31-Mar-2016 10:03 AM
1234797
अक्सर कहा जाता है कि राजनीति में कोई किसी का नहीं होता। इसके लगातार उदाहरण भी सामने आते रहते हैं। जरा-जरा सी बात पर नेता एक-दूसरे का साथ छोड़ देते हैं। नेता ऐसा अपना अस्तित्व कायम करने के लिए करते हैं।

दरअसल, राजनीति वह शय है जो छुड़ाए नहीं छुटती है। यही कारण है कि राजनीति में वंशवाद और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने वाले नेताओं को जब लगता है की उनके अपने उनकी राह में रोड़ा बन रहे हैं तो वे उन्हें भी नहीं बख्शते। कांग्रेस पार्टी में ज्यादातर नेताओं के बेटे सिंधिया, पायलट, देवड़ा, प्रसाद जैसे कुलनामों पर सवार हैं और उन्हें अपने पिता के नामों का ही सहारा है।
आज के राजनीतिक परिपेक्ष्य में सबसे पहले अगर हम देश के सबसे प्राचीन और शक्तिशाली नेहरू गांधी परिवार पर नजर डालें तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पिछले कई वर्ष से कांग्रेस का कर्णधार बनने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं। जब भी उन्हें यह आस दिखती है कि उनको कांगेस की कमान मिलने वाली है, उसी दौरान प्रियंका लाओ कांगेस बचाओ का नारा गूंजने लगता है। ऐसे में पार्टी का सबसे शक्तिशाली वर्ग सोनिया गांधी को कुछ दिन और कमान अपने हाथ में रखने की वकालत करता है और राहुल की मंशा पर पानी फिर जाता है। यही नहीं पार्टी में भले ही कुछ नेता राहुल को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर प्रदर्शित करते रहे हों लेकिन वह भी नहीं चाहते हैं कि राहुल कांग्रेस का सरताज बनें। इसलिए बार-बार राहुल गांधी की कामयाबी की राह में सोनिया गांधी को रोड़ा बनाकर खड़ा कर दिया जाता है।
कुछ लोग तो कांग्रेस में चल रहे इस घटनाक्रम को राजवंशों के मुकद्दर पर और इतिहास से जोड़कर देख रहे हैं। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि किसी भी राजवंश की शानो-शौकत चार पीढिय़ों के बाद मुश्किल से ही बरकरार रह पाती है। पहली पीढ़ी का ध्यान नए-नए इलाके फतह करने पर रहता है, दूसरी पीढ़ी का ध्यान प्रशासन पर। तीसरी पीढ़ी को न तो नए इलाके फतह करने की चिंता रहती है और न ही प्रशासन की, वो तो सिर्फ अपने पुरखों की जमा की गई दौलत को अपने शौक के लिए उड़ाती है और जो मन में आता है वो करती है। इसी का नतीजा होता है कि चौथी पीढ़ी आते-आते वो राजवंश आमतौर पर न सिर्फ अपनी पूरी दौलत को उड़ा बैठता है, बल्कि उसके पास इंसानी उर्जा भी नहीं बचती है। इसीलिए जिस प्रकार किसी शाही खानदान का उभार होता है, उसी के साथ उसके पतन की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। ये एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और इससे बचा नहीं जा सकता है। इस बात को अगर समकालीन भारतीय इतिहास के परिवेश में देखें तो महान नेहरू गांधी परिवार इस तथ्य को सही साबित करता प्रतीत होता है। जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गांधी के साथ मिलकर ब्रितानी राज से भारत को आजादी दिलाने की लड़ाई लड़ी। उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने प्रभाव का विस्तार किया, पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध जीता, बांग्लादेश का निर्माण कराया और वो 20वीं सदी की सबसे ताकतवर शख्सियतों में से एक बनीं। यहां याद दिलाना जरूरी है कि वर्ष 1959 को, जब इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं और जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। इंदिरा गांधी उस समय प्रधानमंत्री नेहरू की नजदीकी सलाहकार थीं लेकिन फिर भी वो राजनीति से दूर रहती थीं और सार्वजनिक जीवन की चकाचौंध भी उन्हें अपनी तरफ नहीं खींच पाती थी। इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी भी प्रधानमंत्री बने, उन्होंने कई प्रयोग किए और उनकी भारी कीमत भी चुकाई। नेहरू-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व राहुल गांधी कर रहे हैं और शायद उनके इरादे भी नेक हैं, लेकिन वो कुछ कर नहीं पा रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि बड़ों के कारण सिर्फ राहुल गांधी की ही चमक कम हो रही है। अगर वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें तो संख्या के हिसाब से देश के सबसे बड़े राजनीतिक घराने मुलायम के समाजवादी कुनबे में झांके तो वहां भी स्थिति ऐसी ही है। वर्तमान समय में समाजवाद के सबसे बड़े संवाहक मुलायम सिंह यादव ने सारी परिभाषाओं और समाजवाद की