17-Feb-2016 06:34 AM
1234765
उत्तर कोरिया ने रॉकेट छोड़ा लेकिन दुनिया के अधिकतर देश इसे अन्र्तमहाद्वीपीय मिसाइल लांच का परीक्षण ही मान रहे हैं। इससे पहले कथित रूप से हाईड्रोजन बम का परीक्षण कर चुके उत्तर कोरिया का यह कदम खुद को सैन्य दृष्टि से

समृद्ध घोषित करने के साथ-साथ अमरीका को सीधी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। कौन है उत्तर कोरिया का मददगार? क्या सचमुच इस कदम से दुनिया पर परमाणु युद्ध का खतरा मंडरा रहा है? क्यों चिंतित हैं अमरीका और जापान सरीखे जैसे देश? वैश्विक कूटनीति के लिहाज से क्या निकल सकते हैं इसके मायनेï? क्या संयुक्तराष्ट्र उत्तर कोरिया के खिलाफ और अधिक सख्त प्रतिबंधात्मक कदम लगाने की तैयारी में है? दुनिया की बड़ी शक्तियों को ऐसा लगता है कि उत्तर कोरिया का राजनैतिक ढांचा लोकतांत्रिक और पारदर्शी नहीं होने के कारण उससे बात करना या उसके साथ संबंध बनाना बहुत ही कठिन है। यही वजह है कि उस पर किसी किस्म का दबाव बना पाना भी कठिन है। चूंकि पूर्व में वह परमाणु कार्यक्रम पर अंकुश की शर्तों की उपेक्षा करता रहा है, इससे उसके प्रति शंका और अधिक बढ़ गई है। ऐसे में पहले तो उसने जनवरी में थर्मोन्यूक्लियर परीक्षण को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और अब उसने लंबी दूरी की मिसाइल दागने की शक्ति दिखलाई है। हालांकि उत्तर कोरिया ने इसे अर्थ ऑब्जर्वेशन सेटेलाइट लांच नाम दिया है और इसे राकेट की लांचिंग कहा है लेकिन अमरीका, जापान और दक्षिण कोरिया इसे परोक्ष तौर पर लंबी दूरी की मिसाइल का परीक्षण ही मान रहे हैं। ऐसा समझा जाता है कि इस लंबी दूरी की मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद उत्तर कोरिया के पास अमरीका के न्यूयॉर्क और वाशिंगटन तक परमाणु हमला करने की ताकत आ जाएगी।
जहां तक परमाणु और मिसाइल परीक्षण का सवाल है तो वैधानिक तौर पर उ. कोरिया की ओर से किसी भी अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं किया जा गया है। वह संप्रभु राष्ट्र है और उसे परमाणु शोध और परीक्षण करने का पूर्ण अधिकार है। उल्लेखनीय है कि वह 1963 से ही अपने मिसाइल तकनीक और परमाणु कार्यक्रम पर काम कर रहा है। उसके इस काम को सोवियत रूस व चीन की ओर से समय-समय पर समर्थन और सहायता मिली है। 1993 में उ. कोरिया में जब किम जोंग उन के पिता किम जोंग इल का शासन था, तब ही उन्होंने अपने देश को परमाणु अप्रसार संधि से अलग होने की बात कही थी। इसके बाद 1994 में एक फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके तहत तय किया गया था कि अमरीका, दक्षिण कोरिया, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी उत्तर कोरिया को ऊर्जा के क्षेत्र में सहायता उपलब्ध कराएंगे। लेकिन, उत्तर कोरिया को कालांतर में यह लगा कि इस समझौते के मुताबिक उसे सहायता उपलब्ध नहीं कराई जा रही है तो उसने आखिरकार 2003 में इस परमाणु अप्रसार संधि से खुद को अलग कर लिया। तब से ही उसके परमाणु कार्यक्रम में गति आई और अब तक वह चार परमाणु परीक्षण कर चुका है। यह बात फिलहाल कपोल कल्पना ही लगती है लेकिन इस बात को कोई सोचकर देखे कि यदि उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया का एकीकरण हो जाए तो विश्व पटल पर एक बड़ा और शक्तिशाली राष्ट्र सामने होगा। फिलहाल उ. कोरिया ऐसा राष्ट्र है जिस पर विशेष अंकुश काम नहीं आ रहे हैं।
सबसे ज्यादा खतरा जापान और दक्षिण कोरिया को लगता है। दोनों ही देश इसके काफी नजदीक हैं। फिर दबावों की बातों पर उसके उपेक्षापूर्ण रवैये से भी अन्य देशों को इससे डर लगता है। यदि दुनिया के शक्तिशाली देश अमरीका के राष्ट्रपति ओबामा के कार्यकाल के संदर्भ में इसे देखें तो जो चार परीक्षण उ. कोरिया ने किए, उसमें से तीन तो ओबामा के कार्यकाल में ही हुए। वे ईरान की तरह उ. कोरिया पर काबू नहीं पा सके। यही नहीं अब तो उसने लंबी दूरी के मिसाइल के सफल परीक्षण से अमरीका तक पहुंच बना ली है। खतरे की बात यहीं तक सीमित नहीं है। उत्तर कोरिया ने अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले रखने के लिए मिसाइलें और मिसाइल तकनीक पाकिस्तान, मिस्त्र, ईरान, म्यामांर, लीबिया, नाइजीरिया, सीरिया, लीबिया, संयुक्त अरब अमीरात, वियतनाम को बेची हैं। इसका अर्थ यही है कि उ. कोरिया न केवल एनपीटी की उपेक्षा करता है बल्कि धड़ल्ले से इसकी सोच का उल्लंघन भी करता है। सोच का इसलिए क्योंकि वह तो एनपीटी की वर्तमान में सदस्य नहीं है। दुनिया की बड़ी शक्तियों को उसके इस व्यवहार के कारण दुनिया के लिए खतरा दिखाई देता है।
-श्याम सिंह सिकरवार