मोदी की सरप्राइज डिप्लोमेसी से सब चकित
02-Jan-2016 08:08 AM 1234780

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 19 महीने के कार्यकाल में कई घटनाक्रम ऐसे सामने आए हैं जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सरप्राइज के नजरिए से देखे जा रहे हैं। लेकिन अभी हाल ही में मोदी ने काबुल से लाहौर पहुंचकर सबको चकित कर दिया है। भारत-पाकिस्तान की राजनीति ही नहीं बल्कि पूरा विश्व इस दोस्ती की समीक्षा में जुट गया है। यदि यह आकस्मिक यात्रा नेपाल, भूटान, बांग्लादेश की होती तो शायद इसके निहितार्थों को तलाशने पर इतनी माथापच्ची नहीं की जाती लेकिन यह यात्रा पाकिस्तान की है, जिसकी दो अहम ताकतें सेना और चरमपंथी, भारत को अपना दुश्मन नंबर एक मानती हैं। अभी कुछ दिन पहले तक ही हमारे सुरक्षा सलाहकार पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने का मंत्र देते दिख रहे थे, इसलिए इससे जुड़े निहितार्थों और परिणामों की तलाश जरूरी है। क्या यूं औचक लाहौर जाना प्रधानमंत्री मोदी का वैयक्तिक एजेंडा है अथवा उनका कूटनीतिक चातुर्य?
पाकिस्तानी मीडिया की तरफ से यह बात उठाई गई कि मोदी पर काफी दबाव है, जिसके चलते उन्हें ऐसा निर्णय लेना पड़ा। हालांकि जिस तरह के दबाव की बात पाकिस्तानी मीडिया कर रहा है, वह तो कहीं नजर नहीं आ रहा है, लेकिन इसके दो पक्ष लगते हैं। एक यह कि मॉस्को से कोई ऐसा संदेश मिला हो क्योंकि पिछले कुछ समय से मॉस्को का इस्लामाबाद के प्रति झुकाव देखा गया है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान जल्द ही रूस से एमआई-35 अटैक हेलिकॉप्टर, एमआई-17 ट्रांसपोर्ट हेलिकॉप्टर, परमाणु पनडुब्बियां और मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली प्राप्त कर सकता है। यह उन स्थितियों में भारत के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है, जब चीन पहले ही पाकिस्तान के साथ हो और अमेरिका का स्टैंड स्पष्ट न हुआ हो। इसलिए अब भारत के लिए जरूरी हो गया है कि वह पाकिस्तान के साथ नजदीकी बनाए, जिससे कि चीन अपने उद्देश्यों में सफल न हो सके।
दूसरा पक्ष यह कि पश्चिमी दुनिया के साथ-साथ चीन की तरफ से भी भारत पर पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध बनाने का दबाव है। कारण यह कि चीन इसके जरिए अपनी वरिष्ठता साबित करना चाहता है और अमेरिका व पश्चिम के दूसरे उद्देश्य हैं। लेकिन क्या भारत ने ऐसे कदम उठाते समय उन प्रश्नों पर ध्यान दिया है, जो उसकी सुरक्षा और आवश्यकता से जुड़े हैं और जिन्हें अब तक भारत की मूलभूत कूटनीति के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है? जब पाकिस्तान ने अपने एजेंडे में कोई बदलाव नहीं किया है तो भारत उससे मित्रता के लिए इतना उत्सुक क्यों है? वैसे भी भारत-पाकिस्तान रिश्तों का इतिहास आकस्मिक निर्णयों और भावों के प्रवाह में कूटनीतिक प्रयासों को रोकता है। अटल बिहारी वाजपेयी के लाहौर जाने का परिणाम कारगिल के रूप में सामने आया था। जून 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी ने उन परवेज मुशर्रफ का स्वागत किया गया, जिन्होंने कारगिल का षड्यंत्र रचा था और जिसे वे आज तक डंके की चोट पर कहने से परहेज नहीं करते। उसका परिणाम 13 दिसंबर 2001 को संसद पर आतंकवादी हमले के रूप में आया था। मोदी की कोशिशों के बीच भी कश्मीरी अलगाववादियों की जिद, जुलाई 2015 में पंजाब के गुरुदासपुर में हुए आतंकवादी हमले और उसके हफ्ते भर बाद जम्मू के ऊधमपुर में भारतीय सुरक्षाबलों पर हमले की घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिन्हें अब तक पाकिस्तान ने स्वीकार नहीं किया है। इसलिए कूटनीति का कोई भी जानकार यह सलाह तो नहीं दे सकता कि पाकिस्तान के साथ वार्ता न की जाए  लेकिन यह अवश्य कहना चाहेगा कि कूटनीतिक पहल के नुमाइशी या आदर्शवादी पक्षों से नेतृत्व को बचने की जरूरत होगी।

तो हो सकता है 42 अरब डॉलर का बिजनेस
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरप्राइज पाकिस्तान यात्रा ने बिजनेस कम्युनिटी में नई उम्मीद जगा दी है। उनके अनुसार दोनों देशों में कारोबार को लेकर बहुत पोटेंशियल है। अगर रिश्ते सामान्य हो जाए, तो कारोबार में 42 अरब डॉलर का आंकड़ा छूने की संभावना है। अभी दोनों देशों के बीच 2.5 अरब डॉलर से लेकर 2.7 डॉलर के बीच कारोबार हो रहा है। उद्योग जगत के संगठन फिक्की की भारत औऱ पाकिस्तान के ट्रेड रिलेशन पर आई रिपोर्ट के अनुसार आजादी के समय भारत पाकिस्तान के कुल ट्रेड में 70 फीसदी हिस्सेदारी रखता था। जो कि गिरते-गिरते साल 2010-11 तक केवल 5 फीसदी रह गया है। इसी तरह पाकिस्तान की भारत के ट्रेड में हिस्सेदारी एक फीसदी से भी कम है।
-नवीन रघुवंशी

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