वर्जनाओं को तोड़ते हुए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने पूरे कुनबे को तो उतार दिया, लेकिन किसी की भी कामयाबी वे पचा नहीं पाते हैं। अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री हैं लेकिन अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने के लिए उन्हें अपने पिता मुलायम सिंह यादव की जरूरत होती है। आलम यह है की पार्टी के कई वरिष्ठ नेता अखिलेश को भाव नहीं देते। अगर अखिलेश बतौर मुख्यमंत्री कभी किसी पर नकेल कसने की कोशिश भी करते हैं तो उनके पिता सार्वजनिक तौर पर डांटते डपते रहते हैं। उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में तो कहा जाता है कि असली सीएम तो मुलायम सिंह ही हैं। दरअसल, अखिलेश यादव समाजवाद का नया चेहरा हैं। उनके पिता इंग्लिश और कंप्यूटर के खिलाफ थे, लेकिन अखिलेश यादव ऑस्ट्रेलिया से इंग्लिश में पढ़ कर आए हैं। वह सरकार को अपने तरीके से चलाना चाहते हैं। लेकिन मुलायम सिंह उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि जिस युवा अखिलेश को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद लोग उनमें एक बड़े राजनीतिज्ञ की झलक देख रहे थे वह बुझ-सी गई है। हालांकि परिवार की लाख बंदिशों के बाद भी उन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी छाप छोडऩे की भरपूर कोशिश की है। उन्होंने गरीब-अमीर के बीच डिजिटल डिवाइड को खत्म करने के लिए लैपटॉप बांटे। उन्होंने कभी भी राजनैतिक द्वेष से कोई काम नहीं किया। लेकिन पिता (मुलायम सिंह यादव) के दबाव में सरकार ने कुछ ऐसे फैसले जरूर लिए हैं जिससे अखिलेश की छवि धूमिल हुई है।
अजित सिंह के पिता चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री रहे और बड़े किसान नेता थे चरण सिंह की दमदार विरासत भी उत्तर प्रदेश में तार-तार नजर आती है। पिछले आम चुनाव में अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी, दोनों जाटों का गढ़ कहे जाने वाले बागपत और मथुरा से हार गए। बिहार में ही अभिनेता से नेता बने चिराग पासवान के सामने भी यही स्थिति है। बिहार चुनाव के दौरान रामविलास पासवान ने पुत्र चिराग पासवान को पूरी तरह फ्री-हैंड दे दिया था लेकिन उनके फेसबुक पेज पर पसंद करने वाले भले सैकड़ों लोग हों, लेकिन जूनियर पासवान अपने पिता रामविलास पासवान की परछाईं की बराबरी भी नहीं कर पाए हैं, जो सियासत के माहिर खिलाड़ी रहे हैं। दरअसल चिराग जहां भी जाते या जो भी करते उसमें लोग रामविलास पासवान को ही देखते। रामविलास पासवान ने चिराग को लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय बोर्ड का प्रमुख नियुक्त किया है और जब बिहार की जनता ने अपना जनादेश दिया तो उन्हें अपने बेटे की राजनीतिक सूझबूझ का पता चल गया। उधर करुणानिधि का कुनबा भी पूरी तरह विभाजित नजर आता है और खासकर तब जब इसी साल मई में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने हैं। करुणानिधि के बेटे अलागिरी और स्टालिन, दोनों 60 की उम्र को पार कर चुके हैं और उनकी लड़ाई जगजाहिर है, जिससे नुकसान के सिवा कुछ हासिल नहीं हो रहा है। अलागिरी को डीएमके से निकाल दिया गया और अब वो चुनावों में डीएमके का खेल बिगाड़ सकते हैं, लेकिन सियासी पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि अलागिरी की हालत पिछले साल बिहार चुनावों में चिराग पासवान से भी बुरी होगी। डीएमके के नजरिए से देखें तो इस साल तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव थलैइवरÓ (नेता) करुणानिधि के ही इर्द-गिर्द घूमेंगे, न कि उनके बेटे स्टालिन के।
हूबहू यही स्थिति चंडीगढ़ में नजर आती है जहां प्रकाश सिंह बादल का मुकाबला जाट सिख नेता अमरिंदर सिंह और पंजाब में तेजी से जड़ जमा रही आम आदमी पार्टी से है। ये देखना दिलचस्प होगा कि प्रकाश सिंह बादल और करुणानिधि अपने बेटों सुखबीर सिंह बादल और स्टालिन को लिए बिना, अपने मुश्किल गठबंधनों से बात आगे बढ़ा पाते हैं कि नहीं। यहां सवाल पैदा होता है कि राजवंश या सियासी वंश इस तरह नाकाम क्यों हो जाते हैं? क्या ये एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे बचा नहीं जा सकता है या फिर कुछ और है? राहुल गांधी, अखिलेश यादव, स्टालिन, सुखबीर बादल और जयंत चौधरी पर नजदीकी नजर डालें तो पता चलता है कि उनके माता-पिता की मौजूदगी और हस्तक्षेप उनकी राजनीतिक संभावनाओं को घटाने में एक अहम कारक साबित हो रहा है।
-दिल्ली से रेणु आगाल