15-Dec-2015 10:17 AM
1234794
गुजरात की राजनीति में पटेलों का वर्चस्व हमेशा से रहा है, लेकिन नरेन्द्र मोदी ने अपना कद बढ़ाने के लिए जिस तरह पटेल नेताओं को हाशिए पर पहुंचाया है उससे निश्चित रूप से गुजरात के पटेल मोदी से खफा हैं। मोदी ने केशुभाई

पटेल और शंकर सिंह बाघेला को जिस तरह राजनीति से ओझल कर दिया है। उससे प्रदेश के दोनों समुदाय मोदी से खफा हैं इसको देखते हुए नगरीय निकाय चुनाव में पार्टी ने मुसलमानों पर विश्वास जताते हुए उन्हें बड़ी संख्या में टिकट दिया, लेकिन वे पटेलों का स्थान नहीं ले पाए और हार का सामना करना पड़ा।
इंदिरा गांधी की राजनारायण से हार हो या 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का महज 44 सीटों पर सिमट जाने की बात, या फिर मोदी की लोकप्रियता का रथ बिहार चुनाव में रुक जाने की कहानी, भारतीय राजनीति में कुछ भी संभव है और इसका इतिहास हमें घटनाक्रमों और तथ्यों के जरिये बार-बार चौंकाता है। यही वजह है कि भारतीय राजनीति तुलनात्मक है! तुलना तो यहां हर हाल में की ही जाती है। चाहे लोकल सियासत से राष्ट्रीय राजनीति की क्यों न हो। जाहिर है यही वजह रही कि गुजरात में तकरीबन 6 बड़ी नगर निगमों और 31 पंचायतों के चुनावों में भाजपा की जीत या हार का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह की राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति से तुलना की जाने लगी है।
हालांकि इस तरह की तुलना किए जाने में कोई गुरेज होना चाहिए और न ही इसे गलत माना जाना चाहिए, बल्कि एक लोकतांत्रिक और विविधता से भरे देश की राजनीति की यही तो खूबसूरती है। निश्चत ही इस बार गुजरात में जो स्थितियां बनीं, उसके लिहाज से तो वहां अहमदाबाद, सूरत जैसे महानगरों के स्थानीय स्तर के चुनावों को मोदी की लोकप्रियता और अमित शाह की गुजरात में स्थिति को आंकने के लिए किया जाना था, तो हुआ और दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर इसे देखा गया। वैसे देखा जाए तो हार्दिक पटेल के अनामत आंदोलन, गुजरात सरकार के बहुत बड़े वोट बैंक पटेलों की नाराजगी और कांग्रेस के पक्ष में हवा बनने जैसी बातों के बीच यह स्थिति तो थी की वहां सभी की नजरें रहती। गुजरात में दो चरणों 22 और 29 नवंबर को हुए स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों के परिणामों में भाजपा को भले ही राहत की सांस दी हो, लेकिन कांग्रेस की ग्रामीण अंचल में जीत की खबर ने गुजरात में पार्टी के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। वहीं दूसरी ओर भाजपा का ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम कैंडिडेट उतारकर मुस्लिम वोट बैंक का भरोसा जीतने का प्रयास और प्रयोग असफल रहा, जिससे उसके लिए दोहरी परेशानी खड़ी हो गई है। भाजपा के 500 मुस्लिम उम्मीदवारों में से 490 स्थानीय निकाय चुनाव हार गए। पार्टी को भरोसा था कि साल 2010 में जिस तरह से 300 उम्मीदवारों को टिकट देने के बाद 250 ने जीत दर्ज की थी, वैसा ही कुछ परिणाम यहां आ सकता है, लिहाजा पार्टी ने पिछली बार की तुलना में 200 उम्मीदवारों को ज्यादा टिकट दी, लेकिन नतीजे