16-Jan-2016 11:16 AM
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नेपाली लोगों को देखकर हमें शायद ही कभी यह विचार आया हो कि ये विदेशी नागरिक हैं। ऐसा न लगने की वजह दोनों देशों के बीच के संबंध हैं जो एक-दूसरे के साथ सालों से मधुर और विश्वसनीय रहे हैं। लेकिन हाल के कुछ महीनों के

दौरान दोनों देशों के बीच संबंधों में तल्खी आई है। इसकी वजह है नेपाल का मधेसी आंदोलन। भारत मधेसी आंदोलन के साथ है और इस वजह से नेपाल के साथ उसके संबंध बुरे दौर में आ गए हैं। क्या इस स्थिति को वर्तमान सरकार की विदेश नीति के असफल होने के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए? चीन का दखल नेपाल में बढ़ता जा रहा है। आपका बफर स्टेट आपके हाथों से फिसलता जा रहा है, लेकिन भारत कुछ कर पाने में अक्षम है। नेपाल के साथ संबंधों में आई कटुता को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उन कोशिशों के कमजोर होने के तौर पर देखा जा सकता है जिनमें उन्होंने पड़ोसी देशों के साथ द्विपक्षीय संबंध बेहतर बनाने की कोशिश की थी।
नेपाल के नए संविधान में मधेसियों और जनजातियों के अधिकार का सवाल भारत-नेपाल संबंधों में तनाव का कारण बना हुआ है। खबर के मुताबिक भारत ने नेपाल से इस नए संविधान में मधेसियों के अधिकारों से संबंधित छह संशोधन करने की मांग की है। वहीं नेपाल ने भी भारत के प्रति सख्त रुख अपना रखा है। नेपाल के सभी बड़े दल भारत के खिलाफ बयान देने लगे हैं और चीन से मदद की मांग कर रहे हैं। दरअसल आधिकारिक तौर पर भारत मधेसी समस्या को एक राजनीतिक समस्या समझता है और इसे राजनीतिक तौर पर ही सुलझाने का पक्षधर है। वहीं, चीन नेपाल की संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता को बनाये रखने के लिए सब कुछ करने का दावा कर रहा है। बहरहाल, भारत की तरफ से नेपाल को जाने वाली सड़कों पर अघोषित ब्लॉकेड ( नाकाबंदी) ने चीन को अपने दावे को सही साबित करने का मौका दे दिया है। हालांकि भारत यह कहता है कि नेपाल में आपूर्ति नहीं पहुंचने का कारण मधेसी संघर्ष है, जिसकी वजह से भारतीय ट्रकों को नेपाल में खतरा है। जैसे ही यह संघर्ष खत्म होगा नेपाल में भारत से सामान पहले की तरह से आने-जाने लगेंगे।
बहरहाल सच्चाई यह है कि इस ब्लॉकेड के कारण नेपाल में पेट्रोल और दूसरी जरूरी चीजों की कमी हो गई है, जिससे निपटने के लिए नेपाल ने चीन से मदद मांगी है। चीन फौरन 1000 मीट्रिक टन पेट्रोल नेपाल को भेज दिया। इसमें कोई शक नहीं कि कई उतार-चढ़ाव के बावजूद भारत-नेपाल रिश्तों में कभी इतनी कड़वाहट नहीं आई कि नेपाल को अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए चीन की तरफ देखने की नौबत आई हो। लेकिन मौजूदा संकट ने चीन को कम से कम भारत के एकाधिकार वाले क्षेत्र (जैसे पेट्रोलियम आपूर्ति) में अपने पैर पसारने का मौका दे दिया है। तो अब ये सवाल उठाना लाजमी है कि क्या मधेसी संकट का समाधान भारत के प्रत्यक्ष टकराव के बिना संभव नहीं था? क्या अब ऐसी स्थिति बन गई है कि नेपाल का झुकाव चीन की तरफ हो जाएगा? क्या नेपाल में भारत की नीति असफल हो गई है? वैसे तो नेपाल में नए संविधान के लागू होने से पहले ही देश के तराई क्षेत्र में बसने वाले मधेसी सरकारी उपेक्षा को लेकर अपनी आवाज उठाते आए हैं। उन्हें यह शिकायत रही है कि पहाड़ी क्षेत्र के मुकाबले में उनके साथ भेदभावपूर्ण बर्ताव किया जाता है। उनकी सोच के पीछे नेपाल के सरकारी रवैये का भी हाथ है। नेपाल के नागरिकता अधिनियम 1964 और 1990 के संविधान के मुताबिक भारतीय मधेसियों को नागरिकता से वंचित रखा गया है। वे न तो जमीन खरीद सकते थे और न ही किसी सरकारी सुविधा का लाभ ले सकते थे।
चीन का प्रभाव
इस संघर्ष के शुरू होते ही भारत और नेपाल सीमा से व्यापार पर एक अघोषित नाकाबंदी (ब्लॉकेड) जारी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक रक्सौल-बीरगंज सीमा पर ट्रकों और टैंकरों की 10 किमी लंबी लाइन लगी हुई है। इस नाकेबंदी से नेपाल की मुसीबतें तो बढ़ ही गई हैं, इससे भारत को भी नुकसान उठाना पड़ रहा है। ऑब्जर्वेटरी ऑफ इकोनॉमिक कॉम्प्लेक्सिटी (ओईसी) के मुताबिक वर्ष 2013 में नेपाल के आयात पर खर्च होने वाली कुल राशि 6.4 अरब डॉलर का 58 प्रतिशत भारत निर्मित सामग्री पर खर्च हुआ। भारत से आयातित होने वाली वस्तुओं में नेपाल अपने ईंधन के लिए पूरी तरह से भारत पर निर्भर है। वर्ष 2014-15 में यह व्यापार 1.1 अरब डॉलर का था। इस सप्लाई में पिछले महीनों में 70-80 प्रतिशत की कमी आई है। जाहिर है इसका नुकसान भारत को राजस्व की कमी के रूप में होगा। तिब्बत मामलों के जानकार क्लौड अप्री मानते हैं कि नेपाल ऑयल कॉरपोरेशन ने चीन से पेट्रोल का सौदा करके एक तरह से चीन की उस ख्वाहिश को पूरा कर दिया कि चीन नेपाल में पेट्रोल आपूर्ति के भारतीय एकाधिकार को समाप्त करना चाहता था जिसमें उसे कामयाबी मिल गई और मधेसी आंदोलन के ख़त्म हो जाने के बाद भी चीन की कुछ न कुछ हिस्सेदारी इसमें बनी रहेगी।
-नवीन रघुवंशी