03-Apr-2013 10:32 AM
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मध्यप्रदेश में भ्रष्ट नौकरशाही और लोक सेवकों को खुली छूट मिली हुई है वे खुलकर भ्रष्टाचार कर सकते हैं और उन्हें बचाने के लिए भरसक कोशिश की जाती है। खास बात यह है कि कुछ छोटे-मोटे अधिकारियों पर दिखावे की कार्रवाई केवल इसलिए की जाती है कि जनता में संदेश जाए कि सरकार भ्रष्टाचार के प्रति नरम रुख नहीं अपना रही है। सबसे पवित्र लोकतंत्र के मंदिर में ब्यूरोक्रेसी को बचाने के लिए झूठ बोला जाता है, मक्कारी की जाती है, प्रपंच रचे जाते हैं, गलत आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं। जिम्मेदार मंत्री से लेकर विधायक तक हर जगह झूठ का बोलबाला है और इसके बावजूद भी यह कहा जा रहा है कि मध्यप्रदेश स्वर्णिम होने वाला है। इस कथित चमचमाते मध्यप्रदेश की काली सच्चाई से शायद ही कोई वाकिफ हो। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि छोटे कर्मचारियों से लेकर प्रशासनिक अधिकारी और मंत्री तक सब भ्रष्टाचार की गंगा में आकंठ डुबकी लगा चुके हैं, लेकिन कुछ छोटे-मोटे कर्मचारियों-अधिकारियों पर कार्रवाई कर दिखावा किया गया है। कभी

मुख्यमंत्री ने कहा था कि भ्रष्टाचारियों की संपत्ति राजसात कर उनमें स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र खोले जाएंगे। लेकिन आज तक यह एक सपना ही बना हुआ है भ्रष्टाचारी अपने भव्य प्रासादों में मौज कर रहे हैं और आम जनता उसी तरह बेहाल परेशान है। सिर्फ अरविंद जोशी, टीनू जोशी वाले मामले में सरकार ने सख्त रुख दिखाया है। उसकी वजह आयकर छापे में करोड़ों की नगदी एवं संपत्ति जो मिली है। इस छापे की कार्रवाई के कारण सरकार की नाक कट चुकी है। वरना स्वयं मुख्यमंत्री गत वर्ष दिसंबर माह में विधानसभा में बता चुके हैं कि लोकायुक्त संगठन में जनवरी 2010 से दिसंबर 2011 तक 8,640 शिकायतें प्राप्त हुई हैं, किंतु किसी भी शिकायत पर आपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं किया गया। इतनी बड़ी तादाद में मिली शिकायतें सारी की सारी गलत थी या इस लायक नहीं थी कि संबंधित अधिकारियों के विरुद्ध प्रकरण दर्ज किए जाते। इसी से सिद्ध होता है कि नौकरशाही ने अपने आपको बचाने की पूरी तैयारी कर रखी है।
छोटी से छोटी खरीद से लेकर बड़े से बड़े प्रोजेक्ट में अरबों का भ्रष्टाचार हुआ है। कई अधिकारी दोषी पाए गए हैं, लेकिन उनको बचाने के लिए विधानसभा में भी झूठ बोलने से हमारे मंत्री बाज नहीं आए। इसी कारण झूठ से भरपूर माहौल में सच क्या है यह तलाशना लगभग असंभव ही है। आलम यह है कि भ्रष्टाचार भरे वातावरण में ईमानदारों को तलाशना वैसे ही मुश्किल है जैसे गहरे समुद्र में से मोती निकालना। यही कारण है कि घोषणावीर मुख्यमंत्री तो भावावेश में आकर घोषणाएं कर बैठते हैं लेकिन उनकी घोषणाओं पर अमल करने वाले मलाई खाने के आदी है वे मलाई खाकर एक तरफ हो जाते हैं और घोषणाएं कागजी बन जाती हैं। यही हाल रहा तो शिवराज सिंह नौकरशाही की बदौलत अपूर्ण घोषणाओं का विश्व रिकार्ड भी बना लेंगे। जो प्रशासनिक अधिकारी विधानसभा में मंत्रियों से झूठ बुलवा सकते हैं वे मुख्यमंत्री को भी उनकी घोषणाओं पर अमल के बारे में गलत जानकारी दे सकते हैं। इस बार विधानसभा के बजट सत्र के दौरान झूठ के पुलिंदे की कलई खुलती दिखाई दी। विधानसभा में कई ऐसे प्रश्न अनुत्तरित रह गए जिनके एवज में जानबूझकर गलत जवाब दिए