देखकर पार्टी का पूरा भरोसा टूट गया है। पार्टी उन में जीती है, जहां पर 10 के 10 ही मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं, और कुल 36 में से 35 सीटें भाजपा के खाते में गई है जबकि राजकोट में केवल एक मुस्लिम कैंडिडेट सूफिया जाहिद डाल ने राजकोट से जीत दर्ज की है। कमाल की बात है कि अहमदाबाद से पार्टी के चारों ही मुस्लिम कैंडिडेट हार गए हैं। यानी की इन परिणामों से पार्टी के 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवार उतारने के प्रयोग को झटका लगा है। कुल मिलाकर परिणाम यही बताते हैं कि राज्य में एक ओर भाजपा से पटेल नाराज हुए हैं, और पटेलों के बाद अल्पसंख्यकों का भरोसा भी डगमगाया है। अल्पसंख्यकों का भरोसा डगमगाने की एक वजह हाल की घटनाओं जैसे दादरी कांड, बिहार चुनाव के दौरान भाजपा नेताओं के बीफ को लेकर दिए गए बयानों और गुजरात में ही कुछ जिलों में सांप्रदायिक घटनाओं और असहिष्णुता जैसे मुद्दों को भी माना जा सकता है। बता दें कि पिछली बार की तुलना में भाजपा ने 300 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे जिसमें से 250 को जीत मिली थी। हालांकि देखा जाए तो विधानसभा चुनावों में टिकट के वितरण का पार्टी का एक अलग ही गणित है, लेकिन मोदी के यहां जाने से भाजपा के लिए नई मुसीबतों का दौर शुरू हो गया है। सीएम आनंदीबेन पटेल से पटेल नाराज हैं और अनामत आंदोलन के रूप में ये नाराजगी जगजाहिर हो चुकी है जबकि दूसरी ओर कांग्रेस गांवों में मिली जीत से आत्मविश्वास से भरी हुई दिखाई दे रही है। उधर, अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत, राजकोट, जामनगर और भावनगर नगर निगमों में भाजपा की जीत की प्रतिशत इस बात की ओर संकेत करता है कि महानगरीय वोटरों का अब भी भाजपा पर भरोसा बना हुआ है। एक नजर यदि निगमों और वॉर्डों पर डालें तो अहमदाबाद नगर निगम में 48 वॉर्ड में 192 सीटें थी, जिसमें से 139 पर भाजपा ने कब्जा किया वहीं कांग्रेस के हाथ केवल 52 सीटें लगीं जबकि 1 सीट अन्य के खाते में गईं। राजकोट नगर निगम में 78 वॉर्ड में 72 सीटें थी, जिसमें से 38 पर भाजपा ने कब्जा किया वहीं कांग्रेस के हाथ केवल 34 सीटें लगीं यहां कांग्रेस ने भाजपा को कांटे की टक्कर दी। वडोदरा नगर निगम में 19 वॉर्ड में 76 सीटें थी, जिसमें से 58 पर भाजपा ने कब्जा किया वहीं कांग्रेस के हाथ केवल 14 सीटें लगीं जबकि 4 सीट अन्य के खाते में गईं। जामनगर नगर निगम में 16 वॉर्ड में 64 सीटें थी, जिसमें से 38 पर भाजपा ने कब्जा किया वहीं कांग्रेस के हाथ केवल 24 सीटें लगीं जबकि 2 सीट अन्य के खाते में गईं। भावनगर नगर निगम में 13 वॉर्ड में 52 सीटें थी, जिसमें से 34 पर भाजपा ने कब्जा किया वहीं कांग्रेस के हाथ केवल 18 सीटें लगीं जबकि 1 सीट अन्य के खाते में गईं। सूरत नगर निगम में 29 वॉर्ड में 116 सीटें थी, जिसमें से 82 पर भाजपा ने कब्जा किया वहीं, कांग्रेस के हाथ केवल 34 सीटें लगीं।
इसी तरह 31 जिला पंचायतों में 988 सीटों में 292 भाजपा के हाथ लगी जबकि कांग्रेस ने यहां बाजी मार ली और 472 पर कब्जा किया जबकि अन्य के हाथ केवल 4 सीटें लगीं।
-सुनील सिंह