विदर्भ कब तक सहेगा अन्याय
16-Mar-2016 07:45 AM 1234824

कर्ज माफी अगर किसानों को आत्महत्या से रुक जाती तो, अब तक किसी किसान की आत्महत्या की खबर नहीं आती। दरअसल, कर्ज माफी किसानों की समस्याओं का हल नहीं है और न ही किसी सरकार ने किसानों की असली परेशानी समझने में अपना समय व्यय किया है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिरकार मेहनत करके खेती करने वाला विदर्भ का किसान कब तक सरकारी उपेक्षा का दंभ सहेगा। महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला थमा नहीं है, जबकि इसके पूर्व वाली सरकारों ने भी ढेर सारी कवायदें की। कागज रंगे। नतीजे में सिफर ही हाथ लगा। अब भाजपानीत सरकार है। किसानों के हित में फैसले देने वाली सरकार के नाम पर वो  सत्ता में बैठी है, और विपक्ष ठीक वैसे ही उलाहने दे रहा है जैसे  पहले ये लोग दिया करते थे। मुद्दा जस का तस है। किसान मर रहे हैं। वो आत्महत्या न करे, इसके लिए ठोस उपाय क्या हैं? फडऩवीस सरकार में मंथन चल रहा है।
महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या से सरकार या नेताओं के कान पर जूं तक रेंगी की नहीं लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट में इस पर चिंता जताई गई। 16 फरवरी को राज्य के महाधिवक्ता श्री हरि अणे सरकारी अधिकारियों पर जमकर बरसे। उन्होंने कहा कि मुंबई के एयरकंडीशंड कमरों में बैठे सरकारी अधिकारी किसानों से जुड़े मुद्दों को लेकर न्याय नहीं कर सकते। उन्होंने सरकार को भी कई नसीहतें दे डालीं। महाधिवक्ता ने बॉम्बे हाईकोर्ट में बताया कि पिछले डेढ़ माह में 124 किसानों ने आत्महत्या की। उन्होंने कहा कि किसान जब भीख मांगने की स्थिति में आ जाता है तभी आत्मसम्मान बचाने खुदकुशी जैसा कदम उठाता है। इतनी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या को देखते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि अब समय आ गया है कि राज्य के मुख्यमंत्री किसानों के मुद्दे देखने के लिए एक अलग प्रकोष्ठ बनाएं और उसकी निगरानी खुद करें।
हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से भी जानना चाहा है कि वह इस मामले में राज्य सरकार का किस तरह सहयोग करेगी। न्यायमूर्ति नरेश पाटील की खंडपीठ ने कहा कि जब अभी यह स्थिति है तो मई महीने में क्या हालत होगी। खंडपीठ ने सवाल किया कि सूखे की स्थिति के बावजूद सरकार ने चारा छावनी क्यों बंद की। अब समय आ गया है कि किसानों के मुद्दों को देखने के लिए मंत्रालय में एक अलग प्रकोष्ठ बनाया जाए और मुख्यमंत्री खुद उसकी निगरानी करें। महाधिवक्ता ने कहा कि मुंबई के एयरकंडीशंड कमरों में बैठे सरकारी अधिकारी किसानों से जुड़े मुद्दों को लेकर न्याय नहीं कर सकते। यदि कोई किसान आत्महत्या करता है तो उसके मरने की वजह जानने के लिए फोरेंसिक रिपोर्ट का इंतजार करने की बजाय उसे तुरंत 30 हजार रुपए की आर्थिक मदद देनी चाहिए। इतनी रकम देने से सरकार का कुछ नहीं बिगड़ेगा। 30 हजार रुपए की धोखाधड़ी के लिए कोई आदमी अपनी जान नहीं देगा।
सरकार के आंकड़ों में भी यह स्पष्ट है कि किसानों को बचाया नहीं जा रहा है, तब आखिर किसान बचे कैसे?  एक अच्छी बात यह है कि फडनवीस सरकार किसानों के हित के फैसले में परम्परागत तरीको पर काम नहीं कर रही है बल्कि तरह-तरह से विचार कर रही है। वह पवार पैटर्न से भी सोच रही है और कांग्रेस पैटर्न से भी, वह अपने द्वारा उठाये जाने वाले कदम पर भी विचार कर रही है। इससे लगता है कि कोई न कोई पुख्ता परिणाम निकलना चाहिए।
विकास की दूरदर्शी योजना नहीं
महाधिवक्ता ने कहा कि आज भी विदर्भ में जमीनी स्तर पर विकास की कोई ऐसी दूरदर्शी योजना नहीं है, जो असमानता दूर कर सके। विदर्भ का बैकलाग भी दूर नहीं हो सका। आखिर विदर्भ को कब तक उपेक्षा का दंश झेलना पड़ेगा। जरूरत है कि सरकार खाद्य प्रबंधन के लिए एक प्रभावी योजना बनाए। यदि किसान आश्वस्त रहेगा कि खराब परिस्थिति के बावजूद उसके परिवार को भोजन की परेशानी नहीं होगी, तो वह आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाएगा। उन्होंने कहा कि अपरवर्धा बांध में काफी पानी मौजूद है पर विदर्भ में नहर की व्यवस्था नहीं है। इससे इस पानी को हर जगह नहीं पहुंचाया जा सकता। इसलिए बांध का पानी एक बिजली कंपनी को बेच दिया गया है।
कर्ज माफी को ही एकमेव समाधान मानकर फडनवीस सरकार नहीं चल रही है। वह कर्ज माफी के पक्ष में तो है, किंतु इसके पहले वो किसानों के आर्थिक स्त्रोतो को बढ़ा देने के प्रति प्रयासरत है। एनसीपी प्रमुख शरद पवार का एक आइडिया अच्छा था, जिसे उन्हीं के शासनकाल में कांग्रेस ने लागू नहीं किया। जबकि इस बार बीजेपी सरकार किसानों का कर्ज माफ करने की बजाय उनकी आय के स्रोत बढ़ाने पर जोर देगी। ताकि किसानों को हर माह कुछ न कुछ आय होती रहे, जिससे वह आत्महत्या जैसे कदम न उठाएं। इसके अलावा सरकार ने उन सभी सुझावों का स्वागत किया है जो किसानों को आत्महत्या करने से रोकने में सहायक होंगे। यह कदम सराहनीय माने जा सकते हैं, अगर विपक्ष इसमें अपनी टांग न अड़ाए तो।
-बिन्दु ऋतेन्द्र माथुर

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