03-Mar-2016 07:46 AM
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वित्त मंत्र अरूण जेटली जब संसद में वर्ष 2016-17 का बजट पेश करने जा रहे थे तो सबको आस थी की इस बार के बजट में नए भारत के लिए उज्जवल तस्वीर प्रस्तुत की जाएगी। ताकि अबकी बार मोदी सरकार के नारे के सहारे सत्ता में

भाजपा आम आदमी के अच्छे दिन का सपना साकार कर सके। लेकिन रेल बजट की तरह ही जेटली ने जनता को निराश किया है। न उसमें कुछ था, न इसमें कुछ है। पेश करना था, इसलिए कर दिया। कहने को गांव और गरीबों का बजट है लेकिन किसान और खेती को भी सीधे कुछ नहीं दिया गया है। घोषणाएं ही इनके पक्ष में दिख रही हैं बस। गांव, गरीब, खेती के अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर पर भी जोर दिया गया है। लेकिन बजट बढ़ाने के अलावा इन क्षेत्रों में भी कोई नया आइडिया नहीं दिखा। यह बजट उम्मीदों के आसपास भी नहीं है। इस बजट को देखने के बाद लगता है कि सरकार के अलावा किसी को फायदा नहीं होने वाला। यानी अब की बार महंगाई की मार का बजट पेश किया गया है। जिस मध्यमवर्ग के दम पर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और एनडीए सत्ता में आया, उसी मीडिल क्लास की उम्मीदों पर सरकार ने पानी फेर दिया है।
मोदी सरकार ने अपने बजट के बाद को सूट बूट की सरकार का चोला बदल कर धोती गमछे वाला चोला पहन लिया लेकिन पेंट शर्ट के शहरी बाबू को मझधार में ही छोड़ दिया। इस शहरी बाबू जिसे हम मध्यम वर्ग कहते हैं, जिसकी आबादी 25 करोड़ से ज्यादा है, जिसकी भाजपा को सत्ता में लाने में निर्णायक भूमिका रही है, जिसकी ताकत के बल पर नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं, जिस वर्ग में से एक बड़ा वर्ग उग्र हिंदुत्व का नारा बुलंद करते हुए मोदी सरकार के पक्ष में सोशल मीडिया पर हमेशा जयकारा लगाता रहा है, जो मोदी को एक हजार साल बाद देश का हिंदू राजा कहने से नहीं हिचकता।
यह मध्यम वर्ग वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट से खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। उसे लगता है कि उसकी जेब में एक भी पैसा डाले बिना दूसरी जेब से पैसा निकालने की तैयारी मोदी सरकार ने कर ली है। मध्यम वर्ग को अब जो सेस या उपकर चुकाना होगा वह किसानों के भले के लिए काम आएगा। कायदे से तो इसका स्वागत ही होना चाहिए लेकिन मध्यम वर्ग शंकित है। उसे लगता है कि किसानों में भी जो अमीर किसान हैं उन पर जेटली टैक्स लगाने की हिम्मत क्यों नहीं जुटाते। क्यों अमीर किसान गरीब किसान का बोझ उठाने को तैयार नहीं होते। अब इस पर भी क्या यकीन कि वास्तव में सेस का फायदा गरीब किसान तक पहुंचेगा या फिर सरकार सिर्फ अपनी अडानी अंबानी की सरकार की बनती छवि से उबरने में ही लगी है।
वित्तमंत्री ने आत्ममुग्धता के भाव में अपनी पीठ ठोकते हुए बड़ी ठसक के साथ एलान किया है कि आर्थिक माहौल में आई तब्दीली के बावजूद सरकार वित्त वर्ष 2016-17 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.5 फीसदी स्तर पर बरकरार रखेगी। भाजपा की अगुवाई वाली राजग सरकार का तीसरा बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संसद में (और संसद के बाहर) जो सुनहरे सपनों का संसार दिखाया, उसमें और बजट दस्तावेजों की पड़ताल से सामने आई वास्तविक तस्वीर के बीच दो दुनियाओं का फर्क है। सरसरी नजर से देखें तो बजट में छोटी-छोटी स्मार्टÓ घोषणाओं की इतनी भरमार है कि एक दफा अच्छे दिनोंÓ का भ्रम होने लगता है, मगर इन सतही घोषणाओं के नीचे का सच जल्द ही भ्रम दूर कर देता है। वास्तव में, बजट की नजदीकी पड़ताल से पता चलता है कि जिस बजट को गरीब और ग्रामीण भारत को बड़ा सहारा देने वाला पुश फैक्टरÓ कह कर प्रचारित किया जा रहा है वह दरअसल नीतियों के स्तर पर बड़ी कंपनियों और निवेशकों का बजट है। खर्च में हुई कटौती पर मामूली वित्तीय आबंटन वाली घोषणाओं की झड़ी लगा कर असलियत को छुपाने का प्रयास किया गया है।