गए। भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए इंसानियत का हर मापदंड ताक पर रख दिया जाता है और दो करोड़ 44 लाख 77 हजार 940 रुपए की वित्तीय अनियमितता करने वाले अधिकारी को एक दशक तक बचाया जाता है। लेकिन उसके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं होती। यह अतिश्योक्ति नहीं है। बल्कि विधानसभा में दिए जा रहे तमाम गलत उत्तरों में से एक मात्र उदाहरण है। खंडवा जिले में जिला शिक्षा एवं प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम-डीपीआईपी में पदस्थ जिला परियोजना समन्वयक शिशिर पुरोहित को बचाने के लिए विभाग ने सारे नियम कानूनों को ताक में रखकर लगातार 10 वर्ष तक प्रदेश की सर्वोच्च संस्था विधानसभा को गुमराह किया। बल्कि दोषी अधिकारी को विभागीय जांच की कार्रवाई पूरी होने से पूर्व ही उसके गृह जिले खंडवा में पदस्थ कर पुरस्कृत किया गया। इस संबंध में विधायक लोंकेंद्र सिंह तोमर ने स्कूल शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनीस से वर्ष 2009 में शीत सत्र में प्रश्न कर जानना चाहा था कि वित्तीय अनियमितता के लिए निलंबित इस अधिकारी के विषय में शासन ने क्या कार्रवाई की है, लेकिन विधानसभा में गलत उत्तर दिया गया। गंभीर वित्तीय अनियमितताओं की जानकारी तो वर्ष 2000 में ही सामने आ गई थी पर 4 वर्ष बाद 2004 में उक्त अधिकारी को निलंबित किया गया।
विभागीय जांच करने का निर्णय वर्ष 2006 में लिया गया और इस विभागीय जांच में जांच अधिकारी ने बिना अभिलेख देखे दोषी को बचाने का प्रयास किया लेकिन न तो शासन ने दोषी जांच अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्रवाई की और न ही 8 मार्च 2010 को विभागीय उत्तर (प्रश्न क्रमांक 1823) गलत देने के दोषी व्यक्ति दंडित हुए। यह जानकारी प्रश्न एवं संदर्भ समिति के प्रतिवेदन में दी गई है। प्रतिवेदन में बताया गया है कि मामला जितना गंभीर था शासन की कार्रवाई उतनी ही ढीली थी। विभाग भी इस मामले में सदन को सही और समय सिद्ध जानकारी नहीं दे पाया। इतना ही नहीं विभागीय जांच का निर्णय जब जनवरी 2006 में लिया गया तो कछुआ चाल से जांच करते हुए जांच अधिकारी ने अपना प्रतिवेदन अगस्त 2006 में 8 माह बाद सौंपा, लेकिन कछुआ चाल घोंघा चाल में बदल गई और जांच पूर्ण होने के तीन वर्ष बाद जनवरी 2009 में उक्त अधिकारी को नोटिस दिया गया। जब विधानसभा में पहला प्रश्न 2009 के शीर्ष शत्र में पूछा गया तो उसमें भी यही बताया गया कि प्रकरण में व्यक्ति सुनवाई की कार्रवाई की गई। इसका अर्थ यह हुआ कि नोटिस के बावजूद मामला नवंबर माह में प्रश्न आने तक टाला गया। लेकिन यह टालमटोल यहीं नहीं रुकी 2010 के मार्च माह में जब विधायक लोकेंद्र सिंह तोमर ने कार्रवाई किए जाने संबंधी प्रश्न पूछा तो उसके उत्तर में बताया गया कि शिशिर पुरोहित के विरुद्ध विभागीय जांच जारी है, यह उत्तर भी गलत था क्योंंकि जांच 2006 में ही पूरी हो चुकी थी और पुरोहित को नोटिस देकर व्यक्तिगत सुनवाई का अवसर भी अगस्त 2009 में दिया जा चुका था पर उनको बचाने वाला तंत्र न मालूम क्यों बहुत सक्रिय था। जब विधायक तोमर इस मामले के पीछे पड़े और प्रश्न संदर्भ समिति ने भी मामले की गहराई से पड़ताल की तब कहीं जाकर नवंबर 2011 में पुरोहित को बर्खास्त किया गया एवं एफआईआर दर्ज कराने के लिए कलेक्टर को लिखा गया। इसका अर्थ यह हुआ कि पूरे 11 वर्ष लगे एक मामूली से परियोजना समन्वयक