15-Dec-2015 09:26 AM
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मांझी की बीजेपी से नाराजगी की बड़ी वजह उनकी पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के विधान परिषद सदस्यों की सदस्यता खतरे में होना बताया जा रहा है। जबकि बीजेपी इसे लेकर बहुत एक्टिव नजर नहीं आ रही। विधान परिषद के

सभापति अवधेश प्रसाद सिंह हैं, जो बीजेपी के विधान पार्षद हैं। इसके बावजूद हम के महाचंद्र प्रसाद सिंह को दल-बदल कानून के तहत सदस्यता गंवानी पड़ी। महाचंद्र प्रसाद जदयू की ओर से विधान परिषद सदस्य थे लेकिन इस बार विधान सभा चुनाव उन्होंने हम के टिकट पर हथुआ विधानसभा क्षेत्र से लड़ा था।
सदस्यता खोने की तलवार हम पार्टी के नरेंद्र सिंह और सम्राट चौधरी पर भी लटक रही है। इन दोनों के मसले पर भी सभापति को निर्णय लेना है। संभवत: इसी हफ्ते इन दोनों सदस्यों के भविष्य पर भी फैसला हो जाएगा। जाहिर है, ऐसे में मांझी अब बीजेपी पर दबाव बनाने की कोशिश में लगे हैं। वैसे भी, चुनाव तक तो सब ठीक ही था। लेकिन नतीजों ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। हम के खाते में केवल एक सीट आई। हार के बाद मांझी समझ चुके हैं कि राज्य की राजनीति में उनका कद फिलहाल वैसा नहीं है जैसा उन्होंने जेडीयू का साथ छोडऩे के बाद उम्मीद की थी।
मांझी इस बिहार चुनाव में अपनी नई पार्टी हम के बैनर तले उतरे थे। मांझी कितने सफल होंगे, इसे लेकर आशंका शुरू से थी। चूंकी मांझी-नीतीश विवाद में बीजेपी ने बड़ा रोल निभाया था और मांझी के हमदर्द के तौर पर उभरने की कोशिश की थी। इसलिए हम को चुनाव लडऩे के लिए 20 सीटें मिले। निश्चित रूप से यह हम जैसी नई पार्टी के लिए उम्मीद से अधिक थी। लेकिन बीजेपी को भी उम्मीद यही थी कि मांझी को ज्यादा मौका देने से उसे पिछड़ी जातियों का साथ मिलेगा। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं।
उधर, भाजपा की एक बड़ी जिम्मेदारी एनडीए को अटूट बनाए रखने की है, क्योंकि उसमें किसी भी विघटन से बिहार के राजनीतिक हलके में उसकी नेतृत्व क्षमता पर बट्टा लग सकता है, ऐसा भाजपा नेताओं का भी मानना है। नई विधानसभा में एनडीए के कुल 58 सदस्य हैं, जिनमें सहयोगी दलों के सदस्यों की संख्या पांच है। इन सभी विधायकों को किसी भी सूरत में एनडीए के दायरे में बांधे रखना जरूरी है। भाजपा इसे अपनी राजनीतिक साख से जोड़कर देख रही है। भाजपा नेताओं को आशंका है कि सहयोगी दलों के विधायकों पर देर-सवेर नीतीश कुमार डोरे डालने का प्रयास करेंगे। लोजपा का तो ऐसा इतिहास भी रहा है। पिछली दो विधानसभाओं की शुरुआत में उसके चार-चार विधायक रहे हैं, मगर सभी नीतीश कुमार के साथ होते चले गए और जद (यू) में शामिल होते रहे। अंत में लोजपा के पाले में सिर्फ शून्य बचा। रालोसपा तो विधानसभा में पहली बार दो सदस्यों के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही है। हम का गठन इसी चुनाव में हुआ है और उसके प्रमुख जीतन राम मांझी अपने दल के एकमात्र विधायक हैं। हालांकि, भाजपा को किसी पर कोई शक नहीं है, पर राजनीति और राजनेता का क्या भरोसा? कभी इधर, तो कभी उधर! सो, भाजपा अनेक मोर्चों पर जूझते हुए भी चौकस है।
मांझी के पास रास्ता क्या है...
जाहिर है... मांझी के पास फिर तीन ही रास्ते बचते हैं। या तो वे इंतजार करें अगले चुनाव और अच्छे दिनों का या फिर बीजेपी पर और दबाव बनाए। अगर बीजेपी पर वे दबाव बनाने में कामयाब होते हैं तो केंद्र में भी उन्हें मौका मिल सकता है। यह हालांकि अभी दूर की कौड़ी लगती है। इसलिए जो तीसरा और आखिरी विकल्प उनके सामने है, वो है नीतीश कुमार के खेमे में लौट जाने का। दोनों पुराने साथी रहे हैं। और इससे मांझी के सत्ता में जाने का रास्ता भी साफ होगा। कहीं भूमिका बनाने में लगे मांझी उसी की तैयारी तो नहीं कर रहे।
-कुमार विनोद