मगर बजट केवल खर्च और वित्तीय अनुमानों का लेखा-जोखा भर नहीं है। बदली आबोहवा में बजट को पूरे वित्तवर्ष के दरम्यान अर्थव्यवस्था को राह दिखाने वाले प्रकाश-स्तंभ के रूप में देखा जाता है। इस पैमाने पर बजट को परखने के लिए उस भंवर पर निगाह डालनी होगी जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था फिलवक्त फंसी हुई है। मोटे तौर पर तीन बड़े संकट इस समय हमारी अर्थव्यवस्था पर छाए हुए हैं। पहला, वैश्विक अर्थव्यवस्था बेहद खराब दौर से गुजर रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था का इंजन कहे जाने वाले सेवा क्षेत्र में अहम योगदान देने वाली सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों का कारोबार अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में है। ये दोनों ही क्षेत्र आर्थिक सुस्ती से नहीं निकल पा रहे हैं। निर्यात आधारित विकास मॉडल में बुनियादी बदलाव करने की कोशिश कर रही चीनी अर्थव्यवस्था भी रास्ता भटक गई है वहीं जापान भी आर्थिक विकास की पटरी पर नहीं लौट पाया है। सीधे लफ्जों में कहें तो वैश्विक आर्थिक माहौल अनुकूल नहीं है।
ऐसे में अर्थव्यवस्था को गति देने का एक ही रास्ता बचता है कि घरेलू माहौल दुरुस्त कर आंतरिक मांग को बढ़ाया जाए। लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था की दूसरी बड़ी दिक्कत यह है कि लगातार दो असफल मानसून के कारण ग्रामीण हिस्सा बुरी तरह चरमरा गया है। उदारीकरण के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था से गुंथे हुए होने के कारण विकसित देशों के आर्थिक संकट ने सेवा क्षेत्र पर टिकी शहरी आबादी की कमर तोड़ रखी है वहीं दशकों से मानसून (भगवान) भरोसे छोड़ दी गई खेतिहर आबादी सूखे के कारण मुसीबत में है। ऊपर से, इस मुश्किल आर्थिक माहौल को और खराब करने का काम किया है तीसरे कारण, यानी बिगड़े हुए राजनीतिक माहौल और कड़वी बहस से उपजी राजनीतिक अस्थिरता ने। ऐसी पृष्ठभूमि में आम बजट से उम्मीद की जा रही थी कि नकारात्मक तिकड़ी को खत्म करने का स्पष्ट खाका देश के सामने रखा जाएगा, मगर अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ।
बजट की शुरुआत में वित्तमंत्री ने (और जिसे प्रधानमंत्री समेत कई लोग कई दफा दोहरा चुके हैं) दावा कि अस्थिर आर्थिक माहौल के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था स्थिरता का गढ़Ó बनी हुई है और विकास दर चालू वित्त वर्ष में सात फीसद से ऊपर रहने का अनुमान है। मुश्किल यह है कि कोई भी इस दावे की असलियत पर एतबार करने को तैयार नहीं है क्योंकि इस ऊंचाई की विकास दर से मिलने वाले फायदे धरातल पर नहीं दिख रहे हैं। कुछ अर्थशास्त्री इस विकास दर को कृत्रिम रूप से निर्मितÓ करार दे रहे हैं और इस कल्पित तेजी के लिए सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी गणना के तरीके में बीते साल किए गए बदलाव को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी इस आंकड़े पर शंका जताई है। मौजूं सवाल यह है कि जो अर्थव्यवस्था सात फीसद से ज्यादा की विकास दर के साथ आगे बढ़ रही है उसमें रोजगार-निर्माण के मोर्चे पर इस कदर निराशा का माहौल क्यों है? जाहिर है, जीडीपी के हवाई दावे की खुशफहमी वास्तविक असर के अभाव में बाकी लोग स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।
