03-Mar-2016 09:17 AM
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सियासत का मैदान ऐसा होता है जहां परीक्षा हर कदम पर होती है। इन परीक्षाओं में वही पास होता है जिसकी रणनीति बेहतर होती है। अपनी बेहतर रणनीति के कारण भाजपा केंद्र में तो सत्ता पा गई, लेकिन उसके कुछ गलत कदम

दिल्ली और बिहार में उस पर भारी पड़े। यही हाल कांग्रेस का भी है। लेकिन अब नए राजनीतिक समीकरण के तहत भाजपा की राणनीतिक जिम्मेदारी जहां अमित शाह पर आ गई है वहीं कांग्रेस में यह जिम्मेदारी राहुल गांधी पर है। यानी अब इन दोनों नेताओं की असली परीक्षा होने वाली है। कथित तौर पर अभी तक जितने भी चुनाव हुए हैं उसमें भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संघ ने रणनीति बनाई थी। वहीं कांग्रेस का पूरा खाका पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी की निगरानी में बना। लेकिन अब आने वाले चुनावों में भाजपा की ओर से अमित शाह और कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी पर होगी। इसके बाद से दोनों ही नेताओं पर बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। इससे दोनों पार्टियों में इनदिनों जोश-हंगामा, खामोशी-सन्नाटा और उम्मीद का माहौल देखा जा रहा है।
दिल्ली के 11 अशोक रोड पर मौजूद बीजेपी हेडक्वार्टर का यह ऐसा रंग है जो बीते दो बरस से भी कम वक्त में कुछ इस तरह बदलता हुआ नजर आया। जिसने मोदी की चमक तले अमित शाह की ताकत देखी तो जोश-हंगामा दिखा। फिर सरकार की धूमिल होती चमक तले अमित शाह की अग्निपरीक्षा के वक्त खामोशी और सन्नाटा देखा। और अब एक उम्मीद के आसरे फिर से अमित शाह को ही प्रधानमंत्री मोदी का सबसे भरोसेमंद-जरुरतमंद अध्यक्ष के तौर पर नया कार्यकाल मिलते देखा। तो क्या सबसे बडी सफलता से जो उड़ान बीजेपी को भरनी चाहिये थी वह अमित शाह के दौर में जमीन पर आते आते एक बार फिर बीजेपी को उड़ान देने की उम्मीद में बीजेपी की लगाम उसी जोड़ी के हवाले कर दी गई है। जिसके आसरे बीजेपी ने 16 मई 2014 को इतिहास रचा था। इतिहास रचने के पीछे मनमोहन सिंह की सत्ता का वह काला दौर था जिससे जनता नाखुश थी।
लेकिन अब इतिहास संभालने का दौर है, जब सत्ता भी है, सबसे बडा संगठन भी है, सबसे बडी तादाद में पार्टी सदस्य भी है। फिर भी उम्मीद की आस तले भविष्य की हार का भय है। क्योंकि जीत के दौर में चुनावी जीत ही अमित शाह ने पहचान बनायी। और हार के दौर में कौन सी पहचान के साथ अगले तीन बरस तक अमित शाह बीजेपी को हांकेंगे यह सबसे बड़ा सवाल है। क्योंकि अगले तीन बरस तक मोदी का मुखौटा पहन कर ना तो बीजेपी को हांका जा सकता है और ना ही मुखौटे को ढाल बनाकर निशाने पर आने से बचा जा सकता है। तो असल परिक्षा अमित शाह की शुरु हो रही है। जहा संगठन को मथना है। नीचे से उपर तक कार्यकर्ताओं को उसकी ताकत का एहसास करना है और ताकत भी देनी है। दिल्ली की डोर ढीली छोड़ कर क्षेत्रीय नेताओं को उभारना भी है।
स्वयंसेवकों में आस भी जगानी है और अनुभवी प्रचारकों को उम्र के लिहाज से खारिज भी नहीं करना है। और पहली बार मोदी की ताकत का इस्तेमाल करने की जगह मोदी को सरकार चलाने में ताकत देना है। तो क्या 2015 में दिल्ली और बिहार चुनाव में हार के बाद क्या वाकई अमित शाह के पास कोई ऐसा मंत्र है जो 2016 में बंगाल, असम,तमिलनाडु,केरल तो 2017 में यूपी, पंजाब और गुजरात तक को बचा लें या जीत लें। यह मुश्किल काम इसलिये है क्योंकि देश में पहली बार गुजरात माडल की धूम गुजरात से दिल्ली के क्षितिज पर छाये नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने ही गुनगुनाये। और मोदी के दिल्ली पहुंचते ही गुजरात में ही गुजरात के पाटीदार समाज ने गुजरात माडल को जमीन सूंघा दी। फिर दिल्ली की नई राजनीति और बिहार की पारंपरिक राजनीति के आगे वही बीजेपी हारी ही नहीं बल्कि नतमस्तक दिखी जो वैकल्पिक सपनों के साथ 2014 में इतिहास रच कर जनता की इस उम्मीद को हवा दे चुकी थी कि जाति-धर्म से इतर विकास की राजनीति अब देश में फलेगी-फूलेगी। लेकिन गरीब-पिछड़ों को ताकत देने के बदले इनकी कमोजरी-बेबसी को ही चुनावी ताकत बनाने की कोशिश इस स्तर पर हुई कि देश को प्रधानमंत्री की जाति के आसरे बीजेपी की चुनावी रणनीति देखने समझने का मौका मिला। लेकिन मुश्किल जीत के इतिहास को सहेजने भर की नहीं है। मुश्किल तो यह है कि उत्तर भारत के राजनीतिक मिजाज की जटिलता और पूर्वी भारत की सासंकृतिक पहचान को भी सिर्फ संगठन के आसरे मथा जा सकता है । क्योंकि पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ र जनीतिक तौर पर सक्रिय होने में गर्व महसूस करने लगा है। पहली बार राजनीतिक सत्ता के करीब स्वयसेवकों में आने की होड़ है क्योंकि सारी ताकत राजनीतिक सत्ता में ही सिमट रही है।
