02-Feb-2016 07:57 AM
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उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव की तस्वीर धीरे-धीरे साफ होने लगी है। हाल ही में समाजवादी पार्टी द्वारा अपने दम पर चुनाव लडऩे की घोषणा के 24 घंटे के भीतर ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी स्पष्ट कर दिया कि वह किसी के साथ

चुनावी तालमेल नहीं करेंगी। यह खबर यूपी में दोबारा पांव जमाने की कोशिश में लगी भाजपा को थोड़ी राहत पहुंचा सकती है लेकिन महागठबंधन के नेताओं (लालू-नीतीश) और खासकर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के लिये मुलायम-मायावती की एकला चलो की नीति बड़ा झटका है। यूपी में दशकों से वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस को पिछले तीन चुनावों में कड़ी मशक्कत के बाद भी राहुल गांधी उबार नहीं पाये तो 2017 के विधानसभा चुनाव में वह दूसरों (सपा-बसपा) के आक्सीजन के सहारे कांग्रेस के उठ खड़ा हो जाने का सपना देखने लगे थे लेकिन अब शायद ही उनका यह सपना पूरा हो पाये।
2017 में मुकाबला चाहे त्रिकोणीय हो या चतुकोणीय, लेकिन इतना तय है कि अबकी बार चुनाव की तस्वीर काफी बदली-बदली नजर आयेगी। कई नये धुरंधर मैदान में ताकत अजमाते हुए दिखाई पड़ेंगे तो 2012 के कई बड़े खिलाड़ी परिदृश्य से बाहर नजर आयेंगे। बात विकास की भी होगी और मुद्दा प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था का मुद्दा भी उछलेगा। धर्म की बातें होंगी तो साम्प्रदायिकता पर भी बहस भी छिड़ेगी। जातिगत गणित यानी वोट बैंक साधने का खेल तो यूपी में कभी बंद ही नहीं होता है। इसीलिये शायद अपराधियों और दंगाइयों, विवादित बयान देने वालों की गिरफ्तारी उनके अपराधों की बजाय उनकी जात-धर्म देखकर की जाती है। हर बार की तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में भी तमाम दलों के नरम-गरम नेता अपनी-अपनी भूमिका के साथ ताल ठोंकते दिखाई पड़ रहे हैं। कोई अगड़ों को रिझाना चाहता है तो कोई पिछड़ों, दलितों, मुसलमानों को। प्रदेश की 21 करोड़ जनता के हित की बात कोई नेता करते नहीं दिखता। सभी नेताओं के अपने-अपने दावे हैं। हम से अच्छा कौन है, यहां के हम सिकंदर की तर्ज पर तमाम दलों के नेतागण जनता को लुभाने में लगे हैं। मैदान में जंग की तैयार हो रही है तो चुनावी वॉर रूम में बैठकर भी विरोधियों पर हमले की रणनीति बनाई जा रही है। अब चुनावी जंग बैनर-पोस्टरों से नहीं लड़ी जाती है। आंदोलन की राजनीति भी करीब-करीब हाशिये पर पहुंच गई है। हाईटेक युग में सब कुछ बदल गया है। फेसबुक, ट्विटर, सोशल साइट पर प्रचार और मतदाताओं का ब्रेन वॉश किया जाता है। पहले के नेता वोटरों के विचार और समस्याएं सुनते थे, लेकिन अब मतदाताओं के ऊपर नेता अपने विचार थोप कर चलते बनते हैं।
सियासी भेड़ चाल में भले ही सभी दलों के नेता अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बता रहे हों लेकिन अपने राजनैतिक वजूद और अपने-अपने वोट बैंक को लेकर सहमे हुए भी रहते हैं। कोई भी दल अपने वोट बैंक में सेंध लगते देखना नहीं चाहता है, परंतु दूसरे के वोटरों को कैसे अपने पक्ष में लुभाया जाये इसके लिये कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती है। भाजपा चाहती है कि किसी तरह से वह बसपा के दलित और सपा के पिछड़ा वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब हो जाये तो बीएसपी नेत्री मायावती सपा का मजबूत वोट बैंक समझे जाने वाले मुसलमानों को लुभाने के लिये तमाम टोटके आजमा रही हैं। भले ही बसपा सुप्रीमो मायावती भाजपा के सहारे प्रदेश में सत्ता का सुख उठा चुकी हों लेकिन आज की तारीख में वह कोई ऐसा मौका नहीं छोड़ती हैं जिससे वह यह साबित कर सकें कि सपा-भाजपा वाले मिले हुए हैं। वह जानती हैं कि अगर यह बात वह मुसलमानों को समझाने में कामयाब हो गईं तो चुनावी हवा का रूख बदलने में देरी नहीं लगेगी। सपा के पिछड़ा वोट बैंक पर भी बीएसपी की नजर है। मायावती हमेशा से यह साबित करने में लगी रहती हैं कि मुलायम पिछड़ों के नहीं सिर्फ यादवों के नेता हैं और उनके राज में यादवों का ही भला होता है। वैसे इस हकीकत को पिछड़ा वर्ग से आने वाले तमाम गैर यादव नेता स्वीकार करने में तनिक भी परहेज नहीं करते हैं। इसमें सपा के भी कई गैर यादव पिछड़े नेता शामिल हैं लेकिन सत्ता सुख उठाने के चक्कर में वह मुंह खोलने से बचते हैं, उन्हें डर रहता है कि गैर यादव पिछड़ों को हक दिलाने के चक्कर में कहीं उनके ही पैरों पर कुल्हाड़ी न पड़ जाये। मुलसमानों और पिछड़ों को लुभाने के साथ-साथ सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर गरीब अगड़ों को आरक्षण की वकालत करके मायावती सवर्ण कार्ड भी चल रही हैं, लेकिन पढ़ा-लिखा तबका जानता है कि संविधान में संशोधन किये बिना अगड़ों को आरक्षण मिल ही नहीं सकता है, लेकिन सियासी मोर्चे पर यह सब बाते कोई खास मायने नहीं रखती है।
