03-Mar-2016 09:09 AM
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हम दिल बेचते हैं कोई दिलदार तो मिले, इस दिल का कोई खरीदार तो मिले की तर्ज पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता संभालने के बाद से ही विदेश नीति के मसले पर सक्रिय रहे हैं। उन्होंने अमेरिका, चीन, रूस जैसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के

महत्वपूर्ण देशों के साथ ही फिजी और मंगोलिया जैसे देशों की यात्राएं की, भारत की विदेश नीति के मसले पर जिनकी अहमियत बहुत अधिक नहीं रही है। प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति मोदी डॉक्ट्राइन के नाम से मशहूर रही है। उन्होंने दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों के साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से रिश्ते बेहतर करने का प्रयास किया। मोदी ने अंतराष्ट्रीय नेताओं से मुलाकात करने के अपने तरीकों और कई मौकों पर प्रोटोकॉल तोड़कर नए विदेश नीति की नई परिपाटी बनाने का प्रयास भी किया। हालांकि उन प्रयासों के बाद भी ऐसे मौके आए हैं, जबकि कई मुल्कों ने भारत की हितों के अनुरूप फैसले नहीं लिए हैं और मोदी सरकार की किरकिरी हुई है। हाल ही में अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ 16 लड़ाकू विमान बेचने का फैसला किया, जबकि भारत इस फैसलों को अपने सामरिक हितों के अनुरूप नहीं मानता है। भारत ने अमेरिका के फैसले पर नाराजगी जताई और दिल्ली में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा को तलब भी किया। हालांकि अमेरिका ने भारत के विरोध को खारिज कर दिया। यानी अभी तक हम मोदी की जिस विदेश नीति की वाह-वाही कर रहे थे उसको उनके मित्र बराक ओबामा ने ही ठेंगा दिखा दिया।
नरेंद्र मोदी जब देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे, तब लग रहा था कि अब भारत 21वीं सदी की वास्तविक ताकत बनने जा रहा है। पर विदेश नीति के मोर्चे पर भारत कमोबेश अब भी वहीं खड़ा है, जहां वह एक साल पहले था। मोदी सरकार के सामने पाकिस्तान और चीन को हद में रहने के लिए सख्त संदेश देने, रूस के साथ सुस्पष्ट रणनीतिक संबंध बनाने, हिंद महासागर में चीनी गतिविधियों पर अंकुश लगाने और उसकी रणनीति का मुकाबला करने, अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ बराबरी पर आधारित द्विपक्षीय रिश्ते कायम करने, आतंकवाद पर स्पष्ट वैश्विक जनमत तैयार करने तथा सीमा विवादों का स्थायी समाधान खोजने की चुनौतियां थीं।
हमारे पड़ोसी दक्षिण एशियाई देश आर्थिक दृष्टि से उतने लाभदायक नहीं हैं, पर इनकी सामरिक महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री की भूटान और नेपाल के साथ की गई कूटनीतिक पहल को इस दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जा सकता है। हालांकि नेपाल में भूकंप के बाद मदद करने के बावजूद काठमांडू के दिल में उतरने में भारत उतना सफल नहीं हो सका। इसी तरह जापान के साथ नया रणनीतिक रिश्ता बनाने की कोशिश की गई, पर यह पहल इंफ्रास्ट्रक्चर विकास तक ही सीमित रह सकती है, सामरिक क्षेत्र में नहीं, क्योंकि चीन के ऐतराज को देखते हुए जापान को संभवत: मालाबारÓ (युद्धाभ्यास) में शामिल नहीं किया जाएगा। ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका की यात्राएं कर मोदी ने नई सामरिक साझेदारी की बुनियाद रखी है, पर इसमें अमेरिका की भूमिका और प्रशांत महासागर में उसके हित अधिक निर्णायक तत्व हैं। मोदी ने फिजी, सेशेल्स और मॉरीशस की यात्राएं भी कीं।
हकीकत यह है की मोदी ने अमेरिका और चीन को ही सर्वाधिक महत्व दिया। इन दो देशों के राष्ट्रपति एक वर्ष के अंदर भारत आए और प्रधानमंत्री मोदी ने भी इन देशों की यात्राएं की। हालांकि अमेरिका से भारत को कुछ मिला नहीं, तो बूढ़े होते चीन की घरेलू मांग की संभाव्यता न्यून स्तर पर पहुंच रही है। यदि यूरोप की अर्थव्यवस्था लडख़ड़ाती रही, तो भारत का बाजार उसकी अर्थव्यवस्था को थामने में सबसे मददगार होगा। पर ओबामा के साथ सिर्फ मन की बात साझा हो सकी और शी जिनपिंग के साथ सांस्कृतिक उत्सवों की साझेदारी।
इसी तरह जर्मनी और फ्रांस से व्यापारिक साझेदारी हुई, तथा फ्रांस से राफेल विमान खरीदने का सौदा भी, पर परिणाम आने अभी बाकी हैं। फ्रांस के साथ हुए समझौतों से भारत की बुनियादी संरचना के गति पकडऩे के अलावा अंतरिक्ष अनुसंधान, परमाणु ऊर्जा, विज्ञान और तकनीकी तथा मैरीन टैक्नोलॉजी के क्षेत्र में आगे बढऩे का मौका मिल सकता है। हालांकि जर्मनी में मेक इन इंडिया के बजाय टू मेक स्ट्रांग जर्मन कंपनीजÓ का उद्देश्य ज्यादा पूरा होता दिखा। भारत की कूटनीति हमेशा से उद्देश्यपरक, गंभीर, ईमानदार और व्यवस्थित रही है। हमारी कूटनीति विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने में मदद करती रही है। बहरहाल नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले तक भारत की विदेश नीति बाह्य केंद्रित अधिक लग रही थी, पर अब यह भारत केंद्रित होती दिखी है। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को कूटनीतिक क्षमता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की है। इसके बावजूद मोदी सरकार के पास बताने के लिए ठोस उपलब्धियां नहीं हैं। भरोसा किया जा रहा है कि पाकिस्तानी सेना और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ, दोनों भारत से अच्छे रिश्ते के इच्छुक हैं। हालांकि अभी तक इसके कोई प्रमाण नहीं दिखे हैं कि सेना ने आतंकवाद के प्रति अपने रुख में बदलाव कर लिया है।
