शाह की बादशाहत कायम, बदलेंगे सिपहसालार!
02-Feb-2016 07:46 AM 1234987

कांग्रेस जहां अभी तक अनिश्चित है कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा तो वहीं भाजपा ने इस मामले में बढ़त बना ली है। अमित शाह के फिर से भाजपा अध्यक्ष बनने से साफ हो गया है कि नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ही पार्टी को 2019 लोकसभा में नेतृत्व देगी। शाह के व्यक्तित्व ने निर्णय को उनके पक्ष में झुका दिया। वे बहुत कम बोलते हैं, पार्टी की विचारधारा के प्रति समर्पित हैं, पार्टी-सरकार के बीच सही संतुलन रखते हैं और उन्हें आरएसएस का समर्थन भी है। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली भारी कामयाबी के पीछे अमित शाह की रणनीतिक कुशलता और प्रबंधन की अहम भूमिका मानी जाती है। खासकर उत्तर प्रदेश में, जहां पार्टी का आधार काफी कमजोर हो गया था, अमित शाह के प्रभारी रहते पार्टी को अस्सी में से इकहत्तर सीटें मिली थीं। पुरस्कार-स्वरूप उन्हें पार्टी की कमान सौंपी गई। मगर दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली करारी हार के बाद अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बने रहने को लेकर शंका जताई जाने लगी थी। मगर भाजपा ने उन सारे कयासों पर विराम लगा दिया है।
उधर, कांग्रेस अभी भी असमंजस के दौर से गुजर रही है। पिछले कई साल से राजनीतिक हलकों में इस बात की चर्चा खूब चल रही है कि कांग्रेस की कमान राहुल को सौंपी जा सकती है। लेकिन वर्किंग कमेटी की बैठक के बाद राहुल को अध्यक्ष बनाने का मामला वर्ष 2016 पर टाल दिया गया था। ऐसे में सुभावना जताई जा रही है कि इस साल कांग्रेस पार्टी को राहुल के रूप में नया अध्यक्ष मिल सकता है। गौरतलब है कि सोनिया गांधी वर्ष 1998 से कांग्रेस अध्यक्ष हैं। अब देखना यह है कि पार्टी कब राहुल को अध्यक्ष बनाती है। फिलहाल भाजपा का दोबारा अध्यक्ष बनने पर अब चुनौतियां अमित शाह के सामने हैं। अगर वे उन चुनौतियों से पार पाते हैं तो निस्संदेह भाजपा का आधार और मजबूत होगा। उनके सामने पहली चुनौती है कि वे किस तरह सरकार और पार्टी के बीच तालमेल बनाए रखते हैं। उनकी ताजपोशी के मौके पर लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता नहीं आए। इससे एक बार फिर यही जाहिर हुआ कि पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कार्यप्रणाली से नाराज हैं। उनकी नाराजगी पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं मानी जा सकती। इसके अलावा पार्टी के कुछ लोग केंद्र में सरकार बनने के बाद इस कदर मनमाना व्यवहार करने लगे हैं कि उससे न सिर्फ पार्टी की छवि पर आंच आ रही है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अपनी विकास योजनाओं को गति देना मुश्किल साबित हो रहा है। इसे साधना अमित शाह की जिम्मेदारी है। अभी तक भाजपा केंद्र में सरकार बनने की खुशी मनाती नजर आ रही है। मगर अब सोचने का वक्त है कि चुनाव से पहले और सरकार बनने के बाद की स्थितियां बिल्कुल भिन्न होती हैं। केंद्र सरकार लगातार नई योजनाओं की घोषणा कर रही है, विकास के वादों की गूंज है, प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं के जरिए रोज नई दोस्ती के समीकरण रच रहे हैं, मगर जमीनी हकीकत यह है कि आम लोगों में सरकार के कामकाज को लेकर उत्साह नहीं दिखता। अच्छे दिन आने की उम्मीद धूमिल पड़ गई है। भाजपा ने सदस्यता अभियान चला कर कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज तो जमा कर ली है, पर उनमें से कितने उसके साथ स्थायी रूप से टिके रहेंगे, कहना मुश्किल है। इस साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से