03-Mar-2016 07:40 AM
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श का प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इन दिनों सुर्खियों में है। इसलिए नहीं कि वहां कोई एडवांस रिसर्च हुई है या फिर शिक्षा जगत में कोई बड़ा काम हुआ है, बल्कि इसलिए कि परिसर में कुछ लोग कैमरे में यह नारा लगाते हुए

कैद हुए हैं-
भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी...कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी...अफजल के अरमानों को मंजिल तक ले जाएंगे...बंदूक के बल पर... आजादी...अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं...। जेएनयू की इस तस्वीर ने कई परेशान करने वाले सवालों को जन्म दे दिया है। हालांकि कन्हैया कुमार, जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष को देशद्रोह के आरोप पर गिरफ्तार कर लिया गया है। लेकिन इससे विवाद थमने की बजाए और बढ़ गया है। देश के खिलाफ कैम्पस में उठती आवाजों को एकजुट होकर बंद कराने की कोशिश करने की अपेक्षा जिस तरह हमारे कुछ नेताओं ने इसका समर्थन किया है उससे माहौल और बिगड़ गया है।
जेएनयू हमेशा से कम्युनिष्टों का गढ़ रहा है। इसलिए यह विश्वविद्यालय अतिबुद्धि का शिकार हो रहा है। अतिबुद्धि तभी तक अच्छी लगती है जब तक यह किसी की नाक नहीं छूते हैं। जेएनयू में अतिबुद्धिवादियों ने हद पार कर ली है। जेएनयू में 9 फरवरी को आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजकों में एक रिसर्च स्टूडेंट उमर खालिद भी था। दावा किया जा रहा है कि उमर खालिद डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन (डीएसयू) का सदस्य है और उसने बयान दिया है मैं कश्मीर पर भारत के कब्जे के खिलाफ हूं। मैं यह जाहिर करना चाहता हूं कि मैं कश्मीर से नहीं हूं लेकिन मेरा यह विश्वास है कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसे भारत का कब्जा ही कहा जाएगा।Ó लिहाजा, कौन हैं ये लोग जो देश की राजधानी में बैठकर भारत की बर्बादी का नारा बुलंद कर रहे है और कौन हैं वो लोग जो विश्वविद्यालय के युवा स्टूडेंट्स को अपने माता-पिता के अरमानों को भूलकर अफजल के अरमान के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। यहां दो मुद्दे हैं। कन्हैया कुमार कहता है कि उसकी लड़ाई गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ है। विरोध कर रहे एक दूसरे स्टूडेंट का कहना है कि उसका संघर्ष महिलाओं और पिछड़ी जातियों के खिलाफ बढ़ रहे अपराधों के विरोध में है। यह लड़ाई सांप्रदायिक ताकतों और दंगों के खिलाफ है। यह एक नेक काम है और इसके लिए छात्रों का सशक्तिकरण होना चाहिए। ऐसे में सवाल यह है कि इस नेक काम को कैसे भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी के नारे के साथ पूरा किया जाएगा? और साथ ही क्या यह कहना कि भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी हमारे अभिव्यक्ति के अधिकार के दायरे में है।
