नेता नहीं मैनेजमेंट पर विश्वास
31-Mar-2016 10:15 AM 1234810

कांगेस और उसकी विचारधारा को पल्लवित और पुष्पित करने में उत्तर प्रदेश का बड़ा योगदान रहा है। इस प्रदेश में पहले और अब भी कांग्रेस के कदावर नेताओं की लंबी फेहरिश्त रही है। लेकिन आज स्थिति यह बन गई है की उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के सफाए की नौबत आ गई है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस 2017 में कैसे वापसी कर सकती है। इसका जवाब लोग राहुल से पूछ रहे थे तो राहुल गांधी किसी परिपक्व नेता की तरह जवाब देने की बजाय प्रशांत किशोर की शरण में चले गये। पहले मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में और हाल ही में संपन्न हुए बिहार चुनाव में जदयू-राजद-कांग्रेस गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाने वाले राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर राहुल की मर्जी के अनुसार अब यूपी चुनावों में कांग्रेस की कमान संभालेंगे। हाल ही में नई दिल्ली में यूपी चुनावों को लेकर कांग्रेस की बैठक में जब प्रशांत किशोर दिखाई दिये तो सियासी प्याले में उफान आ गया। बाद में पता चला कि प्रशांत किशोर के कंधों पर राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी डाली है। पिछले करीब तीन दशकों से कांग्रेसी यूपी में सत्ता का स्वाद चखना तो दूर दो अंकों से आगे नहीं बढ़ पाये लेकिन प्रशांत किशोर का साथ मिलते ही कांग्रेसी 2017 के चुनाव में भाजपा, सपा और बसपा को चारों खाने चित कर देने का दावा करने लगे हैं।
प्रशांत किशोर एक ऐसा नाम जो अब किसी पहचान का मोहताज नहीं है। फिर यदि परदे के पीछे रहने वाले इस शख्स को आप एक झटके में न पहचान पाएं हों तो आपके बता दें कि ये वही शख्स है, जिसने पहले मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार की कमान संभाली। उसके बाद प्रशांत के सामने बड़ी परीक्षा तब आई जब बिहार में उन्हें मोदी के खिलाफ और नीतीश के समर्थन में रणनीति बनाने का मौका मिला। लोकसभा चुनाव की कामयाबी का श्रेय मोदी की छवि और उनके जोरदार चुनावी भाषणों को गया। इन भाषणों में कई ऐसे नारे रहे जो आज तक लोगों के जेहन में ताजा हैं। अच्छे दिन की बात हो या सबका साथ सबका विकास की बात मोदी सरकार बनने के बाद भी ये नारे ताजा झोकों की तरह सुनने को मिलते रहे। अब बारी है उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की। प्रशांत किशोर 2017 में कांग्रेस के लिये उत्तर प्रदेश चुनाव जीत कर अपनी हैट्रिक बनाने का सपना देख रहे हैं तो वहीं राजनैतिक पंडितों को लगता है कि प्रशांत से कहीं चूक तो नहीं हो गई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की और बिहार में नीतिश-लालू गठबंधन की जीत का पूरा श्रेय प्रशांत को नहीं दिया जा सकता है।
खैर, कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव उनके सियासी सफर की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा साबित होने जा रही हैं। वैसे उत्तर प्रदेश से पहले इस साल असम, केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में भी विधानसभा चुनाव होना है, जिसकी घोषणा भी कर दी गई है। असम और केरल में तो राहुल गांधी पर पार्टी की साख और सरकार दोनों बचाने की जिम्मेदारी है। मुमकिन है प्रशांत किशोर के साथ हाथ मिलाने का फायदा पार्टी इन चुनावों में भी उठाना चाहे। राजनैतिक पंडित कहते हैं कि राहुल गांधी के नाम पर चुनाव लड़ाने में प्रशांत किशोर के सामने कई अड़चनें आयेंगी। कांग्रेस की अपने नेताओं की उपेक्षा और प्रशांत किशोर पर विश्वास उसके लिए घातक न बन जाए। क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव की दस्तक से पहले ही कांग्रेसी नेता अपने-अपने क्षेत्र में टिकट की चाह में दंड पेलने लगे हैं। वैसे यह पहला