31-Mar-2016 09:55 AM
1235053
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। बदलाव होते रहने चाहिए। राजनीतिक दलों में भी और सामाजिक संगठनों में भी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी 90 साल बाद अपने गणवेश में बदलाव किया है। दशकों तक संघ की पहचान रही खाकी नेकर
की जगह अब स्वयंसेवक भूरी पेंट में नजर आएंगे। संघ ने समय की मांग को देखते हुए इस बदलाव को अपनी सर्वोच्च बैठक में मंजूरी दी लेकिन उन आम भारतीयों के मन में सवाल उठता है कि क्या गणवेश में बदलाव लाने से संघ बदल जाएगा? दरअसल, केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद संघ के खिलाफ एक सुनियोजित कार्यक्रम चल रहा है जिससे उसकी छवि खराब हो रही है। संघ की पृष्ठभूमि के कुछ नेताओं के उतावलेपन और बड़बोलेपन ने संघ को शक के दायरे में ला दिया है। इसलिए देश में यह बहस शुरू हो गई है कि गणवेश के साथ संघ अपनी विचारधारा भी बदले।
संघ की स्थापना 1925 में हुई थी। यानी आजादी से भी 22 साल पहले। इन 91 सालों में देश कितना बदल चुका है। देश ने आजादी पाई, लोकतंत्र की नई हवा में सांस ली। पहले 30 साल तक एक पार्टी का शासन, फिर मिलीजुली सरकारें और लम्बे समय बाद फिर एक पार्टी को केन्द्र में बहुमत। बीते नौ दशकों में मुद्दों से लेकर नीतियों तक और विचारधाराओं से लेकर लोकतंत्र में काम करने की शैली तक बदल चुकी है। गणवेश में बदलाव का कदम बदलावों की श्रंृखला का एक पड़ाव हो सकता है लेकिन दूसरे बदलावों को अमल में लाने की जरूरत है। उम्मीद है संघ के कर्ता-धर्ता भविष्य में दूसरे अहम बदलावों को भी मंजूरी देकर परम्परा को आगे बढ़ाएंगे। ऐसे दौर में संघ अपनी कार्यशैली और सोच में और बदलाव लाता तो अच्छा होता। दुनिया भले अब भी भौगोलिक सीमाओं में बंटी हुई हो लेकिन हकीकत में यह बाजार में बदल चुकी है। लोगों की प्राथमिकताएं बदली हैं तो जीवन के प्रति नजरिए में भी बदलाव आया है। ऐसे में संघ अपने आप में व्यापक बदलाव लाए तो अच्छा रहे। यह भले एक दिन में नहीं हों और न एक साल में। संघ देश में सबसे बड़ा गैर राजनीतिक संगठन होने का दावा करता है तो उसे इस बदलाव की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए। उसे विचार करना चाहिए कि युवाओं को संगठन से कैसे जोड़ा जाए? विचार इस बात पर भी होना चाहिए कि क्या आज के आर्थिक युग में हिन्दुत्व जैसे मुद्दों के मुकाबले दूसरे मुद्दे संघ के एजेण्डे में ऊपर नहीं होने चाहिए?
राष्ट्रवाद की जो परिकल्पना 91 साल पहले थी, क्या वह अब भी उसी रूप में रहनी चाहिए? संघ को इस बात का मूल्यांकन भी करना चाहिए कि राष्ट्रवाद का अर्थ क्या सिर्फ हिन्दुत्व तक सीमित रह जाना है या फिर 125 करोड़ देशवासियों को साथ लेकर चलने की कला को और विकसित करने की आवश्यकता है। मप्र किसान आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र पाठक कहते हैं कि मैं तो गुरुजी के समय से ही संघ में सक्रिय हूं, 50 साल हो चुके हैं। मैंने देखा है समय के साथ संघ भी बदल रहा है। संघ की विचारधारा राष्ट्रवादी है। जहां तक गणवेश की बात है तो अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने खाकी नेकर बदलने का निर्णय किया सो ठीक है लेकिन हमारी व्यक्तिगत राय है कि हाफ पैंट संघ की पहचान बन चुका है।
भागवत की चिंता
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं कि संघ धीरे-धीरे बदल रहा है। इसके लिए सर संघ चालक बनते ही मोहन भागवत सक्रिय हो गए थे। भागवत की चिंता वाजिब थी। विचारधारा के स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सत्ता से समझौता किया और सत्ता ने विचारधारा को दूसरे दर्जे पर ला पटका। मोहन भागवत को लगा कि विचारधारा को, जो उनकी ताकत थी, कमजोरी बनाकर सत्ता ने प्रचारित किया। सत्ता ने जो किया सो किया, खतरा तब और बढ़ गया, जब सत्ता में काबिज उनके स्वयंसेवक भी मानने लगे कि विचारधारा भाजपा व संघ परिवार को कमजोर कर रही है। एक वर्ग ऐसा भी पैदा हो गया, जो यह कहने लगा है कि भाजपा को इस विचारधारा से किनारा कर लेना चाहिए। लिहाजा भागवत बेचैन हो गए है। मोहन भागवत यह भी जानते है कि भारतीय समाज 1992 से काफी आगे निकल गया है और हिंदुत्व, जो एक समय में हिंदुओं को लामबंद करने का सबसे बड़ा कारण बना था, अब उसके प्रति आकर्षण कम होने लगा है। संघ की शाखाओं की संख्या घटने लगी। शाखाओं में आने वाले भी कम होने लगे। इस अनाकर्षण के दो कारण समझ में आए। एक, संघ की नजर में सेकुलरवादी प्रोपेगेंडा ने उनका सबसे ज्यादा नुकसान किया। उनके मुताबिक, हिंदुत्व को सांप्रदायिकता का