16-Feb-2016 09:13 AM
1234811
दिल्ली और बिहार चुनावों में हार के बाद अगर भाजपा कमजोर हुई है तो इसका यह मतलब नहीं कि कांग्रेस ताकतवर हो गई है। उल्टे वह तो दिन-प्रतिदिन और गर्त में जाती नजर आ रही है। केरल में जो हो रहा है, वह कांग्रेस की

पतनशील स्थिति की ही एक बानगी है। सोनिया गांधी ने पार्टी के रोजमर्रा के कामकाज में दिलचस्पी लेना धीरे-धीरे बहुत कम कर दिया है और परिपक्व राजनीति के मामले में राहुल के क्या हाल हैं, यह तो खैर जगजाहिर ही है। ज्यादा से ज्यादा राज्यों में अपनी स्थिति मजबूत करना तो दूर, जिन नौ राज्यों (जिनमें से अधिकतर पूर्वोत्तर के छोटे प्रदेश हैं) में उसकी सरकार है, वहां भी उसकी हालत पतली नजर आ रही है। मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में कांग्रेस आज भी भाजपा की इकलौती प्रतिद्वंद्वी है, लेकिन प्रेरक और प्रभावी केंद्रीय नेतृत्व के अभाव में प्रांतीय नेता भी कुछ करने की स्थिति में नजर नहीं आ पा रहे हैं। जल्द ही असम में चुनाव होने जा रहे हैं, लेकिन कांग्रेस वहां सत्तारूढ़ होने के बावजूद बहुत अच्छी स्थिति में नजर नहीं आ रही। दक्षिण के राज्यों में तमिलनाडु में तो उसके अच्छा प्रदर्शन करने के भी कोई आसार नहीं और केरल में जो हो रहा है, वह सबकी नजर में है।
केरल के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ओम्मन चांडी सोलर घोटाले में फंसे हैं। उन पर 1.9 करोड़ रुपए की रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया है। जब एक निचली अदालत ने चांडी के खिलाफ जांच का आदेश दिया और पुलिस को एफआईआर दर्ज करने को कहा तो एक बारगी लगा कि इस कांग्रेसी मुख्यमंत्री के लिए अब अपनी कुर्सी बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। हाईकोर्ट के स्थगन आदेश ने फिलहाल तो चांडी की कुर्सी बचा ली है, लेकिन जनता की अदालत में उनका क्या फैसला होगा, यह शीघ्र ही पता लग जाएगा। चुनावों से पहले कांग्रेस के लिए दुविधा यह है कि चांडी का क्या करें? अगर उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ें तो भ्रष्ट पार्टी का तमगा उस पर लग जाएगा और अगर वह चांडी को दरकिनार कर किसी अन्य के नेतृत्व में चुनाव लडऩे का निर्णय लेती है तो उसे केरल इकाई के असंतोष का शिकार होना पड़ेगा और चुनाव जीतने के उसके अवसर धूमिल हो जाएंगे। कांग्रेस के लिए केरल में राहत की बात यही है कि माकपा की अगुआई में चुनाव लडऩे वाले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की हालत भी खस्ता है। बहरहाल, एंटी इन्कबेंसी केरल की राजनीतिक हकीकत रही है और वहां हर चुनाव में सरकार बदल जाती है। इसको देखते हुए कांग्रेस के लिए वहां सत्ता में वापसी करना टेढ़ी खीर ही साबित होगा। केरल की कांग्रेस हुकूमत से उभरकर आने वाला यह कोई पहला घोटाला नहीं है। गत वर्ष भी बार घोटाले में केरल के वित्त मंत्री केएम मणि पर पुलिस रिपोर्ट दर्ज किए जाने के बाद उन्हें पद से हटा दिया गया था। केरल हाईकोर्ट ने तब मणि के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां की थीं। इसके बाद सरकार ने मणि से तुरंत पल्ला झाड़ लिया था। लेकिन मणि कोई मामूली नेता नहीं हैं। वे मजबूत जनाधार वाले अत्यंत लोकप्रिय नेता हैं और 50 वर्षों से चुनाव जीतते आ रहे हैं। 