भारत की राजनीति का सिकंदर कौन?
16-Jan-2016 11:18 AM 1234834

प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अमित शाह के लिए बीता साल सियासी कठिनाइयों का रहा। शायद उन्हें सबसे ज्यादा सियासी विफलताएं 2015 में ही मिली। दिल्ली व बिहार की हार ने कई सवाल खड़े किए। हार ने उनके नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े किए हैं। विपक्ष संसद से सड़क तक मोदी के खिलाफ माहौल बनाने में सफल रहा। सरकार और संगठन की भी कमजोरियां सामने आईं। विफलताओं का ठीकरा उनके सिर आया। दोहरी चुनौती सामने है। मंत्रिमंडल की छवि को सुधारना और संगठनात्मक रूप से ऐसे चेहरों की तलाश जो 2016 में उपलब्धियां हासिल करा सकें। वहीं कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी को भी अपनी सांगठनिक क्षमता को दिखाना है। इस साल असम, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु के साथ पुडीचेरी का चुनाव होना है। भाजपा और कांग्रेस के लिए यह पांचोंं राज्य खासी चुनौती वाले हैं। इन राज्यों के चुनाव परिणाम नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता के लिए कड़ी परीक्षा जैसे होंगे। एक ओर चुनाव वाले इन राज्यों में असम को छोड़कर बाकी राज्यों में भाजपा को सहयोगियों की तलाश होगी तो दूसरी ओर असम और केरल में राहुल गांधी के कंधों पर खुद की और पार्टी की साख बचाने की जिम्मेदारी होगी क्योंकि असम और केरल दोनों ही राज्यों में फिलहाल कांग्रेस की सरकार है। असम को छोड़ बाकी जगह भाजपा को सहयोगियों की तलाश होगी। संकेत हैं प. बंगाल में वामदल कांग्रेस के साथ जा सकते हैं। शायद ऐसे में भाजपा के ममता के करीब जा सकती है। लेकिन ममता क्या भाजपा को महत्व देगी। तमिलनाडु में भाजपा को जयललिता से उम्मीद है। केरल में भाजपा को जो मिलेगा बोनसÓ होगा। भाजपा को असम से उम्मीद है। सीएम तरुण गोगई के खिलाफ माहौल भी है। लेकिन कांग्रेस वहां विपक्ष को एकजुट करे तो भाजपा को मुश्किल होगी।
प्रधानमंत्री के लिए प्राथमिकता राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को साथ लेने की भी है। पिछले सालों में कांग्रेस भले ही कमजोर हो चुकी है लेकिन अगले दो वर्षों तक राज्यसभा में महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के लिए अथवा महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी सहमति लेने के लिए कांग्रेस से तालमेल की आवश्यकता होगी। सबसे अहम बात यह है कि गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र में मोदी के पसंदीदा मुख्यमंत्री भले ही हों लेकिन वहां सत्ता व संगठन में असंतोष और प्रदेशों में विभिन्न आंदोलनों से निपटने की जिम्मेदारी भी मोदी के माथे ही है। भाजपा शासित अन्य राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी राजनीतिक दृष्टि से 2016 का साल चुनौतियां बढ़ाने वाला होगा। निकाय स्तर के चुनावों में स्थानीय सरकारों का प्रदर्शन प्रादेशिक नेतृत्व की कमजोरी दिखाने वाला रहा है। पहले भाजपा व कांग्रेस दोनों ही प्रादेशिक समस्याओं से निपटने के लिए मुख्यमंत्रियों को केन्द्र में लाकर विकल्प खड़ा करती रहीं हैं। इन प्रदेशों में मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य जैसे दिख रहे हैं उसके चलते भाजपा में ऐसा कदम उठाना आसान नहीं लगता।
राहुल गांधी के लिए भी सब कुछ आसान नहीं है। उनके नेतृत्व की असल परीक्षा वर्ष 2016 में होने वाली है। राहुल गांधी को जहां विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन के बारे में फैसले करने हैं। साथ ही कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां उन्होंने वर्ष 2016 और 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी के बूते अकेले ही चुनाव लडऩे के बारे में निर्णय करने हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए एक और बड़ी चुनौती संगठन को लेकर भी है। राहुल गांधी पिछले लगभग डेढ़ साल से संगठन के ढांचे के पुनर्गठन के मुद्दे को टाले जा रहे हैं। उनके इस रवैये के चलते ही संगठन का चुनाव भी समय पर नहीं हो पाया। राहुल के लिए संगठन के पुनर्गठन की राह भी एकदम आसान भी नहीं रही है। नए और पुराने नेताओं के चक्ïकर में फंसी कांग्रेस