2012 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर बसपा का दलित वोट खिसकने की मायावती की चिंता अभी तक कम नहीं हुई है। वह 2017 तक इस मोर्चे को दुरूस्त कर लेना चाहती हैं, इसीलिये मोदी का नाम लेकर वह बार-बार कह रही हैं कि केंद्र सरकार दलित महापुरुषों के नाम का दुरुपयोग कर रही है। डॉ. अंबेडकर की 125वीं जयंती पर गरीब तथा निर्बल लोगों के लिए कोई बड़ी योजना आरम्भ नहीं की गई। इसी तरह गांधी, पटेल एवं जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं के मूल विचारों की अनदेखी भी हो रही है। मायावती अपने दलित वोट बैंक को साधे रखने व पिछड़े वर्ग के वोटों को जोडऩे के लिए हर वह पैंतरा आजमा रही हैं जिससे बसपा को वोट बैंक बचा रह सकता है। दलितों और पिछड़ों को प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण न मिलने एवं पदोन्नति में आरक्षण जैसे मुद्दे लंबित होने पर भी वह मोदी सरकार को घेरे हुए हैं। मायावती धर्म के मामले में काफी सख्त हैं। उन्हें न तो अयोध्या मसले में रूचि है न ही वाराणसी, मथुरा को लेकर उनकी चिंता है। मायावती इन मुद्दों पर भाजपा के साथ सपा को भी आड़े हाथों लेती रहती हैं। उनका कहना है कि जनता को राममंदिर से पहले सुरक्षित जीवन जीने का भरोसा चाहिए। भाजपा-सपा धार्मिक भावनाएं भड़का कर प्रदेश का माहौल बिगाडऩे में लगी हैं, जनता को सावधान रहना होगा।
दूसरों पर हमलाकर मायावती अपनी छवि को लेकर काफी सजग हैं। इसीलिये उन्होंने पिछले दिनों अपने जन्मदिन पर धन बटोरने के आरोपों पर सफाई देने में जरा भी देरी नहीं की। माया ने आरोप लगाया कि कुछ मनुवादी सोच वाली ताकतें नहीं चाहतीं कि दलित आगे बढ़ें। पार्टी से निकाले गए लोगों द्वारा मेरे खिलाफ दलित नहीं दौलत की बेटी, जैसा दुष्प्रचार किया जा रहा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि दलित समाज सच्चाई जानता है। बसपा अध्यक्ष अपने कार्यकर्ताओं से 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर रही हैं तो कार्यकर्ताओं से जन्मदिन के उपहार के रूप में यूपी की सत्ता भी मांग रही हैं। यूपी और उत्तराखंड के पंचायत चुनाव के नतीजों से भी माया का हौसला बढ़ा हुआ है। वह कार्यकताओं से यूपी-उत्तराखंड ही नहीं, पंजाब, असम व केरल जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों की खातिर तैयार रहने को कह रही हैं। पंजाब में तो कांग्रेस, बसपा और लेफ्ट के बीच गठबंधन होने की भी चर्चा चल रही है। खैर, समाजवादी नेता कहें कुछ भी लेकिन सच्चाई यही है कि 2012 के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान मायावती को लेकर समाजवादी पार्टी के नेताओं ने जो-जो घोषणा की थी, उसमें से एक भी पूरी नहीं हुई है। न तो मायावती के कार्यकाल के भ्रष्टाचार की सपा सरकार ने कोई जांच ही कराई न ही प्रचार के दौरान चीख-चीख कर, सपा सरकार बनी तो मायावती जेल में होंगी।Ó का दावा करने वाले तत्कालीन समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव माया को जेल भिजवा पाये। अखिलेश सरकार ने माया राज के भ्रष्टाचार की एक भी फाइल नहीं खोली। माया ही नहीं उनके भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ भी कोई मामला नहीं चलाया गया। उलटे मायावती मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की कार्यशैली पर प्रश्न चिन्ह लगा रही हैं। यादव सिंह का भ्रष्टाचार, लोकायुक्त का मामला, यूपीएसएससी के अनिल यादव मसले पर बसपा अखिलेश सरकार को समय-बेसमय घेरती रहती है। माया सवाल करती हैं कि भ्रष्टाचार के उक्त मसलों पर सीएम ने समझौता क्यों किया। वह यादव सिंह के भ्रष्टाचार की सीबीआई जांच नहीं कराने के अखिलेश सरकार के फैसले पर प्रश्न चिन्ह लगाती है।
कांग्रेस में मजबूत दावेदारों का टोटा
बात कांग्रेस की कि जाये तो सरकार बनाने का दावा तो कांग्रेस भी कर रही है, लेकिन सिर्फ सार्वजनिक मंच पर। अंदरखाने की हकीकत यही है कि कांग्रेसियों को नहीं लगता है कि वह लम्बी रेस के घोड़े हैं। कांग्रेसी तो दबी जुबान से यह भी कहते हैं कि अगर कांग्रेस का कोई प्रत्याशी जीतेगा भी तो इस जीत में पार्टी से अधिक रोल उसका अपना रहेगा। कांग्रेस में टिकट के लिये मजबूत दावेदारों का भी टोटा बना हुआ है। राहुल गांधी तमाम कोशिशों के बाद भी प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष मे माहौल नहीं बना पा रहे हैं।
-लखनऊ से मधु आलोक निगम