1965 से लेकर अब तक लगातार ग्यारह विधानसभा चुनाव जीतने वाले मणि के बिना मैदान में उतरना कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा झटका होगा। इससे पहले केबी गणेश कुमार भी कांग्रेस का साथ छोड़ चुके हैं। उधर बार घोटाले की आंच एक अन्य मंत्री के. बाबू तक पहुंच चुकी है। बाबू भी चांडी के बेहद करीबी माने जाते हैं। हाल ही में केरल में हुए नगरीय निकाय और ग्राम पंचायत के चुनावों में कांग्रेसनीत यूडीएफ को मुंह की खानी पड़ी है। कुल मिलाकर चुनावों से ऐन पहले केरल कांग्रेस में खलबली का आलम है। अब पूर्वोत्तर की बात करें। वहां पर पांच राज्यों असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मेघालय में कांग्रेस की सरकारें हैं। ये सभी केंद्र सरकार पर पक्षपातपूर्ण रवैये का आरोप लगाती रहती हैं। इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने हाल ही में दिल्ली में प्रधानमंत्री द्वारा ली गई पूर्वोत्तर के प्रांतों की बैठक का भी बहिष्कार किया था। इनमें से असम में शीघ्र चुनाव होने जा रहे हैं। वहां मुख्यमंत्री तरुण गोगोई अंदरूनी फूट के शिकार हैं। हाई-प्रोफाइल नेता हेमंत बिस्व शर्मा ने इसी के चलते कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ले ली है। अनेक लोक कल्याणकारी योजनाएं भी गोगोई के पक्ष में माहौल बनाने में कामयाब नहीं हो पा रही हैं। अरुणाचल प्रदेश में यह आलम है कि वहां पार्टी की अंदरूनी फूट के चलते राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा है, हालांकि इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी गई है। ऐसे में जाहिर है कि आज कांग्रेस को बाहरी दुश्मनों की दरकार नहीं, अंदरूनी फूट ही उसका बेड़ा गर्क करने में सक्षम है। नेतृत्व के संकट से जूझ रही पार्टियां ऐसे ही मुश्किल हालात का सामना करने को मजबूर होती हैं। जब हर तरफ मोदी लहर का जोर हो तो फिर इस पर कम ही ध्यान जाता है कि जो पराजित-पस्त होने के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों से दो-चार हैं, उनका क्या होगा? हरियाणा-महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम वाले दिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आंध्र प्रदेश में हुदहुद तूफान से हुई तबाही का जायजा ले रहे थे। संभव है, वे शीघ्र ही हालिया चुनावी तूफान से तबाह हुई अपनी पार्टी का भी जायजा लें। यह वे ही बता सकते हैं कि पहले लोकसभा चुनाव और फिर हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव के समय आई मोदी लहर, और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के शब्दों में सुनामी से डगमगाई कांग्रेस की नैया को किस तरह खेएंगे?
हो सकता है कि उनके पास कोई बेहतर रणनीति हो, लेकिन इसमें दोराय नहीं हो सकती कि जब कांग्रेस रूपी नौका में छिद्र होते जा रहे हैं, तब उनके हाथ में पतवार भी नहीं दिखाई दे रही है। हरियाणा-महाराष्ट्र के बाद झारखंड और जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन दोनों राज्यों में भी कांग्रेस कुछ बेहतर कर पाएगी, इसमें संदेह है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की राहें अलग हो चुकी हैं। झारखंड में कांग्रेस झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार में कनिष्ठ सहयोगी है। अपना दिल बहलाने और समर्थकों में जोश भरने के लिए कांग्रेस कह सकती है कि वह जम्मू-कश्मीर और झारखंड समेत 11 राज्यों में सत्ता में है या फिर सत्ता में सहभागी है, लेकिन कर्नाटक और केरल को छोड़ दें तो शेष सात अन्य राज्य राजनीतिक तौर पर कोई खास अहमियत नहीं रखते। उत्तराखंड, हिमाचल, असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघालय में कांग्रेस का सत्ता में होना यह भी बताता है कि वह कमजोर होने के साथ ही सिमटती भी जा रही है। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि उपरोक्त 11 राज्यों में लोकसभा की कुल सीटें 110 से भी कम हैं। स्पष्ट है कि आज कांग्रेस का भविष्य स्याह नजर आता है और कोई चमत्कार ही उसे अगले आम चुनाव में 44 से आगे 100 के पार ले जा सकता है।