पहली बार जनसंघ के दौर से भारतीय राजनीतिक मिजाज के समझने वाले स्वयंसेवक हो या प्रचारक या फिर संघ से निकल कर बीजेपी में आ चुके नेताओं की कतार वह महत्वहीन माने जा रहे हैं। और अनुभवों ने ही जिस तरह राष्ट्रीय स्वयसेवक को विस्तार दिया अब वही संघ सत्ता की अनुकूलता तले अपना विस्तार देख रहा है। यानी सत्ता पर निर्भरता और सत्ता में बने रहने जद्दोजहद के दौर में अमित शाह को दोबारा बीजेपी अध्यक्ष बनाया जा रहा है तो वह अध्य़क्ष की कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता और मोदी की कार्यशौली को समझने का हुनर है। तो सवाल यह भी होगा कि क्या वाकई गुजरात से दिल्ली पहुंचकर मोदी से तालमेल बैठाकर पार्टी चलाने वाले सबसे हुनरमंद अब भी गुजरात से दिल्ली आये अमित शाह ही हैं। और संघ परिवार मौजूदा वक्त सत्ता, सरकार , संगठन , पार्टी हर किसी के केन्द्र में प्रदानमंत्री मोदी को ही मान रहा है। यानी विचारों के तौर पर जो संघ परिवार जनता से सरोकार बैठाने के लिये सरकार पर बाहर से दबाब बनाता था वह भी वैचारिक तौर पर सत्ता को ही महत्वपूर्ण मान रहा है। असल में यह सवाल देश के लिये इसलिये भी महत्वपूर्ण है क्योंकि संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दलो की समझ व्यापक होना देश के ही हित में होता है और बीजेपी के पास संघ परिवार सरीखा ऐसा अनूठा सामाजिक संगठन है जिसके स्वयंसेवक हर मुद्दे पर देश की नब्ज पकड़े रहते है। लेकिन सभी एक ही लकीर पर एक ही बिन्दु के इर्द-गिर्द घुमडऩे लगे तो फिर रास्ता चाहे अनचाहे उस मूल को पकड़ेगा जिसके आसरे संघ परिवार बना। ऐसे में शाह के विरोध में खड़े कांग्रेस के राहुल गांधी के सामने चुनौती कुछ ज्यादा ही है। पिछले एक दशक की कांग्रेस की राजनीति और सत्ता शासन से आजीज आ चुकी जनता क्या कांग्रेस के समर्थन में फिर खड़ी होगी और क्या वह राहुल गांधी में विश्वास करेगी कहना मुश्किल है। थक चुकी कांग्रेस में राहुल कितना उर्जा दे पाऐंगे कहना मुश्किल है। जिस कांग्रेस का मनोबल ही टूट गया हो, जिस कांग्रेस के तमाम नेता राहुल के सहारे की राजनीति कर रहे हो भला शाह के आक्रमण के सामने क्या कर पाऐंगे कहना मुश्किल है। जिस शाह के पीछे पूरी भाजपा और संघ खड़े हो वहीं अकेला रण में खड़ा राहुल कांग्रेस को कितना बचा पाऐंगे, यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता।
कांग्रेस की विरासत वाली राजनीति के अलावा राहुल पास कुछ नहीं है। ईमानदार, युवा और उर्जावान होने के बावजूद उनके पीछे कांग्रेस की वह राजनीति और नेता नहीं है जो दावे के साथ कह रहें हों कि कांग्रेस के इतने नेता अपने दम पर चुनाव जीतने का मादा रखते हों। भाजपा के चुनावी रणनीतिकार और कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार को गौर से देखा जाए तो साफ हो जाता है कि कुछ मु_ी भर लोगों को छोड़ दिया जाए तो बाकी के लोग राहुल की राजनीति और उसके संभावित करिश्में की बाट जोह रहे है। अधिकतर कांग्रेसी राहुल के भरोसे बैठ गए है। राहुल गांधी पहली बार अपने जीवन की सबसे कठिन चुनौती से जूझ रहे हैं। ऐसे में सियासत अब शाह बनाम राहुल ही है। उधर, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी राज्यों में अपनी टीम बना रहे हैं और एआईसीसी में भी अपनी पसंद के युवाओं को लाने वाले हैं। लेकिन कांग्रेस के जानकार सूत्रों का कहना है कि पार्टी के पुराने और बुजुर्ग नेता राहुल के बनवाए अध्यक्षों और दूसरे पदाधिकारियों के कामकाज पर नजर रख रहे हैं। जिन राज्यों में अगले एक-दो साल में नगर निगम के चुनाव होने वाले हैं उनके अध्यक्षों पर अच्छे प्रदर्शन का बहुत दबाव है। संजय निरूपम को दो साल बाद होने वाले बृहन्न मुंबई महानगरपालिका के चुनाव की तैयारी में लगना है। अगर इस चुनाव में भी शिवसेना और भाजपा जीतती है, क्योंकि मुंबई में शिवसेना का असर बहुत गहरा है तो निरूपम की आगे की राजनीति पर सवालिया निशान लग जाएंगे। दिल्ली में प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए अजय माकन को भी 2017 के निगम चुनाव में अपने को साबित करना है। उसके बाद ही वे फिर राहुल की टीम में लौट सकते हैं।
-दिल्ली से रेणु आगाल