रंग लाई लड़ाई
16-Feb-2016 08:53 AM 1234818

महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति के लिए आंदोलन के बाद अंतत: उनकी लड़ाई रंग लाई है और उन्हें अब प्रवेश की अनुमति मिल गई है। लेकिन मुस्लिम महिलाओं को मुंबई शहर के वर्ली तट पर स्थित हाजी अली की दरगाह में प्रवेश के लिए अभी संघर्ष करना पड़ रहा है। आधुनिक दौर में जब महिलाएं हर मोर्चे पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर न केवल आगे बढ़ रहीं है बल्कि कई मामलों में तो पुरुषों को भी पीछे छोडऩे में लगी हैं। ऐसे में देश के प्रमुख मंदिरों और दूसरे आराधना स्थलों में महिलाओं को प्रवेश करने से रोकने की घटनाएं सचमुच सामंती सोच वाली नजर आती है। शनि शिंगणापुर मंदिर में जहां लम्बे विवाद के बाद महिलाओं को प्रवेश का रास्ता खुला है। मंदिरों में मर्यादा के नाम पर महिलाओं को प्रवेश से क्यों रोका जा रहा है?  मुस्लिम महिलाओं के हक के लिए लडऩे वाला संगठन दरगाह ट्रस्टी के साथ कानूनी लड़ाई भी लड़ रहा है। दरगाह के ट्रस्टीज ने ही यहां औरतों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। हाजी अली ट्रस्ट ने सफाई में कहा है कि यह सूफी संत की कब्र है इसलिए यहां महिलाओं को प्रवेश देना पाप होगा। इस्लाम के नियमों के मुताबिक महिलाओं को पुरुष संतों के करीब नहीं जाना चाहिए। संगठन का कहना है कि महिलाओं को दरगाह में जाने से रोकना असंवैधानिक है। अगर महिलाएं सच में समानता और मुक्ति की चाह रखती हैं, तो उन्हें धार्मिक तानाशाही के खिलाफ खड़े होना होगा, पूजा के अधिकार की यह लड़ाई नकली लड़ाई है। धार्मिक अधिकार की यह मांग सिर्फ इस बात की पुष्टि करता है कि धर्म महत्वूपर्ण है।
विडंबना देखिए, शनि बाधाओं के देवता हैं।  परंपरावादी कहते हैं कि महिलाओं के लिए भगवान के पास खड़े होना खराब शगुन है क्योंकि वह उन पर वक्र दृष्टि डाल सकते हैं। तृप्ति देसाई और उनकी भूमाता ब्रिगेड इन सबमें यकीन नहीं करती है। वह शनि के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर लगी पारंपरिक पाबंदी को धता बताने के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं। मुंबई में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन हाजी अली दरगाह के गर्भ गृह में प्रवेश करने और मजार को छूने के महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ रही है। एक बैरिकेड महिलाओं को पुरुषों से अलग करता है और यही उन्हें उस सूफी संत के करीब जाने से भी रोकता है जिसके सामने वह दुआ मांगने आई हैं। इससे पूजा स्थलों पर महिलाओं-पुरुषों के बीच असमानता का सवाल उठता है और फिर हमारे लिविंग रूम में चला आता है। इसका श्रेय टीवी पर रात में हंगामेदार बहस को जाता है, जहां संदिग्ध बाबा और मौलाना हमें बताते हैं कि कैसे भगवान की पूजा के मामले में होने वाली सदियों पुरानी असमानता को कानून के समक्ष आधुनिक समानता के विचारों की बेदी पर बलिदान नहीं किया जा सकता है। मैं इस मामले में बाबा और मौलवियों के साथ हूं लेकिन वे जो निर्देश देते हैं और जिसे निषेध बताते हैं उन कारणों से अलग। क्यों महिलाओं को इसकी एक अधिकार के तौर पर जरूरत है? क्यों वे ऐसी जगहों में प्रवेश करना चाहती हैं जो उन्हें हीन और अपवित्र मानते हैं? यह वह आखिरी चीज होनी चाहिए जिसके लिए महिलाएं लड़ रही हैं। दहेज हत्याएं, दंडस्वरूप रेप, वेतन असमानता, कन्या भ्रूणहत्या, साक्षरता दर, थोपी गई पर्दा प्रथा, उनके कानूनी अधिकारों की अधीनता, ऑनर किलिंग जिन्हें अभी तक समाज में उसका उचित हक नहीं मिला है। लेकिन फिर भी 21वीं सदी में, शनि की पूजा करने का अधिकार मुद्दा बन गया है। यह एक मुद्दा है लेकिन मुद्दा नहीं है। उस दुनिया में भी नहीं जहां समानता की बात दूर की कौड़ी है। पूजा के अधिकार की यह लड़ाई नकली लड़ाई है। धार्मिक अधिकार की यह मांग सिर्फ इस बात की पुष्टि करता है कि धर्म महत्वूपर्ण है। धर्म के यही मामले समाज में महिलाओं के व्यवस्थित उत्पीडऩ के लिए जिम्मेदार हैं। सभी धर्म, जो कि वास्तव में पुरुषों द्वारा ही बनाए गए हैं, ने महिलाओं को अधीन बनाकर उन्हें पुरुषों की संपत्ति बनाने से ज्यादा कुछ नहीं किया है। धार्मिक समानता का वाक्य अपने आप में ही विरोधाभासी है। जो महिलाएं धार्मिक हैं वे प्राय: पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा धार्मिक होती हैं जो कि उनकी उस मानसिकता परिचायक है जिसमें कोई व्यक्ति खुद को बंदी बनाने वाले के प्रति ही सहानुभूति रखता है।
-माया राठी

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^