को सजा मिलने में। जब एक छोटा भ्रष्टाचारी इतना शक्तिशाली है कि उसके पक्ष में मंत्री से लेकर तमाम अधिकारी तक लामबंद हो जाते हैं और उसको सजा से बचाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा देते हैं तो भ्रष्ट आईएएस अफसरों से लेकर भ्रष्ट मंत्रियों तक को बचाने के लिए किस तरह की कोशिशें की जाती होंगी और विधानसभा को किस तरह गुमराह किया जाता होगा इसकी मात्र कल्पना की जा सकती है। यही कारण है कि भ्रष्टाचार के आरोपों में तमाम बड़े अधिकारियों के नाम होने के बावजूद वे चैन की बंसी बजा रहे हैं। उन्हें मालूम है कि सदन को गुमराह कर उन्हें बचाने वाले जब तक मौजूद हैं तब तक उनका बाल भी बांका नहीं हो सकता। सदन को गुमराह करने और गलत उत्तर देकर भ्रष्टों को बचाने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है विश्वास सारंग द्वारा प्राचार्यों के चयन में हुई अनियमितता से संबंधित एक प्रश्न का उत्तर भी सदन में स्कूली शिक्षा मंत्री अर्चना चिटनीस ने गलत दिया था। उच्चतर माध्यमिक विधालयों में फर्जी प्रमाण पत्र सहित अन्य गलत दस्तावेजों की दम की पर चयनित हुए इन प्राचार्यों के चयन में अनियमितता हुई है। अनियमितता की जांच भी हुई। एक जांच समिति के सदस्यों के सेवा-निवृत्त एवं अन्यत्र पदस्थी के बाद दूसरी जांच समिति भी बनाई गई। बाद में तीन अपात्र पाए गए प्राचार्य निलंबित भी हुए और विभागीय जांच भी हुई। फिर भी प्रशासनिक अधिकारियों की मेहरबानी से दिनांक 23 जुलाई, 2010 को शिकायकर्ता के प्रश्न क्रमांक-1388 के कÓ भाग का जो उत्तर सदन में दिया गया उसमें यह कहा गया था कि प्राचार्य के चयन में अनियमितता नहीं हुई और न ही अपात्र शिक्षक प्राचार्य बनाये गये? यही नहीं विधायक द्वारा प्रश्न का उत्तर गलत बताए जाने के बाद भी समिति को सही तथ्यों से अवगत नहीं कराया गया और मौखिक साक्ष्य में यहां तक कहा गया कि प्राचार्यों की और से न्यायालय में प्रकरण चलने के कारण इस संबंध में बिंदुवार उत्तर देने के संबंध में परेशानी हो रही है। जबकि सच्चाई इसके विपरीत थी। न्यायालय में प्राचार्य ने नहीं पीडि़त ने अपना पक्ष रखा था। मौखिक साक्ष्य में विभागीय प्रमुख सचिव ने झूठ ही कह दिया कि इस मामले में एक दोषी प्राचार्य श्यामनारायण शर्मा को न्यायालय से स्थगन मिला है इसलिए उनके विरुद्ध कार्रवाई नहीं हो पा रही है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि ऐसा कोई स्थगन मिला ही नहीं था। इससे सिद्ध होता है कि विधानसभा को तो गुमराह किया ही गया, विधानसभा के साथ-साथ प्रश्न संदर्भ समिति के समक्ष भी गलत बयानी की गई। भ्रष्टाचार का और पक्षपात का इससे उत्कृष्ट उदाहरण अन्यत्र देखने को नहीं मिलेगा। दोषियों के साथ सहानुभूति हर एक विभाग की खासियत है और दोषियों का पक्ष लेकर लोकतंत्र के मंदिर विधानसभा में झूठ बोला जाता रहा है। महिला एवं बाल विकास विभाग के मामले में ही जब सत्तापक्ष के विधायक गिरिजा शंकर शर्मा ने होशंगाबाद जिले में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की नियुक्ति के संबंध में हुई गड़बड़ी से संबंधित सवाल पूछा तो उन्हें भी गलत जवाब दिया गया। होशंगाबाद जिले में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं/ सहायिकाओं की नियुक्ति के लिए वर्ष 2009 में विज्ञापन निकला था जिसमें योग्यता स्नातक मांगी गई थी, लेकिन जब नियुक्तियां की गईं तो जो अभ्यर्थी स्नातकोत्तर थे उन्हें पांच अतिरिक्त अंक देकर अन्य अभ्यर्थियों पर वरीयता प्रदान करते हुए नियुक्तियां कर दी गईं। खास बात यह है कि इस प्रकरण में पहले कुछ स्नातकों को नियुक्ति दे दी गई थी, लेकिन जिला महिला बाल विकास विभाग अधिकारी होशंगाबाद ने इस सूची को रद्द किया और स्नातकोत्तरों को नियुक्ति दे दी। जब मामले की शिकायत हुई तो भी अधिकारी नहीं माने।