प्रयास नहीं है और आखिरी भी नहीं होगा। करीब दो दशकों से यह सिलसिला चला आ रहा है। परम्परागत रूप से किसी भी चुनाव से पूर्व कांग्रेसी वापसी का ढिंढोरा पीटने लगते हैं। यह और बात है कि जब नतीजे आते हैं तो कांग्रेस जीत तो दूर तीसरे-चौथे स्थान पर दिखाई देती है। हर हार के बाद कुछ समय के लिये कांग्रेसी खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं और दिन बीतने के साथ चादर खिसकती जाती है। जब कांग्रेसियों के पास कोई विजन नहीं होता है तो जनता को बार-बार नेहरू-गांधी परिवार की कुर्बानी की याद दिलाकर भावनात्मक रूप से अपने पक्ष में करने का प्रयास किया जाता है।
एक समय था उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास जनाधार वाले तमाम नेताओं की लम्बी-चौड़ी फौज हुआ करती थी। नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, लोकपति त्रिपाठी, वासुदेव सिंह, बलदेव सिंह आर्य, सईद्दुल हसन, नरेन्द्र सिंह, राजा अजीत प्रताप सिंह, स्वरूप कुमारी बख्शी, अरूण कुमार सिंह मुन्ना, महावीर प्रसाद, सिब्ते रजी, प्रवीण कुमार शर्मा, सुनील शास्त्री, हुकुम सिंह (अब दोनों भाजपा में), शिव बालक पासी, जफर अली नकवी, दीपक कुमार, मानपाल सिंह, सुखदा मिश्रा जैसे तमाम नेताओं की अपने-अपने इलाकों में तूती बोला करती थी। एक तो इन ताकतवर नेताओं की फौज और उस पर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे नेताओं की सरपरस्ती ने कांग्रेस को कई दशकों तक यूपी में कमजोर नहीं होने दिया, लेकिन इंदिरा और राजीव गांधी की मौत के बाद उत्तर प्रदेश कांग्रेस में सब कुछ तितर-बितर हो गया। न तो कांग्रेस की डूबती नैया को सोनिया गांधी उबार पाईं न ही राहुल गांधी की कोशिशें कामयाब हुईं। नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए जो 1989 तक सीएम की कुर्सी पर विराजमान रहे थे। कांग्रेस में ताकतवर नेताओं की कमी सबको खलती रही, लेकिन इस दौरान कोई नई लीडरशिप नहीं उभरी। चंद नाम जरूर सामने थे, लेकिन यह सर्वमान्य नहीं थे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष डॉ. रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी, संजय सिंह, आदित्य जैन, सलमान खुर्शीद, पूर्व नौकरशाह से नेता बने पीएल पुनिया, समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस का दामन थामने वाले बेनी प्रसाद वर्मा, फिल्म अभिनेता से नेता बने राजब्बर किस-किस का नाम गिनाया जाये, कोई भी कांग्रेस को मझधार से नहीं उभार पाया। बात यहीं आकर खत्म नहीं हुई थी, जिस कांग्रेस का सिक्का पूरे देश में चलता था, उस कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सोनिया-राहुल गांधी तक को अपनी जीत पक्की करने के लिये समाजवादी पार्टी से वॉकओवर लेना पड़ जाता था। लेकिन जिस तामझाम के साथ कांग्रेस पिछले कई चुनावों में लड़ती है और पटखनी खा जाती है उससे कार्यकर्ताओं का मनोबल लगातार गिरता जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को लगातार पराजय मिल रही है, लेकिन आज भी यूपी में गांधी परिवार की उपस्थिति अमेठी, रायबरेली, इलाहाबाद और थोड़ी-बहुत सुखा प्रभावित बुंदेलखंड आदि इलाकों तक सीमित है। कांग्रेस के पास कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं है जिसे मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा सके। निर्मल खत्री, मधुसूदन मिस्त्री के सहारे संगठन अगर आगे बढ़ सकता तो कब का बढ़ गया होता। कांग्रेस में सर्वमान्य नेता का अभाव है तो सीएम के नाम पर जब चर्चा होती है तो कांग्रेसियों की सुई प्रियंका वाड्रा के नाम पर अटक जाती है। अब देखना यह दिलचस्प होगा कि 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर पर कांग्रेस का विश्वास कितना खरा उतरता है।
-राजेश बोरकर

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