बजट में दूसरी बड़ी घोषणा राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर हुई है। वित्तमंत्री ने आत्ममुग्धता के भाव में अपनी पीठ ठोकते हुए बड़ी ठसक के साथ एलान किया है कि आर्थिक माहौल में आई तब्दीली के बावजूद सरकार वित्तवर्ष 2016-17 में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 3.5 फीसद स्तर पर बरकरार रखेगी। इस घोषणा के गहरे मायने हैं, लिहाजा इस पर थोड़ा तफसील से निगाहें डालते हैं। चूंकि देश के बिगड़ते सियासी माहौल और प्रतिकूल वैश्विक आर्थिक माहौल से आशंकित विदेशी पूंजी का पलायन जारी है, लिहाजा यह घोषणा हुई है।
मगर बड़ी पूंजी के आगे घुटने टेकते हुए भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय घाटे को इतने कम स्तर तक ले जाने की इस अतार्किक जिद की सबसे बड़ी कीमत आम जनता को चुकानी पड़ेगी। सरकार के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं है जिससे राजकोषीय घाटे को इस सीमा के भीतर कर दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो राजकोषीय घाटे को इस सीमा में रखने का सीधा-सीधा मतलब है कि सरकार किफायतशारी के नाम पर सामाजिक और ग्रामीण विकास की योजनाओं के आबंटन में कटौती करेगी। गरीब और मध्यम वर्ग को अलग-अलग जिंसों पर दी जाने वाली सबसिडी पर भी, तार्किकÓ बनाए जाने के नाम पर, कैंची चलाई जाएगी। एक ऐसे समय में, जबकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह संकट
में फंसी हुई है, राजकोषीय घाटे को साढ़े
तीन फीसद की सीमा में रखने की जिद खेती-किसानी की मुश्किलों की आग में घी का
काम करेगी।
असल में राजकोषीय घाटा ऊंचा रहने के कारण कॉरपोरेट समूहों के मालिकों को निवेश पर मिलने वाले प्रतिफल में कमी आती है। आईएमएफ और विश्व बैंक से जब कोई देश कर्ज लेता है तो उस देश को इन संस्थानों का संरचनात्मक सुधार कार्यक्रमÓ लागू करना होता है। सरकारी खर्च में कमी करके राजकोषीय घाटे को कम से कम रखना इस कार्यक्रम का अहस हिस्सा है। अचरज नहीं होना चाहिए कि वित्तमंत्री ने अपने बजट का शुरुआती अहम भाग राजकोषीय घाटे को काबू में करने के मुद््दे पर लगा दिया। बड़ी कंपनियों पर पुरानी तिथि से लागू होने वाला करÓ नहीं लगाए जाने की बजटीय घोषणा को भी इसी तारतम्य में देखना चाहिए। दरअसल, एक तरह से यह कंपनियों पर बकाया करोड़ों रुपए के कर्ज की माफी है।
बजट में की गई कर संबंधी घोषणाओं पर गौर कीजिए। वित्तमंत्री ने कहा है कि प्रत्यक्ष कर प्रस्तावों में 1060 करोड़ रुपए की कमी की जाएगी, वहीं अप्रत्यक्ष कर प्रस्तावों में 20,600 करोड़ रुपए का खासा इजाफा किया जाएगा। कहना न होगा कि यह लक्ष्य अधिभार (सैस) लगा कर हासिल किया जाएगा, जिसका सबसे बुरा असर आम आदमी पर पड़ेगा। अप्रत्यक्ष करों की बनावट और अधिरोपण की तरीका ही ऐसा है कि एक सीमा के अधिक होने पर यह मुद्रास्फीति को हवा देता है। ऐसे में पहले से ही नरम घरेलू मांग और कुंद हो जाएगी। एक तरह से, बजट में सरकार ने बड़ी आमदनी वाले लोगों और कंपनियों के हितों को सुरक्षित रखने के फेर में व्यापक अर्थव्यवस्था के हितों की उपेक्षा कर दी है। सौ करोड़ और पांच सौ करोड़ रुपए के मामूली आबंटन वाली छोटी-मोटी घोषणाओं को परे रख कर अगर बड़े तराजू पर इस बजट को तौलें तो कह सकते हैं कि सरकार के कर प्रस्तावों से महंगाई कम होने के बजाय और बढ़ेगी।