विधानसभा में प्रश्न उठा तो गलत जानकारी दी गई कि इस संबंध में कोई गलती नहीं हुई। जब शिकायतकर्ता ने नर्मदापुरम संभाग जिला होशंगाबाद को अपील की तो आयुक्त ने स्नातक सूची को ही सही मानकर फैसला दिया और स्नातकोत्तर की नियुक्तियों को निरस्त किया। आयुक्त के फैसले के बाद नियुक्तियां रिवाइज की गई। लेकिन दुख तो इस बात का है कि इस मामले पर भी दोषियों पर कार्रवाई नहीं की गई। जिन अधिकारी महोदय की कृपा से विधानसभा में गलत उत्तर दिया गया उनमें से भी किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। झूठ का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए यह कह दिया गया कि मामले की जांच प्रचलन में है। अभी तो न जांच हुई है और न दोषियों पर कार्रवाई हुई है। खास बात तो यह है कि जिन अधिकारियों ने गड़बड़ी की थी उनको सद्भावनापूर्ण त्रुटि कहकर दोषमुक्त भी कर दिया गया। प्रश्न यह है कि दोषियों की पक्षधरता का यह कौन सा तंत्र है। क्यों उन अधिकारियों को वर्ष-दर-वर्ष बचाया जाता है जो भ्रष्टाचार कर शासन को चूना लगाते रहते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं। भ्रष्टाचारियों को सुरक्षा कवच किन कारणों से मिलता है यह समझ से परे है। रीवा जिले की नगर पंचायत मनगवां में 2009 में पदस्थ तत्कालीन मुख्य नगर पालिका अधिकारी हरिमित्र श्रीवास्तव के विरुद्ध भी गलत दस्तावेज तैयार कर मनमानी लाभ लेने का आरोप है लेकिन उनके खिलाफ ठोस कार्रवाई कब होगी यह पता नहीं। खास बात यह है कि भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए मशीनरी उन कानूनों और अधिकारों से लैस नहीं हैं कहने को तो लोकायुक्त, आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो से लेकर कई केंद्रीय और राज्य स्तरीय संस्थाएं मौजूद हैं, लेकिन उनकी नाक के नीचे भ्रष्टाचार होता रहता है। लोकायुक्त तथा ईओडब्ल्यु द्वारा की जाने वाली कार्रवाई के संबंध में कोई दिशा-निर्देश परिपत्र इत्यादि प्रथक से जारी नहीं किए गए हैं। यह बात स्वयं मुख्यमंत्री ने विधानसभा में बताई है। यदि किसी व्यक्ति के खिलाफ सूचना मिलती है तो पहले न्यायालय से सर्च वारंट प्राप्त किया जाता और फिर छापे की कार्रवाई की जाती है। इस दौरान अधिकारियों को बच निकलने का पूरा मौका मिलता है बल्कि वे तो पदोन्नति से लेकर मनचाही जगह नियुक्ति का भी लाभ उठाते हैं। भोपाल में ही कई ऐसे अधिकारियों को पदोन्नति का लाभ दिया गया जिनके विरुद्ध अभियोजन की स्वीकृति के प्रस्ताव प्राप्त हुए थे। बहुत से मामलों में तो विभागीय जांच के नाम पर लीपापोती कर ली जाती है। कई मामलों में अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा की जाती है, लेकिन यह नहीं बताया जाता कि यह किस प्रकार की कार्रवाई है। नरेगा-मनरेगा के तहत 85 भ्रष्टाचार के प्रकरणों में जांच की गई हैं जिनमें से 25 में अधिकारियों को प्रथम दृष्टया दोषी भी पाया गया है। उसमें से सारे आईएएस अफसरों को दोषमुक्त मान लिया गया। इससे पता चलता है कि भ्रष्टाचार का