अगर कांग्रेस की ओर से यह तर्क दिया जाता है कि एक समय भाजपा ने भी लोकसभा में दो ही सीटें पाई थीं तो मौजूदा हालात में वह बहुत मजबूत नहीं कहा जाएगा, क्योंकि भाजपा ने समय के साथ न केवल खुद को बदला, बल्कि उसका नेतृत्व भी बदलता गया। हो सकता है कि कांग्रेस भी खुद को बदलने की कोशिश करे, लेकिन इसके आसार दूर-दूर तक नहीं कि उसका नेतृत्व भी बदलेगा। कांग्रेसियों के लिए राहुल गांधी अभी भी पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं। कांग्रेसजन यह देखने से इनकार कर रहे हैं कि जिन्हें वह अपना खेवनहार-तारणहार कह रहे हैं, उनके हाथ में पतवार ही नहीं दिखती। वे शायद पतवार चलाना भी नहीं जानते।
चूंकि राहुल गांधी युवा हैं इसलिए उनकी तुलना अन्य युवा नेताओं से होना स्वाभाविक है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि उनकी तुलना पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के उन बचकाने बिलावल भुट्टो से भी हो रही है, जो अपनी राजनीतिक नासमझी के कारण इन दिनों हंसी के पात्र बने हुए हैं। राहुल न केवल ज्वलंत मसलों पर मौन रहते हैं, बल्कि देश और खुद अपनी पार्टी के गाढ़े वक्त में अदृश्य भी दिखते हैं। जब कभी वे बोलते भी हैं, तो या तो विवाद खड़ा हो जाता है या उनका कहा मजाक का विषय बन जाता है। वे यदा-कदा राजनीतिक रूप से परिपक्व होने के संकेत देते हैं, लेकिन जल्द ही ऐसा कुछ कह या कर गुजरते हैं कि सारी उम्मीदें ध्वस्त हो जाती हैं और फिर एक से गिनती गिनने की नौबत आ जाती है। नि:संदेह उनके पास राजनीति, समाज और शासन में सुधार के लिए कुछ विचार दिखते हैं, लेकिन शायद वे व्यावहारिक नहीं हैं या फिर कांग्रेस में उन्हें लागू ही नहीं किया जा सकता। पता नहीं क्यों, उनके रुख-रवैये से यही लगता है कि राजनीति उनके बस का रोग नहीं।
कांग्रेस की समस्या यह है उसे एकजुट रखने के लिए गांधी परिवार चाहिए, लेकिन इस तथ्य का दूसरा पहलू यह है कि गांधी परिवार अब आम जनता को प्रेरित-आकर्षित करने की क्षमता खो चुका है। आज के भारत में वह पीढ़ी मुश्किल से नजर आती है, जो कांग्रेस को सिर्फ इसलिए वोट देना पसंद करे, क्योंकि उसका नेतृत्व सोनिया-राहुल कर रहे हैं। कुछ प्रचारप्रिय कांग्रेसी जब-तब प्रियंका लाओ, पार्टी बचाओ का नारा लगाते रहते हैं। ऐसे कांग्रेसजन जितनी जल्दी यह समझ लें तो बेहतर है कि प्रियंका गांधी राहुल के मुकाबले बस थोड़ी ज्यादा भीड़ बटोरने और मीडिया में कुछ अतिरिक्त स्थान पाने में ही समर्थ हो सकती हैं। उनके साथ एक समस्या यह भी है कि वे गांधी के साथ वाड्रा भी हैं और वाड्रा के बारे में कुछ न कहना-लिखना ही बेहतर है। कुछ कांग्रेसजन ऐसे भी हैं, जो यह जताते रहते हैं कि अगर सोनिया गांधी पूरी तौर पर सक्रिय होतीं और राहुल के बजाय खुद सारे फैसले ले रही होतीं तो आज हालात दूसरे होते। यह भी एक बड़ा मुगालता है। कांग्रेस का तो बेड़ा ही इसलिए गर्क हुआ, क्योंकि सोनिया गांधी निष्क्रिय और निष्प्रभावी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर बैठाए रहीं। यदि सोनिया गांधी मनमोहन सिंह के नाकाम नेतृत्व को लेकर मूकदर्शक नहीं बनी रहतीं तो जनता कांग्रेस से इतनी आजिज नहीं आई होती।
-दिल्ली से रेणु आगाल