मोदी को लेकर नीतीश के तेवर ठंडे
15-Apr-2013 11:08 AM 1234757

जनता दल यूनाईटेड की दिल्ली में बैठक से पहले नीतीश जिस अंदाज में मोदी की मुखालफत करते नजर आ रहे थे उससे लग रहा था कि जनतादल यूनाइटेड आर-पार की लड़ाई के मूड में है। लेकिन जब नीतीश के सहयोगियों ने उन्हें मोदी से पंगा लेने का मतलब समझाया तो वे समझ गए कि भाजपा से दूरी बनाकर जनता दल यूनाइटेड का वजूद ही समाप्त हो जाएगा और देश के प्रधानमंत्री तो क्या नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री भी नहीं रह जाएंगे। इसलिए थोड़ी बहुत नाराजगी दिखाकर नीतीश शांत हो गए हैं और जनतादल यूनाइटेड के दिल्ली अधिवेशन के बाद जिस तूफान की आस लगाए लोग बैठे थे वह तूफान फिलहाल थम गया है।
हालांकि जेडी(यू) ने साफ कर दिया कि उसे एनडीए की तरफ से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार नहीं होंगे। नीतीश कुमार बीजेपी प्रमुख राजनाथ सिंह और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली से भी मिलने पहुंचे। दोनों की मुलाकात में इस बात पर सहमति बनी की पीएम प्रत्याशी घोषित करने से पहले एनडीए के घटक दलों का भी ख्याल रखा जाएगा। नरेंद्र मोदी को लेकर बीजेपी की अपनी राजनीतिक मजबूरियां हैं। पार्टी में ज्यादातर लोगों की राय है कि नरेंद्र मोदी को 2014 में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया जाए। खास कर पार्टी के कार्यकर्ताओं का ज्यादा दबाव है, लेकिन नीतीश कुमार की चिंता है कि नरेंद्र मोदी को प्रत्याशी बनाया जाता है बिहार में 16 फीसदी मुसलमानों की आबादी है जो पार्टी से नाराज हो सकती है। जेडी(यू) ने यह भी साफ कर दिया कि नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा प्रधानमंत्री बनने की नहीं है। दिल्ली में जहां जेडी(यू) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही थी  वहां कुछ पोस्टर भी दिलचस्प लगे थे। इन पोस्टरों से भी साफ संदेश देने की कोशिश की गई थे  कि 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा। पोस्टर में नीतीश कुमार को कृष्ण की भूमिका में पेश किया गया और सामने निशाने पर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह थे। पोस्टर में 2014 के आम चुनाव को दूसरा महाभारत बताया गया था। दरअसल नितीश के लिए भाजपा ज्यादा जरूरी है, भाजपा के लिए नितीश उतने जरूरी नहीं हैं। यदि नितीश भाजपा  छोड़ते हैं तो बिहार में राजनीतिक धुर्वीकरण होगा जिसका फायदा भाजपा को मिलेगा और मुस्लिम वोट बंट जायेंगे। नीतीश की सफलता में बीजेपी का बहुत बड़ा हाथ है। नीतीश कुमार ने बिहार में दो बार पूर्ण बहुमत की सत्ता बनाई, वह बीजेपी की बदौलत है। यही वजह है कि ऊपरी तौर पर दिखाने के लिए भले ही नीतीश कुमार भाजपा की रणनीति का विरोध कर रहे हो लेकिन अन्दर से उन्हें भी पता है कि ज्यादा विरोध भारी पड़ सकता है। नीतीश राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। उन्हें ये बात अच्छी तरह से पता है कि बिहार राज्य की सत्ता से बाहर आकर वह लोकसभा चुनावों में बीजेपी से अलग होकर कुछ ख़ास नहीं कर पायेंगे। दिल्ली के राष्ट्रीय अधिवेशन में जब जदयू के देशभर के नेता वहां जुटे तो, कुछ उसमें नीतीश उवाच से खफा थे तो कुछ ये जानने की कोशिश में थे कि मोदी विरोध और एनडीए से अलग होकर वह लोकसभा चुनावों में किस थ्योरी को लेकर उतरने वाले हैं। पार्टी के अन्दर उठ रहे विद्रोही सुरों से परेशान जदयू के कर्णधार शरद यादव और नीतीश कुमार को पहले सत्र के बाद ही समझ में आ गया कि एनडीए से बाहर आकर पार्टी हारेगी तो जरुर लेकिन कहीं इस मुद्दे पर पार्टी में विद्रोह हुआ और पार्टी के मजबूत स्तम्भ इधर-उधर गिरने लगे तो बीते एक दशक के दौरान की गई मेहनत में पलीता लगने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। शरद यादव और नीतीश कुमार साथियों के बदले तेवर देखकर  सुर बदलने में देरी नहीं लगाई और खुद को जनता की नजरों में पाक साफ साबित करने की जुगत करते हुए भाजपा को ही 6 महीने की मोहलत दे डाली। वहीं, भाजपा ने भी नीतीश की बातों पर ज्यादा ध्यान न देते हुए एनडीए में रहने और छोडऩे का फैसला उन्ही पर छोड़ दिया। भाजपा जानती है कि नीतीश ने ऐसा कोई भी कदम उठाया तो उसका फायदा भाजपा को ही होगा। अगर भारतीय जनता पार्टी बिहार में अकेले दम पर लोकसभा चुनावों में उतारे तो हो सकता है कि उसका प्रदर्शन विधानसभा चुनावों के प्रदर्शन से बेहतर हो जाए और वो लोकसभा की ज्यादा सीटें जीत ले तब ये नीतीश के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी हार होगी। साथ ही जदयू का पराभव भी शुरू हो सकता है। 2010 के विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन ने कुल मिलाकर 206 सीटों पर कब्जा किया था जिसमें जदयू की 115 और बीजेपी की 91 सीटें थी।  जदयू में नीतीश कुमार के मोदी विरोध की ख़ास वजह भी है। मोदी जितने तेज़ी से राष्ट्रीय राजनीति में उभरे हंै, उसने नीतीश की ईष्र्या को बढ़ा दिया है। नीतीश जानते हंै कि अगर नरेन्द्र मोदी एक बार प्रधानमंत्री बन गए तो उनका कद उनके साथ के नेताओं से काफी ऊँचा हो जाएगा। साथ ही मोदी की हिंदुत्ववादी राजनीति भी कहीं आगे चलकर उनका मुख्य हथियार ना साबित हो जाए जिसका असर बिहार की राजनीति पर भी पड़े और जातिवादी राजनीति का गढ़ बिहार एक बार फिर दूसरी राह ना पकड़ ले। बहरहाल, नीतीश को अपनी जिद के आगे झुकना पड़ा है। उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा पर दबाब बनाना बंद कर दिया है क्योंकि यही एकमात्र विकल्प है।
सुमित भंडारी

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