दल-दल लगातार फैलता जा रहा है। ईओडब्ल्यु और लोकायुक्त के पास भी कई बड़े अधिकारियों के विरुद्ध मामले दर्ज हैं। उधर 2007 से आयकर विभाग द्वारा प्रदेश में छापे की बयार आई सबसे पहले स्वास्थ्य विभाग के तत्कालीन स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा और उनके सहयोगी अशोक नंदा के यहां छापे मारे गए जिसमें करोड़ों रुपए नगद एवं करोड़ों की अनुपातहीन संपत्ति बरामद हुई। उसके बाद 2008 में फिर आयकर विभाग द्वारा एक बड़ी कार्रवाई कर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अजय विश्नोई आयुक्त डॉ. राजेश राजौरा संचालक डॉ. अशोक शर्मा एवं मंत्री, संचालक और आयुक्त के सहयोगियों के यहां छापे डालकर प्रदेश में भ्रष्टाचार से कमाई संपत्ति पर डाका डाल दिया। वहीं आईएएस दंपत्ति अरविंद जोशी एवं टीनू जोशी के ठिकानों पर छापे डालकर प्रदेश में सनसनी फैला दी। परंतु प्रदेश में विशेष न्यायालय का गठन हुए एक वर्ष भी ज्यादा हो गया इस विशेष न्यायालय में अगर देखा जाए तो आईएएस दंपत्ति और छोटे-मोटे पांच लोगों पर कार्रवाई हुई हैं, वहीं राज्य सरकार की स्वास्थ्य विभाग से जो बदनामी हुई है उन अधिकारियों पर विभाग द्वारा कोई भी प्रकरण विशेष न्यायालय को नहीं भेजा गया। इससे साफ नजर आता है कि स्वास्थ्य विभाग के मंत्री और आला अफसर अपने अधिकारियों को बचाने में लगे हुए हैं। अभी हाल ही में विभाग के प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण की शिकायत उन्हीं के अवर सचिव ने मुख्य सचिव से कर डाली। बाद में उक्त महिला अवर सचिव को स्वास्थ्य विभाग से हटाकर भ्रष्टाचार का रास्ता साफ कर दिया। डॉ. अशोक शर्मा के प्रकरण पर अवर सचिव को विभाग से निकाल तो दिया साथ ही डॉ. अशोक शर्मा को पुन: निलंबित कर दिया। परंतु लोकायुक्त में दर्ज एफआईआर में तत्कालीन प्रमुख सचिव मदन मोहन उपाध्याय, डॉ. राजेश राजौरा, अजय विश्नोई के भी नाम थे किंतु लोकायुक्त ने सिर्फ डॉ. अशोक शर्मा को दोषी मानते हुए उनके ऊपर चालान प्रस्तुत किया गया।
फिर इस प्रकरण में दो अधिकारी एवं एक मंत्री को बचा लिया गया। इसी तरह डॉ. योगीराज शर्मा (निलंबित) को विभागीय जांच आयुक्त द्वारा दोषी पाए जाने के बाद अब लोक सेवा आयोग से उनकी बर्खास्तगी के विषय में सहमति मांगी गई है जो कि पिछले 20 दिनों से भोपाल और इंदौर के बीच झूल रही है। भ्रष्टों को बचाना राज्य सरकार का शगूफा हो गया है।
अधिकारियों को दंडित करें
विधानसभा की प्रश्न एवं संदर्भ समिति ने चार वरिष्ठ आईएएस अफसरों को भ्रामक जानकारी देने पर दंडित करने की अनुशंसा मुख्य सचिव आर परशुराम से की है। समिति ने लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के तत्कालीन पदेन सचिव जेएन कंसोटिया, अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव प्रभाकर बंसोड़ और स्कूल शिक्षा विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव रजनीश बैश की कार्यप्रणाली पर भी टिप्पणी की है।
भ्रष्टाचार के जो प्रकरण आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ में दर्ज हैं उनकी जानकारी विधानसभा में दी जा चुकी है।
- रमेश शर्मा, महानिदेशक
आर्थिक अपराध प्रकोष्ठ
भ्रष्टाचार के प्रकरणों में वर्ष 2011 में 66 चालान प्रस्तुत किए गए और 70 करोड़ रुपए की नगद राशि बरामद हुई। वर्ष 2012 में 127 चालान प्रस्तुत किए गए और 110 करोड़ रुपए की राशि बरामद हुई।
- अशोक अवस्थी, आईजी, लोकायुक्त