पत्थरों की मंडी में किसान नीलाम
16-Jan-2016 10:29 AM 1234811

जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर पहरा ग्राम पंचायत का व्यास कुंड ऐसा स्थान है जिसके जल स्त्रोत पूरे साल कुंड में पानी बनाए रखते थे। आसपास के गांव वाले भी कुंड के पानी से ही गुजर बसर करते लेकिन सूखे की विभीषिका ने इस पवित्र कुंड को भी निगल लिया। बारिश के दो महीने भीतर अक्टूबर में ही इसका पानी सूख गया। महोबा, बांदा, चित्रकूट व हमीरपुर में लगभग 85 फीसदी खेत ऊसर बन चुके हैं। किसानों के लिए तो कुछ बचा ही नहीं है। जिन मु_ी भर किसानों ने नलकूप से सिंचाई कर खेतों में बीज डाला है, उन पर लगातार होती चटख धूप ने काली छाया डाल दी। पहरा गांव के किसान नत्थू कहते हैं कि अब तो बीज भी वापस आने की संभावना नहीं दिखती। सीताराम का पुरवा निवासी देवकुमार यादव कहते हैं कि उनके पांच भाई के बीच 15 बीघा खेती है। कुछ खेती बटाई पर लेकर इतना अन्न पैदा कर लेते थे कि पूरे साल परिवार का गुजर बसर हो जाता था, लेकिन तीन साल से पड़ रहे सूखे ने पूरी तरह तोड़ दिया है।
सूखे की मार और उससे निपटने का इंतजाम न हो पाने के कारण देश बड़े हादसे की कगार पर है। खासतौर पर बुंदेलखंड के हालात बता रहे हैं कि केंद्र सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती सूखे से बेहाल बुंदेलखंड की बनने वाली है। यह देश का वह इलाका है जहां डेढ़ करोड़ से ज्यादा किसान आबादी इस बार खेतों में बुआई तक नहीं कर पाई।
बुंदेलखंड की करुण और दारुण स्थिति बयान की हद के बाहर है। कुएं और तालाब अभी से सूख चले हैं। भूजल स्तर नीचे चले जाने से बोरवैल भी जवाब दे रहे हैं। थोड़े से इलाके के लिए, जहां बांध और नहरें हैं, वहां बांध आधे भी नहीं भर पाए। मानसून के बाद की फसल बोने के लिए इस साल खेतों में न्यूनतम नमी भी नहीं थी। किसानों ने रात को 12 बजे के बाद ओस के सहारे बुआई तक की कोशिश की। हार-थककर अपने बीज बचाने के लिए उन्हें अपने खेतों को खाली छोडऩा पड़ा। कर्ज से लदे बेबस किसानों को आत्महत्या के अलावा और कोई चारा नहीं दिखता।
बुंदेलखंड के लिए तीन साल पहले सामाजिक स्तर पर सोच-विचार के व्यवस्थित उपक्रम किए गए थे। जल विशेषज्ञों, प्रबंधन प्रौद्योगिकी के प्रशिक्षित युवाओं, स्वयंसेवी संस्थाओं और प्रदेश और केंद्र सरकार के सक्षम पदाधिकारियों ने मिल-बैठकर समाधान ढ़ूंढने की कवायद की थी। रिवाइवल ऑफ बुंदेलखंड की थीम पर उस सोचविचार में यह निकलकर आया था कि बुंदेलखंड की त्रासदी का सबसे बड़ा कारण छीजता चला जा रहा जल प्रबंधन है। यह निष्कर्ष अंग्रेजों के समय से लेकर पिछली यूपीए सरकार के कार्यकाल तक की तमाम कोशिशों को गौर से देखने के बाद निकलकर आया था। यह सिफारिश की गई थी कि अब तक तो जैसे-तैसे काम चल गया लेकिन आने वाले दिनों में भयावह संकट का अंदेशा है और फौरन पानी के इंतजाम की जरूरत है।
सात जिले यूपी में छह एमपी में
बुंदेलखंड के तेरह जिलों में सात उप्र में और छह मप्र में आते हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उप्र की माली हालत उजागर है। उधर आर्थिक वृद्धि दर में सरपट दौडऩे का दावा करने वाला मप्र एक बार को सोच भी सकता है कि अपने हिस्से के बुंदेलखंड के लिए दो पांच हजार करोड़ निकाल ले। लेकिन भारी भरकम आकार का उत्तर प्रदेश तो अपनी चालू परियोजनाओं के लिए भी पैसे के इंतजाम के लिए कर्ज और केंद्र की मदद की गुहार लगा रहा है। यानी मौजूदा बेबसी के आलम में हमेशा की तरह सिर्फ केंद्र सरकार से ही उम्मीद लगाई जाएगी। वैसे भी उसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए देश में अच्छे माहौल का प्रचार करना है। लिहाजा बुंदेलखंड में अकाल जैसे हालात की खबरों के बीच वह विदेशी निवेशकों को कैसे समझा पाएगा कि अपने पैसे लेकर हमारे यहां आइए।
-धर्मेंंद्र सिंह कथूरिया

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