आश्चर्य होता है कि क्या जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की हाल की परेशानी का समाधान कुछ अधिक सम्मानित शिक्षकों द्वारा निकाला जा सकता था? वे विरोध-प्रदर्शन करने वाले छात्रों को चाय पर बुलाते और उन्हें वास्तविक दुनिया को समझने की सलाह देते। दु:खद यह रहा कि इस बार छात्र सभी सीमाएं लांघ गए। अगर वे अपनी मांग को हॉस्टल के हर कमरे में मुफ्त और तेज चलने वाला इंटरनेट उपलब्ध कराने तक सीमित रखते तो यह समझ में आता, बल्कि इसका स्वागत भी किया जाता, लेकिन दुर्भाग्य से उन्होंने फांसी पर लटकाए जा चुके कश्मीरी आतंकी अफजल गुरु के महिमामंडन का फैसला कर अशांति को जन्म देने का काम किया। उनकी इच्छा भारत को बर्बाद होते देखने की भी थी। राजनीतिक अतिवाद का यह कृत्य उन लोगों के लिए सामान्य-स्वाभाविक बात हो सकती है, जो यह मानते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार को परेशान करने वाला हर मामला अहमियत रखता है। लेकिन जेएनयू का कैंपस एक स्वतंत्र-स्वायत्त गणराज्य नहीं है। यह समाज का हिस्सा है। जेएनयू के कुछ छात्र जिस मुक्त जीवटता पर जोर दे रहे हैं, वह व्यापक समाज की सर्वमान्य मान्यताओं के खिलाफ है। इस प्रकरण ने सरकारी सहायता पर पलने के बावजूद राष्ट्र के बुनियादी मूल्यों का निरादर करने वाले छात्रों की नकारात्मकता को सामने ला दिया है। शैक्षिक संस्थानों के कैंपस हमेशा छात्रों और शिक्षा से जुड़े लोगों को अतिरिक्त सहूलियत देते हैं। रचनात्मकता की एक शर्त बेचैनी है, लेकिन इसकी एक लक्ष्मण रेखा भी होती है, जो बुनियादी रचनात्मकता की सीमाओं का निर्धारण करती है।
जेएनयू के जिन छात्रों ने इस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया, वे न केवल भारत को निशाना बनाने के दोषी हैं, उन्होंने सामान्य संवेदनशीलता और समझदारी का भी अपमान किया है। उन्होंने अपनी विशेषता के अहंकार का परिचय दिया है और अगर ऐसी हरकतों की नकल को रोकना है तो उनका कृत्य कुछ न कुछ अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग करता है। पिछले अनेक वर्षों से सरकार की मेहरबानी व उदारता का लाभ उठाने के बावजूद जेएनयू नारेबाजी व बुनियादी कट्टरपंथ का अड्डा बन गया है। यह सही समय है जब इसे मुख्यधारा में वापस लाने के प्रयास किए जाएं और दक्षता के केंद्र के रूप में इसकी स्थापना के औचित्य को सही साबित किया जाए। एक कैंपस को चरमपंथ की नर्सरी बनकर रह जाने की अनुमति तो नहीं ही दी जा सकती है। हैदराबाद और जेएनयू कैम्पस में हाल के दिनों में हुई घटनाएं जितनी दुर्भाग्यपूर्ण हैं, उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है उनका निरा राजनीतिकरण। यह हमारे मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य की दुर्गति के बारे में भी सूचना देता है, जिसमें लगभग किसी भी मुद्दे पर सर्वसम्मति का बनना तो जैसे असंभव ही हो गया है। साथ ही लगभग हर टकराव राजनीतिक हितों को भुनाने का अवसर बनता जा रहा है। ऐसे में यह देखना दु:खद भले हो, आश्चर्यजनक नहीं था कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मुस्तैदी से पहले हैदराबाद और फिर जेएनयू में नजर आए, क्योंकि कैम्पस में छात्र असंतोष के उभार से उनका सरोकार हो या न हो, केंद्र सरकार को घेरने का कोई भी अवसर चूकने को वे तैयार नहीं हैं। यही बात दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बारे में भी कही जा सकती है। इसके बावजूद, पटियाला हाउस कोर्ट में कन्हैया कुमार, उसके समर्थकों और पत्रकारों पर हुआ हमला निंदनीय है। पुलिस को उन सभी लोगों की शिनाख्त करनी चाहिए जो इन हमलों में शामिल थे और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए।
राहुल-केजरीवाल की सबसे बड़ी गलती!
