेताओं में वे हरक सिंह भी शामिल हैं, जो भाजपा में थे जो भाजपा के नेता ही उन पर गंभीर आरोप लगाते थे और ऐसे ही आरोपों के बाद वे पार्टी से निकाल दिए गए। कांग्रेस ने ऐसे गलत लोगों को लिया। लोकतंत्र में यदि कोई जनता के विकास के मुद्दे पर रातों-रात सरकार बदलने को तैयार होता हो उसे ठीक भी कहा जाए लेकिन वहां जो भी कुछ हुआ है, वह अनैतिक तो कहा ही जाएगा। भले ही इन सारी परिस्थतियों के लिए हरीश रावत या राहुल गांधी की अदूरदर्शिता को जिम्मेदार ठहरा दें लेकिन उत्तराखंड के लिए तो यह अच्छा नहीं कहा जा सकता।
जरा यह भी सोचिए ऐसे नेता जो कांग्रेस से पाला बदलते हैं, भले ही उन पर भ्रष्टाचार के आरोप ही क्यों न हों वे पता नहीं कैसे भारतीय जनता पार्टी के लिए अनुकूल हो जाते हैं। अभी नहीं पता कि उत्तराखंड में कांग्रेस के नौ बागी विधायकों के साथ क्या परिस्थिति बनेगी लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि उन्हें भाजपा की ओर से प्रोत्साहित तो किया ही गया। भाजपा ने उसे कांग्रेस का अंदरूनी मामला जरूर कहा लेकिन यह कभी नहीं कहा कि ऐसे भ्रष्ट लोगों के खिलाफ जांच होनी चाहिए। जरा सोचिए, केदारनाथ विभीषिका से निपटने में सरकार के विफल रहने के बाद ही विजय बहुगुणा को हटाया गया था और भाजपा ने ही उन पर गंभीर आरोप लगाए थे।
विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत जैसे नेताओं को भाजपा भले ही परोक्ष समर्थन दे रही हो लेकिन उसकी स्थापना आरएसएस के जिन आदर्शों के आधार पर हुई, उसका ध्यान तो कतई नहीं रखा जा रहा है। हो सकता है कि राजनैतिक लिहाज से भाजपा के लिए ऐसा करना उसके अपने हित में हो लेकिन नैतिक आधार पर इसे कभी भी शोभाजनक नहीं कहा जा सकता। यद्यपि यह कहना कठिन है कि राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद स्थितियां किस तरह से परिवर्तित होंगी। यह तो यह है कि कुछ आठ-दस महीनों के बाद उत्तराखंड में चुनाव होने ही हैं, ऐसे में समय से पहले चुनाव कराना ठीक तो नहीं कहा जा सकता। इसी तरह एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि कांग्रेस के असंतुष्ट बागी नेताओं के सहयोग से भारतीय जनता पार्टी की उत्तराखंड में सरकार बन भी गई तो यह कितनी टिकाऊ होगी? इसके अलावा भाजपा राज्य की जनता को इस बात का क्या जवाब देगी कि जिन्हें कुछ समय पहले तक उसके नेता ही भ्रष्टाचार में डूबा हुआ बता रहे थे वे अचानक देवता पुरुष कैसे बन गए? क्या संवैधानिक गड़बडिय़ां हुई, इसकी समीक्षा संविधान विशेषज्ञ करते रहेंगे लेकिन इतना जरूर है कि दोनों ही दलों की ओर से अपने राजनैतिक अस्तित्व को बढ़ाने और बचाने को लेकर जिस तरह के प्रयास किए गए, वे विकास और लोकतंत्र के दृष्टि से ठीक नहीं हैं।
इस मामले में कोई दो मत हो ही नहीं सकते कि किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन अंतिम विकल्प ही होना चाहिए। चूंकि इस मामले में राज्यपाल के सिफारिश के साथ केंद्रीय मंत्रिपरिषद की राय मायने रखती है तो ऐसे में कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति बहुत ही सोच-विचार कर ऐसा फैसला करते हैं। उत्तराखंड के मामले में भी इसी तरह की परंपरा का निर्वहन हुआ है, तो ऐसे में कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति का यह फैसला भी सोच-समझकर लिया गया फैसला ही है। यह बात अलग है कि कोई राष्ट्रपति की राय से सहमत हो या न हो। वैचारिक भिन्नता रखने की आजादी भी हमारे देश में है।
-इन्द्र कुमार