कुछ भी तय नहीं कर पा रही है,जिसका फायदा काफी हद तक विपक्ष उठा रहा है। राहुल को इस साल तय करना पड़ेगा कि वह संगठन का क्या स्वरूप देना चाहते हैं। उन्होंने अलग-अलग समूह बनाने व नए पुराने नेताओं का समूह बनाने की बात तो की है, लेकिन कब तक। राहुल के सामने भी चेहरे-मोहरों का संकट जरूर है, लेकिन भाजपा के मुकाबले कम। राहुल यदि समय पर बदलाव कर लेते हैं तो फिर पांच राज्यों और 2017 के सेमीफाइनल वाले राज्यों के लिए वह ढंग से तैयारी कर पाएंगे। सारा खेल संगठन से जुड़ा है। राहुल के लिए इस साल के पांच राज्यों के चुनाव खासे महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि पांच में से असम व केरल में कांग्रेस की सरकारें हैं। यदि वह दोनों राज्यों को बचाने में सफल हो जाते हैं तो उनके नेतृत्व को और मजबूती मिलेगी। लेकिन दोनों राज्यों में संकट एक ही है। दोनों जगह कांग्रेस सत्ता में है, जिसका नुकसान हो सकता है। असम में कांग्रेस बिहार की तरह ही महागठबंधन बनाने की कोशिश में है। लेकिन केरल में उसका मुकाबला वामदलों से ही होना है। राहुल गांधी की असल परीक्षा यही है कि वह राजनीतिक रूप से वामदलों से कैसे तालमेल बैठाते हैं, क्योंकि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी के साथ जाने के आसार फिलहाल काफी कम ही दिखाई दे रहे हैं। पश्चिम बंगाल का गठबंधन काफी हद तक वर्ष 2019 के लोकसभा संकेत देगा। यही बात तमिलनाडु में होनी है। द्रमुक के साथ होने वाला चुनावी गठबंधन भी आगे तक चलेगा। राहुल कैसे फैसले करते हैं उससे वर्ष 2017 की भी स्थिति साफ होगी। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अकेले लड़ेगी या गठबंधन करेगी। 2016 की चुनावी रणनीति से संकेत मिलेंगे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास चेहरे -मोहरे का भी संकट है। उसे दूसरे के सहारे ही ज्यादा की उम्मीद है। उत्तराखंड और हिमाचल में जरूर कांग्रेस को भाजपा से सीधे भिडऩा है। इन राज्यों के चुनाव परिणाम काफी हद तक 2019 के संकेत भी देंगे। उधर, इस साल यह भी देखने वाली बात होगी की महागठबंधन किसके साथ उतरता है। क्योंकि महागठबंधन में शामिल दलों की नियत कभी भी बदल सकती है। कुल मिलाकर यह साल देश की राजनीति की नई दिशा तय करेगा।   
साबित करने
का समय
दिल्ली व बिहार विधानसभा के चुनाव नतीजे जरूर मोदी की विजेता की छवि के अनुुरूप नहीं रहे लेकिन इसी साल जिन राज्यों में चुनाव होने हैं वहां मोदी को राजनीतिक तौर पर खुद की पार्टी को स्थापित कराना होगा। असम, बंगाल, तमिलनाडु व केरल समेत पांच राज्यों के नतीजों का असर एक हद तक उत्तरप्रदेश के साल भर बाद होने वाले चुनाव नतीजों पर पडऩे वाला है। उन्हें? उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में बनी लहर को कायम रखना है। भाजपा की मजबूरी ही मानी जाएगी कि न तो बसपा और न नहीं सपा उप्र में उसके साथ गठबंधन करने को
तैयार होगी।     
2017 की तैयारी अभी से
वर्ष 2017 में पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल और उत्तराखंड में चुनाव होने हैं। मोदी को 2017 के लिए उत्तरप्रदेश व गुजरात को लेकर अहम फैसला करना है। शाह के फैसले को लंबे समय तक टालना भाजपा के लिए घातक ही होगा। गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व झारखंड के निकाय व उपचुनाव नतीजों ने खतरे की घंटी बजा दी है। गुजरात के बाद यूपी के लिए बड़ा चेहरा चाहिए। बिहार की हार के बाद मोदी-संघ पर दबाव है कि अध्यक्ष पद उत्तर भारतीय को सौंपें। राजनाथ चेहरा हैं, लेकिन यूपी में जिम्मेदारी देने का फैसला आसान नहीं है। कलराज मिश्र 75 से ऊपर होने जा रहे हैं। ऐसे में उन पर ऊहापोह है। उत्तराखंड- हिमाचल प्रदेश को लेकर पार्टी फैसला नहीं कर पा रही है। यह भी देखना होगा कि उत्तरप्रदेश में हिन्दुत्व का मुद्दा फिर खड़ा करने का प्रयास इन मंसूबों पर पानी फेरने वाला साबित ना हो जाए। रही बात पंजाब की , वहां भी गठबंधन होने के बावजूद आगामी चुनावों में अकाली नेतृत्व की विफलताओं को ढकने के मुद्दे पर भी प्रधानमंत्री को कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।
-दिल्ली से रेणु आगाल

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