पर्याय बना दिया गया। दो, संघ परिवार और उनसे जुड़े संगठनों को हिंसा और असहिष्णुता से भी जोड़ा जाने लगा। अयोध्या आंदोलन के दौरान भी काफी हिंसा हुई थी। उस समय हुए दंगों के लिए भी संघ परिवार को ही जिम्मेदार माना गया। गुजरात दंगों ने संघ परिवार को बुरी तरह से एक्सपोज कर दिया। वह पहला दंगा था, जो टीवी के सामने हुआ था और जैसा टीवी का स्वभाव है, उसने दंगों के लिए संघ परिवार को सीधे कठघरे में खड़ा कर दिया। ऐसी स्थिति में संघ की असली चुनौती वस्त्र नहीं, विचारधारा को अपडेट करना है। संघ के आलोचक उसे गुजरते जमाने का बताते रहें हैं। संघ महासचिव भैयाजी जोशी ने संघ को समय के साथ चलने वाला बताया है। संघ ये तो मान कर चल रहा है कि जातिवाद ही उसके हिंदू एजेंडे की राह में बड़ा रोड़ा है और इसीलिए इस बार भी कार्यकर्ताओं से आने वाले दिनों में इसको लेकर मुहिम तेज करने को कहा गया है। बताते हैं कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कार्यकर्ताओं से जातिगत भेदभाव और इसे रोकने के उपायों पर प्रजेंटेशन तैयार करने को भी कहा है। करीब साल भर पहले संघ ने हिंदुओं की एकता बनाए रखने के लिए नारा दिया था एक कुंआ, एक मंदिर और एक श्मशान। इतना ही नहीं पिछले ही महीने संघ की ओर से बुलाई गई एक मीटिंग में संतों और मठों के प्रमुखों को छुआछूत और जातिगत भेदभाव रोकने के उपाय करने को कहा गया।
यहां तक तो सब स्पष्ट है, लेकिन आरक्षण को लेकर संघ की ओर से रह रह कर जो तीर छोड़े जा रहे हैं वे कई तरह के सवाल पैदा कर रहे हैं। बिहार चुनाव के वक्त मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। कुछ दिन बाद भागवत ने यू टर्न लेते हुए कहा है कि आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए जब तक की हर तबके को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं हो जाता। अब फिर से संघ ने आरक्षण का मामला उछाल दिया है, वो भी तब जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। इस बार संघ की ओर से समझाने की कोशिश की गई है कि जिन लोगों को आरक्षण की जरूरत नहीं उन्हें उसे छोड़ देना चाहिए। शायद वैसे ही जैसे लोग एलपीजी सब्सिडी छोड़ रहे हैं। चुनावी माहौल में आरक्षण का मुद्दा उछाल कर क्या संघ भाजपा को कोई लाइन दे रहा है या फिर ये भी उसके किसी हिडेन एजेंडे का हिस्सा है। वैसे तो संघ हर दम विरोधियों के निशाने पर रहा है भाजपा के सत्ता से बाहर रहने पर उसे भगवा आतंकवाद जैसे इल्जाम झेलने पड़ते हैं तो उसके सत्ता में आने पर विचारधारा थोपने की तोहमत लगती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की यूनिफार्म में प्रस्तावित बदलाव पर कुछ वरिष्ठ स्वयंसेवकों का कहना है कि गणवेश में बदलाव तो पहले भी हुए हैं, विचारधारा में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। एक स्वयंसेवक का सुझाव है कि अब अगला बदलाव संघ की भाषा को लेकर भी होना चाहिए, क्योंकि अब विशुद्ध हिंदी के साथ ज्यादा लोगों तक पहुंचने के लिए अंग्रेजी को भी अपनाना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक राधेश्याम मालवीय कहते हैं कि संघ को मैं 38 साल से देख रहा हूं, गणवेश में पहले भी परिवर्तन हुए हैं। पहले खाकी शर्ट बदली, टोपी में बदलाव हुआ, छह साल पहले बेल्ट बदला। खाकी नेकर को बदलने के लिए 5 साल से चर्चा चल रही थी। वहीं भोपाल के कांतिलाल चतर कहते हैं कि इससे नई पीढ़ी को संघ से जुडऩे में संकोच नहीं होगा। समय के हिसाब से परिवर्तन जरूरी था। ये ब्राउन पैंट भी धीरे-धीरे खाकी की तरह पहचान बन जाएगी। संघ के मालवा प्रांत के प्रमुख प्रकाश शास्त्री कहते हैं कि यह कहना सही नहीं है कि हम युवाओं को आकर्षित करने कपड़े बदलने का फैसला किया है। अगर युवा संघ की विचारधारा से सहमत न हों तो वह केवल कपड़े की वजह से संगठन के साथ ज्यादा देर नहीं रह सकते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जुनून के साथ काम करने वाली संस्था है और अगर युवा संघ के विचारों को स्वीकार कर लें तो वह लंबे समय तक उसके साथ रह सकते हैं।
स्वयंसेवकों पर आर्थिक बोझ
संघ ने गणवेश में परिवर्तन कर स्वयंसेवकों पर आर्थिक बोझ तो डाला है लेकिन नीति-निर्धारक कमेटी संगठन की आर्थिक नीति में नए युग के साथ क्या परिवर्तन होना चाहिए, इस पर विचार से बचती रही या उजागर नहीं करना चाहती। आखिर लाखों स्वयंसेवक 100 रु. की नेकर की जगह 400 रुपए की पतलून कहां से खरीदेंगे? क्या सरकारों से इस प्रकार के कपड़े पर सब्सिडी मांगी जाएगी? क्या किसी मिल से इस तरह का कपड़ा तैयार करने का अनुबंध हुआ है?
-ऋतेन्द्र माथुर