16-Mar-2016 08:19 AM
1234784
2013 में सत्ता में आई वसुंधरा राजे यानी महारानी की सरकार को विरासत में दो लाख करोड़ का कर्ज मिला था और सरकार के खजाने में भी दम नहीं था। स्थिति चिंताजनक थी। ऐसे आर्थिक हालात में भी महारानी ने सरकार को शाही अंदाज

से चलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इसका खामियाजा यह हो गया कि राजस्थान सरकार आज कंगाली के द्वार पर खड़ी है। राजस्थान के आर्थिक हालात चिंताजनक हैं। रिजर्व बैंक में राज्य सरकार के खाते में महज 50 करोड़ रुपए बचे हैं। ऐसे में आमजन की शिक्षा और सेहत सहित अन्य विकास योजनाओं पर कैंची चलना तय है। राज्य सरकार द्वारा मंगलवार को पेश बजट में राज्य के यही हालात बयां हो रहे हैं। सरकार ने आगामी बजट में विश्वविद्यालयों को मदद के साथ रोजगार, पेयजल, शहरी विकास, सड़क, ग्रामीण पर्यटन, स्वास्थ्य, गरीबों को आवास से लेकर खेल तक की अनेक योजनाओं पर खर्च घटाने की मंशा भी जाहिर कर दी है।
सरकार के खाते में पिछले साल 1 अरब 16 करोड़ रुपए शेष थे। इस बार लक्ष्य 2 अरब 90 करोड़ से ऊपर ले जाने का था। अब हालत विपरीत हैं। रिजर्व बैंक में सरकार की नकदी बढऩा तो दूर घटकर आधी से भी कम रह गई है। वर्तमान सरकार के पास 50 करोड़ 65 लाख रुपए की नकदी ही शेष है। इस बार भी सरकार ने आगामी वित्तीय वर्ष में जमा शेष को एक अरब 29 करोड़ रुपए से अधिक करने का संकल्प किया है। अहम यह भी है कि सरकार इस बार बेहद घाटे में है। राजकोषीय घाटा 9.9 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया है। जबकि कानूनन यह 3 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। इसी प्रकार उदयपुर के कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि, बीकानेर के स्वामी केशवानंद विवि, नर्मदा परियोजना व लघु सिंचाई कार्ययोजना, पर्यटन स्थलों के विकास और राजीव गांधी खेल अभियान को भी तय बजट से कम राशि मिलेगी। अन्तरजातीय विवाह, सड़क आधुनिकीकरण, मनरेगा, नि:शुल्क दवा और नि:शुल्क जांच योजना, कौशल एवं आजीविका मिशन, बेरोजगारी भत्ता योजना, ग्रामीण न्यायालय के बजट में भी कटौती की गई है। केंद्र सरकार ने आम बजट में राज्यों को दिए जा रहे धन में कटौती के संकेत दिए है। ऐसे में राजस्थान के हिस्से केंद्र के रास्ते आ रही सहयोग राशि में कमी की पूरी संभावना है। मोटे अनुमानों के तौर पर पिदले साल के मुकाबले करीब सात फीसदी कम धनराशि इस वर्ष केंद्रीय सहयोग से राजस्थान में संचालित योजनाओं में होगी।
हर बिजली उपभोक्ता पर
69 हजार का कर्ज!
बिजली का बिल जमा कराने के बावजूद प्रदेश के हर उपभोक्ता पर 69 हजार रूपए का कर्ज! चौंकिए मत, ये आंकड़ा उपभोक्ता की गलती नहीं, राजस्थान डिस्कॉम में कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार के चलते जा पहुंचे 72 हजार करोड़ रूपए के कर्ज का है। राजस्थान डिस्कॉम्स की दूसरे राज्यों से की गई आर्थिक समीक्षा में ये तथ्य सामने आए। हरियाणा में 43,406, पंजाब में 24,738, उत्तर प्रदेश में 24,198, मध्यप्रदेश में 20,437 रूपए का प्रति कनेक्शन कर्ज है। कर्ज से हर यूनिट पर ब्याज का भार भी राजस्थान में अधिक बैठ रहा है। डिस्कॉम अब इस कर्ज को प्रत्येक उपभोक्ता के हिसाब से दर्शाकर बिजली की दरों में बढ़ोतरी की तैयारी में जुटी हुई है। सूत्रों के अनुसार इसे आधार बना बिजली बिल में 15 से 20 फीसदी का इजाफा होगा। घोटालों पर साधी चुप्पी समीक्षा में डिस्कॉम्स ने सस्ते बिजली उत्पादन स्रोत, सालाना घाटे के अलावा प्रति यूनिट पर देय ब्याज के हिसाब से अन्य राज्यों की खुद से तुलना कर स्थिति को बयां की है, लेकिन सामने आ चुके घोटालों पर चुप्पी साध रखी है।
विकास पर कम होगा खर्च
राज्य सरकार कच्चे तेल की कीमत में कमी, केन्द्र? से मिलने वाली हिस्सा राशि घटने और बिजली कंपनियों के घाटे के भार के कारण आर्थिक हालात बिगडने का तर्क दे रही है। जमीनी हकीकत यह है कि कई योजनाओं में तो आवंटित बजट खर्च ही नहीं हुआ है। संशोधित बजट अनुमान में कई योजनाओं का आकार भी घटाया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार योजनाओं को धन मिले या नहीं मिले, लेकिन जो मिला है उसे खर्च करना ही समझदारी है। सरकार ने गत वर्ष बजट में राजस्व जुटाने का जो लक्ष्य तय किया था, वह भी इस बार पूरा नहीं हो सका। इस पैसे से तो वेतन बांटना ही मुश्किल होगा। उत्पादकता पर जोर के साथ उपयोगिता भी दिखनी चाहिए। पिछली घोषणाएं पूरी नहीं हुई। मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे ने बजट बहस का जवाब देते हुए कहा कि यह पूर्ववर्ती सरकार के लचर वित्तीय प्रबन्धन का ही परिणाम है। उन्होंने कहा कि वर्ष 2013-14 की समाप्ति पर राज्य पर कुल खर्च 1 लाख 47 हजार करोड़ रुपए हो गया है। अगर इसमें बिजली कम्पनियों तथा राजस्थान राज्य पथ परिवहन निगम का कर्ज भी शामिल कर लिया जाए तो कुल कर्ज 2 लाख 90 हजार करोड़ रुपए हो जाता है। ऐसी कठिन परिस्थिति में भी हम सबको साथ लेकर और सबके विश्वास से जनआकांक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करेंगे। मुख्यमंत्री के विधानसभा में स्पष्ट संकेत के बाद संभव है कि योजनागत व्यय में कटौती की जा सकें। साथ ही उन योजनाओं की समीक्षा भी सीएमओ स्तर पर की जा सकती है जिनमें आवश्यकता से अधिक खर्च हो, लेकिन परिणाम बेहद कम हो।
-जयपुर से आर.के. बिन्नानी