16-Apr-2013 06:33 AM
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वर्ष 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के मामले में दिल्ली की एक अदालत ने कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर को झटका देते हुए सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट खारिज कर दी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में हुए सिख विरोधी दंगों के दौरान जगदीश टाइटलर में दिल्ली में भीड़ को उकसाने का आरोप है। इसी के मद्देनजर सीबीआई ने राजधानी के कड़कडड़ूमा कोर्ट में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की थी, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया। सीबीआई ने टाइटलर को क्लीन चिट दी थी। टाइटलर पर गुरुद्वारा पुलबंगश, करोलबाग में तीन लोगों की हत्या का आरोप है। अब इस कांग्रेस नेता के खिलाफ फिर से जांच होगी।
गौरतलब है कि 31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे देश में सिख विरोधी दंगे भड़क गए थे। कांग्रेसी नेताओं सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर पर दिल्ली में इन दंगों को भड़काने का आरोप लगाया गया। ढाई दशक से ज्यादा वक्त हो चुका है, जब 31 अक्टूबर 1984 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद देशभर में भड़के सिख विरोधी दंगों में हजारों निर्दोष सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया था। कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर की क्लोजर रिपोर्ट खारिज होने के बाद 84 के दंगों के जख्म एक बार फिर हरे हो गए हैं। इस मामले में कांग्रेस के एक और वरिष्ठ नेता सज्जन कुमार भी आरोपी हैं। एक अनुमान के मुताबिक पूरे देश में करीब 10 हजार सिखों को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया था, जिनमें 2500 से ज्यादा सिख तो देश की राजधानी दिल्ली में मारे गए थे। एक आंकड़े के मुताबिक अकेले दिल्ली में करीब 3000 सिख बच्चों, महिलाओं और बड़ों को मौत के घाट उतार दिया गया था। दिल्ली में खासकर मध्यम और उच्च मध्यमवर्गीय सिख इलाकों को योजनाबद्ध तरीके से निशाना बनाया गया। राजधानी के लाजपत नगर, जंगपुरा, डिफेंस कॉलोनी, फ्रेंड्स कॉलोनी, महारानी बाग, पटेल नगर, सफदरजंग एनक्लेव, पंजाबी बाग आदि कॉलोनियों में हिंसा का तांडव रचा गया। गुरुद्वारों, दुकानों, घरों को लूट लिया गया और उसके बाद उन्हें आग के हवाले कर दिया गया। इतना ही नहीं मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र समेत अन्य राज्यों में हिंसा का नंगा नाच खेला गया। जिन राज्यों में हिंसा भड़की वहां ज्यादातर में कांग्रेस की सरकारें थीं। पूरे देश में फैले इन दंगों में सैकड़ों सिख महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। युवक, वृद्ध, महिलाओं पर ट्रेन, बस और अन्य स्थानों पर खुलेआम हमले किए गए। पुलिस सिर्फ तमाशबीन बनी रही। कई मामलों में तो यह भी आरोप हैं कि पुलिस ने खुद दंगाइयों की मदद की। आजादी के बाद देश के सबसे बड़े इस नरसंहार के पीडि़त सिख आज भी न्याय के इंतजार में दर-दर भटकने को मजबूर हैं। इंदिरा गांधी के हत्यारे अंगरक्षकों- बेअंतसिंह, सतवंतसिंह और एक अन्य (केहरसिंह) को फांसी पर लटका दिया गया। लेकिन हजारों सिखों की मौत के जिम्मेदार लोगों पर आज भी कानूनी शिकंजा नहीं कसा गया है। इंदिरा गांधी की मौत के बाद उनके बेटे राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने कहा था- जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। राजीव गांधी के बयान के बाद प्रशासन और पुलिस ने दंगों के मामले में लीपापोती शुरू कर दी। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने सिख विरोधी दंगों के दौरान दिल्ली में दो लोगों को जिन्दा जलाने के जुर्म में चार मुजरिमों की उम्रकैद की सजा बरकरार रखी है। न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति एम वाई इकबाल की खंडपीठ ने मुजरिमों की यह दलील ठुकरा दी कि हत्या के जुर्म में उन्हें सजा नहीं दी जा सकती है क्योंकि पुलिस ने मृतकों के शव बरामद नहीं किये और इस मामले में प्राथमिकी दर्ज करने में विलंब हुआ है। न्यायाधीशों ने कहा कि यह स्पष्ट व्यवस्था है कि हत्या के मामले में मृतक के शव की बरामदगी को कभी भी एकमात्र अपराध सार नहीं माना जाता। मौजूदा प्रकरण की तरह ही ऐसे अनेक मामले हैं जिनमे मृतक का शव मिलना असंभव होता है, विशेषकर सिख समुदाय के सदस्यों पर अलग-अलग स्थानों पर हिंसक भीड़ के हमले जैसी घटनाओं में हमलावर लाशों को गायब करने और संपत्ति लूटने का प्रयास करते हैं। न्यायाधीशों ने लाल बहादुर, सुरेन्दर पी सिंह, राम लाल और वीरेन्द्र सिंह की सजा बरकरार रखते हुये कहा कि गवाहों के बयानों में अंतर होने के आधार पर गवाही को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने कहा कि शायद ही कोई गवाह ऐसा होगा जिसके साक्ष्य में थोड़ा बहुत बढ़ा-चढ़ाकर तथ्यों को पेश नहीं किया गया हो। कई बार जानबूझ कर ऐसा हो सकता है और कभी कभी अधिक उत्कण्ठा के कारण तथ्यों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा सकता है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 27 अगस्त, 2008 को इन मुजरिमों को बरी करने का निचली अदालत का फैसला निरस्त करते हुये उन्हें उम्रकैद की सजा सुनायी थी। न्यायाधीशों ने कहा कि अदालत गवाहों के बयानों से सच्चाई का पता लगा सकती है और इसके लिये सारे सबूतों को दरकिनार करना अनावश्यक है। सबूतों की विश्वसनीयता के आधार पर विचार करने की आवश्यकता है।
विकास दुबे