रोजगार के मोर्चे पर भी निराशा ही हाथ लगी है। इस मामले में किए गए बजटीय प्रावधान सरकार की जुमला नीतिÓ को आगे बढ़ाते प्रतीत होते हैं। भारत में निर्माणÓ (मेक इन इंडिया) के तमाम हवाई दावों के बावजूद विनिर्माण क्षेत्र में बढ़त का कोई नामो-निशान नहीं है। लगातार ग्यारह महीनों से निर्यात में जबर्दस्त गिरावट जारी है, सेवा क्षेत्र में ठहराव बना हुआ है और कृषि क्षेत्र में गिरावट थमने का नाम नहीं ले रही। क्या कोई समझदार शख्स इस बात पर यकीन करेगा कि पांच सौ करोड़ रुपए के आबंटन से करोड़ों कामकाजी हाथों के लिए रोजगार पैदा हो जाएंगे या खाद्य उत्पादों के उत्पादन और विनिर्माण में सौ फीसद विदेशी निवेश की अनुमति देने से आत्महत्याओं, सूखे व गिरते फसल उत्पादन की जकड़ में फंसे कृषि क्षेत्र का संकट दूर हो जाएगा? वित्तमंत्री ने इस बजट को आकांक्षाओं और उम्मीदोंÓ को पूरा करने वाला बताया है, लेकिन इसकी कोई ठोस रणनीति बजट में नहीं दिखती।
अगर आवरण को परे रखें तो नीतिगत रूप से इस बजट और यूपीए सरकार के बजटों में कोई खास फर्क नहीं है। मुद्रास्फीति से समायोजित करके देखें तो शिक्षा से लेकर ग्रामीण विकास तक की अधिकतर योजनाओं के आबंटन में कटौती की गई है। अंतर इतना भर है कि बड़ी कंपनियों और उच्च आय वर्ग के लोगों को दी गई राहतों पर छोटी-मोटी कथित बड़ा बदलावÓ लाने वाली योजनाओं की चिप्पी लगा दी गई है। गरीबों के लिए अच्छे दिनोंÓ का वादा भी काला धन वापस लाने की तरह एक और जुमला भर साबित हुआ है। चूंकि बजट में अर्थव्यस्था की बुनियादी कमजोरियों को दूर करने का उपाय नहीं किया गया है, लिहाजा आने वाले दिनों में खासकर आम आदमी की मुश्किलें और बढऩे के ही आसार हैं।
उच्च शिक्षा को बाजार को सौंपने की पूरी तैयारी
ब जट में हर प्रकार के भेदभाव से मुक्त और समानता के सिद्धांत पर टिकी समान स्कूल व्यवस्था के लिए वित्त मंत्री एक भी पैसा देने को तैयार नहीं हैं। बजट में उच्च शिक्षा को तो विश्व व्यापार संगठन के निर्देश पर बाजार को सौंपने की पूरी तैयारी है। इसीलिए बजट के जरिए उच्च शिक्षा वित्तपोषक एजेंसीÓ (एचईएफए) को 1,000 करोड़ रुपए की उद्घाटनÓ राशि के साथ खोलकर पीपीपी के तहत निजी संस्थानों को सार्वजनिक धन लुटाने के लिए दरवाजे खोल दिए हैं। लेकिन पिछले वित्त वर्ष में उच्च शिक्षा के बजट में लगभग 13,000 करोड़ रुपए की जो कटौती की गई थी उसकी भरपाई के बाबत बजट में कुछ भी कहने से इंकार करके शिक्षा के बाजारीकरण के प्रति अपनी कटिबद्धताÓ जाहिर कर दी है। उधर, वित्त मंत्री ने बजट में हमारे कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों को वल्र्ड क्लासÓ बनाने की बात करके जनता में भ्रम फैलाया। उन्होंने यह नहीं बताया कि तथाकथित वल्र्ड क्लासÓ की अवधारणा का भारत के हालात एवं जरूरत या संवैधानिक मूल्यों से कोई लेनादेना नहीं है।
सपनों के बजट में घुमड़ता किसान
वित्त वर्ष 2016-17 के लिए संसद में पेश किए गए केंद्रीय बजट में मोदी सरकार ने अगले पांच वर्षों में किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा आज पेश किए गए बजट की यह सबसे अहम बात है। हालांकि बजट का अर्थशास्त्र कैसे काम करता है इस मामले में मेरी समझ कमजोर है, बावजूद इसके आगामी पांच साल में किसानों की आय को दोगुना करने का सरकार का विचार एक सपने जैसा मालूम पड़ता है। इसलिए जरूरी था, वित्त मंत्री अरुण जेटली देश को यह बताने का साहस करते कि यह लक्ष्य कैसे हासिल किया जाएगा। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए पांच साल में हर वर्ष खेती की आय में करीब 14 फीसदी सालाना बढ़ोतरी की जरूरत होगी। खेती और किसानी के लिए सरकार द्वारा बजट में की गई घोषणाओं से तो समझ में नहीं आया कि पांच साल में किसानों की आय दोगुनी कैसे हो जाएगी। ये तो बस कृषि क्षेत्र को आवंटित बजट राशि में किस मद में कितना खर्च होना है उसका ब्योरा बताया गया है। इस बजट राशि से सीधे तौर पर किसानों का कोई भला नहीं हो सकता।