केरल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में भाजपा की ताकत सिर्फ अपने दम पर मुकाबले में रहने की नहीं है। शाह के सामने एक चुनौती ऐसे राज्यों में सहयोगी तलाशने की भी है। करीब साल भर बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव होंगे। वह अमित शाह के लिए असली परीक्षा की घड़ी होगी। उसी से अगले लोकसभा चुनाव के रुझान भी तय होंगे। अमित शाह के सामने एक मुश्किल काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के संबंधों को शंका-रहित बनाना भी है। भाजपा पर संघ के हावी रहने का नतीजा यह है कि कुछ नेताओं-कार्यकर्ताओं के निरंकुश व्यवहार के चलते मोदी सरकार के लिए आए दिन मुश्किलें पैदा हो रही हैं। अगर आगे भी यही हाल रहा तो न सिर्फ सरकार, बल्कि पार्टी के लिए भी मुश्किलें बनी रहेंगी।
शाह की लीडरशिप के चलते मोदी के पास अपनी सरकार का एजेंडा लागू करने के लिए पूरी आजादी होगी। पार्टी और सरकार के बीच तनाव वर्तमान में पूरी तरह से गायब है। शाह के दोबारा चुने जाने से पार्टी में आखिरी बदलाव भी हो गया। भाजपा इस समय अपनी पहुंच, इच्छाओं और तरीके को लेकर बड़े बदलाव से गुजर रही है। शाह के मास्टर स्ट्रोक मिस्ड कॉलÓ सदस्यता अभियान के जरिए भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। उसके 110 मिलियन सदस्य हैं। उन्होंने इसके बाद महासम्पर्क अभियान और महा प्रशिक्षण अभियान ने यह निश्चित किया कि जिसने भी एन्रॉल किया था उससे मिला जा सके और पार्टी कार्यकर्ताओं को विचारधारा, मिशन व लक्ष्य समझाए जा सके। इसके जरिए शाह ने पार्टी के प्रचार नारे बदलाव वाली पार्टीÓ को सच कर दिखाया। उनके कार्यकाल को लोगों तक पहुंच और मजबूती के जाना जाएगा। पिछले एक साल में पार्टी में जो नए लोग आएं हैं वे इसे 2018 राज्य और 2019 आम चुनावों में आगे ले जाएंगे। शाह के तहत आरएसएस के कई प्रचारक भाजपा में शामिल हुए हैं। उन्होंने छात्रों, किसानों, मजदूरों और स्वेदशी अभियानों के बीच बेहतर समन्वयक को निर्धारित किया। इसके चलते भाजपा वास्तव में कैडर आधारित पार्टी बनकर उभर रही है। मोदी और शाह के रहते हुए पार्टी ने कई महत्वपूर्ण चुनावी जीत दर्ज की हैं। बिहार और दिल्ली की हार को हार नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां पर पार्टी सत्ता में नहीं थी। शाह ने पार्टी को जबरदस्त चुनावी मशीन में बदल दिया। उनका और भाजपा का एक ही लक्ष्य है- कांग्रेस मुक्त भारत।
राजनीतिक रूप से शाह ने विरोधियों को हमेशा परेशान रखा। जहां उन्हें लगा कि पार्टी मजबूत है वहां उन्होंने एकला चलो नीति को आगे बढ़ाया तो कमजोरी वाली जगहों पर गठबंधन करने से पीछे नहीं हटे। भाजपा को नई सीमाओं तक ले जाना उनका मकसद है। शाह के सामने अभी सबसे बड़ी चुनौती असम है। कांग्रेस वहां सत्ता में बने रहने के लिए पूरे प्रयास कर रही है। लेकिन भाजपा बड़े कदम उठा रही है। प्रत्येक राज्य का चुनाव नई चुनौतियां लाता है। आरएसएस ने शाह में पूरा विश्वास दिखाया है। ऐसा नहीं होता तो इतनी आसानी से उन्हें दोबारा नहीं चुना जाता।
आरएसएस की पसंद
बिहार चुनाव के बाद आरएसएस नेतृत्व परिवर्तन पर जोर देता रहा है। संघ को ये बात भी खटक रही थी कि प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष एक ही राज्य से हों। इस मसले पर नया कदम उठाने में संघ के सामने दो अड़चनें आ रही थीं। पहला, संघ महसूस करता है कि बिहार की हार के बाद नेतृत्व परिवर्तन से दखलंदाजी जैसा संदेश जाएगा। दूसरा, संघ किसी भी सूरत में मोदी की रणनीतियों में दखल देने से परहेज करना चाह रहा है। ऊपर से जिन राज्यों में इस साल या अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं उनके लिए अमित शाह रणनीतियां बना चुके हैं, जिसमें छेड़छाड़ नये खतरे पैदा कर सकता है। इसलिए शाह को फिर से अध्यक्ष बनाने में संघ ने भी सहमति दी थी। बताते हैं कि बीजेपी अध्यक्ष के चुनाव के चलते ही मोदी कैबिनेट में फेरबदल होल्ड पर था। और ये फेरबदल सिर्फ मंत्रिमंडल तक ही सीमित नहीं रहनेवाला, बल्कि पार्टी और सरकार के बीच भी नेताओं की अदला-बदली आसन्न है। कुछ नेता मंत्री बन सकते हैं और कुछ मंत्रियों के संगठन में सक्रिय होने की संभावना है।