हमारे देश की राजनीति का स्तर इतना गिर गया है की कुछ नेता तो अपने राजनीतिक कुर्ते की सफेदी चमकाने के लिए किसी भी प्रकार के हथकंडे अपनाने से नहीं चूक रहे। अब चाहे बात राहुल गांधी की हो या केजरीवाल की, दोनों ही अपने हर नये बयान के बाद एक नौसिखिये नेता के रूप में राजनीति सीखते हुए बच्चे की तरह नजर आते हैं। शायद इन दोनों ने इतनी पढ़ाई पहले ही कर ली है कि इन्हें देश की संप्रभुता और स्वाभिमान से कोई मतलब नहीं इसीलिए शायद ये पिछले दिनों जेएनयू में हुए बवाल में उन अराजक तत्वों के साथ खड़े हैं, जिन्होंने देश की अखण्डता व संप्रभुता को खंडित करने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वालों के बचाव में एक कुतर्क यह भी पेश किया जा रहा है कि वहां इस तरह का काम पहले भी होता रहा है। जैसे 2010 में छत्तीसगढ़ में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या पर खुशी जताई जा चुकी है। एक अन्य कुतर्क यह भी है कि कश्मीर घाटी में भी अफजल के समर्थन में नारें लगते हैं। क्या यह कहने की कोशिश हो रही है कि अगर ऐसे ही नारे देश में भी लगे तो भी हर्ज नहीं? बरहाल, राष्ट्रविरोधी नारे लगाना एक लोकतान्त्रिक देश में कुछ लोगों की नजर शायद ही छोटा अपराध हो, पर देश के सच्चे नागरिक के लिए इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि उसके अपने देश में ही देश विरोधी नारे लगाएं जाएं। इससे बड़ा अपराध क्या होगा? अब देश के सम्मान से बढ़कर भी कोई राजनीति मायने रखती है क्या? पर शायद कुछ नेताओं और उनकी पार्टियों को हर मुद्दे पर विरोध की राजनीति करने का चस्का ही लग गया है, ऐसे में उनसे किसी सार्थक और क्रियात्मक सोच की उम्मीद करना बेमानी ही होगा, क्योंकि शायद ऐसे नेता अपने पौरुष पर नहीं, बल्कि कुछ विकलांग और विक्षिप्त मानसिकता के लोगों के बल पर ही ऐसा व्यवहार करते हैं।
हम भी भारतीय हैं, आतंकी ना समझें
तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगाÓ 9 फरवरी को प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में जब चेहरा छुपाए कुछ तत्वों ने ऐसे नारे लगाए तो उन्हें अंदाजा नहीं रहा होगा कि उनकी ये देशविरोधी हरकत विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हजारों छात्रों को किस तरह मुश्किल में डाल देगी। आज हालत ये है कि तमाम ऐसे छात्र जिनका इस घटना से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था, अपनी पढ़ाई, करियर और रहने की जगह तक को लेकर परेशान हैं। परेशानी सिर्फ उन तक सीमित नहीं बल्कि देश के अलग-अलग हिस्सों में उनके परिवार भी उनकी सलामती को लेकर फिक्रमंद हैं। छात्रावास के अभाव में जेएनयू में पढ़ाई कर रहे छात्रों की एक बड़ी संख्या पास के मुनिरका में रहती है लेकिन हाल ही में देश विरोधी गतिविधियों के आरोप में विवादों में आए इन छात्रों को अब मकान मालिकों ने चलता करने का मन बना लिया है। जेएनयू से लैंग्वेज का कोर्स कर रहे आदित्य कहते हैं कि उनके मकान मालिक ने बेटे की शादी का बहाना बनाकर कमरा खाली करने को कहा है। आदित्य का कहना है कि कैंपस के भीतर चल रहा यह पूरा विवाद छात्रों के लिए काफी चिंताजनक है। हम यहां पढऩे के लिए आए हैं न कि राजनीति के लिए। जिस संस्थान का नाम पहले गर्व से लेता था, आजकल लेने में हिचकता हूं। 9 फरवरी की घटना पर आदित्य कहते हैं कि अब तक यह साफ पता नहीं चल पाया कि उस शोर-शराबे के बीच नारेबाजी किसने की।
जेएनयू से पढ़ाई कर रहे अनुराग कहते हैं कि कैंपस के भीतर देश विरोधी नारे ही नहीं लगते, सैनिकों की शहादत पर खुशियां भी मनाई जाती हैं, निश्चित रूप से ये चिंता का विषय है। अनुराग कहते हैं कि जेएनयू में कैंपस का माहौल हमेशा से ही काफी जीवंत रहा है और आज भी है लेकिन कुछ तत्व इसे खराब करने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि अनुराग मानते हैं कि कुछ दिन में सब ठीक हो जाएगा और जेएनयू छात्रों की जीत होगी। अनुराग कहते हैं कि इस मामले को राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है। उस दिन शाम के समय भीड़ काफी ज्यादा थी और चंद लोगों ने विवादास्पद नारे लगाए लेकिन अब तक यह सुनिश्चित नहीं हो पाया है कि वे छात्र कैंपस के थे या नहीं।
-इन्द्र कुमार