जीएसटी से वित्त मंत्री को उम्मीद
वित्त मंत्री ने इशारा किया है कि जीएसटी लागू होने पर सेवा कर में इजाफा होना ही था। जीएसटी लागू होने पर सभी तरह के सेस अपने आप ही खत्म हो जाएंगे। लिहाजा सर्विस टैक्स में बढ़ोतरी को इसी रुप में लिया जाना चाहिए। लेकिन यहां दो बातें हैं। एक अगर सैसे लगाना ही था तो दूसरे किसी तरीके से क्या किसी तरह की रियायत नहीं दी जा सकती थी ताकि लोगों को लगता कि कुछ निकाला तो कुछ जेब में डाला भी गया है। दूसरी बात है कि जीएसटी अगले साल एक अप्रैल से पहले लागू हो पाएगा इसमें भी संदेह है। तो क्या एक साल पहले से सर्विस टैक्स बढ़ाना कितना जायज है। फिर इस बात की क्या गारंटी कि जीएसटी लागू होने पर सर्विस टैक्स 15 फीसद ही रहेगा। माना जा रहा है कि जीएसटी 18 फीसद ही रह सकता है ऐसे में क्या सर्विस टैक्स 15 से बढ़कर 18 फीसद हो जाएगा। अभी कहानी साफ नहीं है ऐसे में जीएसटी से इसे जोड़कर जनता के गुस्से को शांत करने के तर्क सही नहीं ठहरते हैं।
इधर मलैया ने वैट बढ़ाकर काटी जेब
मध्यप्रदेश के वित्त मंत्री जयंत मलैया ने वर्ष 2016-17 का एक लाख 58 हजार करोड़ का बजट पेश किया। सरकार ने खजाना भरने के लिए टैक्स में एक बार फिर बढ़ोतरी की है। उससे विभिन्न सेक्टर्स के एक्सपर्ट खुश नहीं हैं। उनका कहना है कि बजट में कुछ खास नहीं है। पहली झलक में ये बहुत ही सामान्य है। वित्त मंत्री ने बजट में लगभग हर सेक्टर में खर्च की सीमा बढ़ाई है। उन वस्तुओं पर वैट कम किया है, जिनका उपयोग भी कम है। पेट्रोल-डीजल पर लगने वाले टैक्स को कम करने की बात हो, या फिर रियल एस्टेट के लिए राहत की कोई बात हो, ऐसा बजट में कुछ भी नहीं है। एक्सपर्ट का कहना है कि जो सस्ता किया है, उससे आम आदमी को ज्यादा फायदा नहीं मिलेगा, लेकिन महंगा किया है उससे शहर से लेकर गांव तक महंगाई नजर आएगी।
हालांकि तमाम आरोप प्रत्यारोप के बाद भी कहा जा रहा है कि वैश्विक आर्थिक मंदी,सूखा और पीडि़त किसानों को मुआवजा देने के बावजूद मध्यप्रदेश सरकार में वित्त मंत्री जयंत मलैया ने कमोवेश बेहतर बजट पेश किया है। डेढ़ लाख करोड़ के आकार के ऊपर पहुंचे इस बजट में सभी वर्गों,पक्षों और विषयों को ध्यान में रखने की कोशिश की गई है। इस कारण यह बजट समावेषी अवधारणा को पूरा करते हुए सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय की उक्ति को चरितार्थ करने वाला बजट है। यदि इस बजट में विलासिता की वस्तुओं,महंगी कारों और शराब में कर वृद्धि कर दी गई होती तो यह बजट सोने में सुहागा वाला बजट कहला सकता था। इस बजट में कृषि और कृषि को बढ़ावा देनी वाली योजनाओं को पोषित करने पर ज्यादा बल दिया गया है,इस नाते यह कृषि केंद्रित बजट दिखाई दे रहा है। ऐसा इसलिए भी जरूरी था,क्योंकि आज भी प्रदेश की 72 प्रतिशत आबादी खेती-किसानी पर निर्भर है और मध्यप्रदेश की जो विकास दर 10 फीसदी बनी हुई है,उसमें प्रमुख भागीदारी कृषि की ही है। इस तथ्य की पुष्टि राष्ट्रीय स्तर पर मध्यप्रदेश को लगातार पिछले चार साल से मिल रहे कृषि-कर्मण सम्मान से होती है। किसानों की उत्पादक क्षमता के चलते ही आज प्रदेश गेहूं उत्पादन में नंबर 1 पर आ गया है। बावजूद इस बजट में ऐसे कोई उपाय देखने में नहीं आए हैं कि खेती,किसान के लिए लाभ का धंधा हो जाए और किसान को आत्महत्या न करनी पड़े।