मोदी और शाह में क्या अंतर
मोदी और शाह लगातार संपर्क में रहते हैं। दोनों के व्यक्तित्व को बेहतर ढंग से समझने वाले लोगों का कहना है कि दोनों में एक बड़ा अंतर है। मोदी समस्याओं से जीतने में भरोसा रखते हैं, जबकि शाह किसी समस्या का हल निकालना चाहते हैं। उनका कहना है, जब मामला मोदी के पास आता है तो इस चीज की स्पष्टता रहती है कि वे क्या चाहते हैं। वहीं, शाह का एजेंडा बेहद जटिल होता है। आरएसएस की पाठशाला में सीखी हर चीज को अपने बर्ताव में लाने में मोदी बहुत कामयाब हैं।
दोनों में क्या समानता
मोदी और शाह दोनों के ही पास प्रतीकों की राजनीतिÓ का तीन दशक से ज्यादा लंबा अनुभव है। इसलिए जब अयोध्या में प्रस्तावित राम मंदिर के लिए शिलाएं भेजने की बात आई तो गुजरात सबसे आगे था। 2002 में जब कारसेवकों की लाशें गोधरा से अहमदाबाद पहुंची, तो अमित शाह खुद वहां मौजूद थे। राष्ट्रीय अहमियत वाले मामलों पर मोदी और शाह की एक राय बन ही जाती है।   
हिंदुत्व की लाइन पर चलेंगे शाह
आने वाले वक्त में अमित शाह का ध्यान सिर्फ मोदी के विकास के एजेंडे पर ही नहीं होगा, बल्कि वे बीजेपी की पारंपरिक राजनीति के तरीकों की ओर भी लौटेंगे। हिंदुत्व ही बीजेपी की राजनीति की धुरी बनेगा। शाह इस मुद्दे पर नरमी बरतने वाले नहीं हैं। मोदी भी इस बात का संकेत दे चुके हैं कि आरएसएस और बीजेपी के मूलभूत तौर तरीके बदलने वाले नहीं है। आरएसएस भी यह मानती है कि बीजेपी को राष्ट्रवादियों और छद्म धर्मनिरपेक्षोंÓ के बीच छिड़ी जंग में अपना पक्ष साफ करना होगा। पीएम नरेंद्र मोदी से 14 साल छोटे 51 साल के अमित शाह मोदी के बिगड़ैल सिपहसालारÓ हैं। दोनों सत्ता की एक जैसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और उनके अस्तित्व में बने रहने का तरीका भी एक ही है। मोदी और अमित शाह का कामकाज बिलकुल साफ ढंग से बंटा हुआ है। एक सत्ता का नेतृत्व करता है तो दूसरा पार्टी का।
शाह का कार्यकाल
तकनीकी तौर पर अमित शाह, अपने पूर्ववर्ती राजनाथ सिंह के कार्यकाल का बचा हिस्सा पूरा कर रहे थे। जनवरी 2013 में राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने थे और 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद सरकार बनने पर वो मोदी कैबिनेट में शामिल हो गए। इसके साथ ही अमित शाह को बीजेपी का नया अध्यक्ष बना दिया गया। अब एक बार फिर से शाह को दोबार भाजपा अध्यक्ष बना दिया गया है। भाजपा ने दोबारा अध्यक्ष बनने वाले शाह तीसरे नेता है। इनसे पहले लालकृष्ण आडवाणी 1996-1990, 1993-1998 और 2004-2005 में तीन बार अध्यक्ष रह चुके हैं इनके अलावा राजनाथ सिंह 2005-2009 और 2013-2014 में अध्यक्ष रह चुके हैं। जबकि अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के पहले अध्यक्ष थे। वे 1980 से 1986 तक अध्यक्ष रहे। इनके अलावा मुरली मनोहर जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे, बंगारू लक्ष्मण के जना कृष्णामूर्ति, वैंकेया नायडू और नितिन गडकरी भी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं।
-दिल्ली से रेणु आगाल

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