एक बात जो स्पष्ट है कि भारत के बेहतर भविष्य को लेकर पीएम के मन में काफी कुछ है। इस बात का परिचय मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में ही दे दिया था, जब उन्होंने तमाम पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को इसके लिए आमंत्रित किया था। संभवत: इसके पीछे यह दृष्टिकोण भी हो सकता है कि दक्षिण एशिया में भारत एक सशक्त देश के तौर पर उभरे। इसमें कोई संशय नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी के विभिन्न देशों के दौरों ने भारतीय कूटनीति को एक नया आयाम दिया है। इसके आर्थिक पहलू भी हैं, जो अब विभिन्न रूपों में नजर भी आने लगे हैं। अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में विदेशी निवेश एक अहम कड़ी है और हाल के कुछ महीनों में भारत को इसमें कुछ बड़ी सफलता भी मिली है। निवेश तो पहले भी आए लेकिन अब दुनिया के कई देशों का भारत के प्रति अधिक झुकाव होना और यहां आकर कई सेक्टरों में निवेश करना भी विदेशी नीति और कूटनीति के मोर्चें पर बड़ी सफलता है। मोदी की अगुवाई में आज जिस प्रकार की वैश्विक कूटनीति का परिचय दिया जा रहा है, उसमें सबकी बेहतरी ही समाहित है। जहां तक भारत-पाकिस्तान के संबंधों की बात है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और नवाज शरीफ मार्च में एक परमाणु शिखर बैठक से इतर अमेरिका में मिल सकते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा शिखर बैठक की मेजबानी करेंगे। दोनों नेताओं ने 31 मार्च और एक अप्रैल को वाशिंगटन में परमाणु शिखर बैठक में शामिल होने का ओबामा का न्यौता मंजूर कर लिया है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, संभावनाएं मजबूत हैं, बहुत मजबूत हैं।ÓÓ उन्होंने कहा, लेकिन आपको भारत-पाकिस्तान वार्ता का इतिहास पता है। जब तक ऐसा ना हो तब तक आप किसी भी कार्यक्रम को लेकर निश्चित नहीं हो सकते।ÓÓ ओबामा ने 2010 में इस परमाणु सुरक्षा शिखर बैठक की शुरूआत की थी। ऐसा पहली बार होगा जब भारतीय एवं पाकिस्तानी दोनों प्रधानमंत्री बैठक में शामिल होंगे। शिखर बैठक का उद्देश्य आतंकियों को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकना है।
नेपाल ने भी भारत के हितों की अनदेखी की
विदेश नीति के मोर्चे पर नेपाल के साथ भारत के संबंधों को भी कूटनीतिक असफलता ही माना जाता है। मोदी ने अगस्त 2014 में बतौर प्रधानमंत्री नेपाल का दौरा किया। उन्होंने नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा की, नेपाल की संवैधानिक सभा को संबोधित किया और नेपाल को एक बिलियन डॉलर की सहायता भी दी। इन कदमों के बाद भी नेपाली संविधान सभा ने संविधान में भारत द्वारा सुझाए गए कई प्रस्तावों को शामिल नहीं किया। भारत ने नेपाल के रवैये के खिलाफ विरोध भी जताया। हालांकि नेपाल ने भारत की आपत्तियों का दरकिनार कर दिया। पूर्व केंद्रीय मंत्री मो. अली अशरफ फातमी कहते हैं कि दो वर्ष की अवधि किसी नवगठित सरकार के लिए हनीमून पीरियड मानी जाती है। लेकिन, सबका साथ, सबका विकास का नारा देकर जनता से किए खोखले वादे पर सवार होकर आई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार इसी हनीमून पीरियड में विदेश नीति के मोर्चे पर भी फेल हो गई है। मोदी ने चीन का दौरा कर अपनी यात्रा को सफल बताया था। लेकिन अब जनता को कतई नहीं लगता की मोदी की चीन यात्रा सफल थी। जहां तक तजुर्बेकार लोगों की राय है कि विदेश नीति में मोदी पूरी तरह से फेल हैं। चूंकि ये बात कौन नहीं जानता कि जब से भारत-अमेरीका के बीच रिश्ते बेहतर हुए हैं तब से पाकिस्तान चीन की गोद में जा बैठा है। ची की अब एक नई धमकी आई है कि हिंद महासागर से होते हुए अपनी पनडुब्बी पाकिस्तान तक ले जाने वाले चीन ने भारत की आपत्तियों पर पलटवार किया है। चीन की सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के नौसेना अफसरों ने साफ किया है कि भारत अगर हिंद महासागर के इंटरनेशनल वॉटर एरिया को अपने घर के पास का इलाका समझता है तो यह उसकी गलती है। चीनी सेना के मुताबिक इससे आने वाले समय में टकराव से इनकार नहीं किया जा सकता।
-आर.के. बिन्नानी