17-Nov-2015 08:15 AM
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नीतीश के लिए एक चुनौती चुनावी को लालू करने की भी होगी। बिहार के विकास के लिए नीतीश ने सात सूत्रीय फॉर्मूला सुझाया था-आर्थिक हल, युवाओं को बल, आरक्षित रोजगार, महिलाओं का अधिकार, हर घर बिजली लगातार, हर

घर नल का जल, घर तक पक्की गली, शौचालय निर्माण, घर का सम्मान, अवसर बढ़ें, आगे पढ़ें। नीतीश ने कहा था कि इस सात कार्यक्रमों को वो पांच साल में मिशन मोड में लागू करेंगे। इन्हें लागू करने में 2 लाख 70 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे। अब नीतीश के सामने इन वादों पर खरा उतरने की चुनौती होगी, जिसमें हर कदम पर लालू की सहमति जरूरी हो सकती है। अब तक के वायके तो यही इशारा करते हैं।
2010 में आरजेडी को महज 22 सीटें मिली थीं, जबकि नीतीश के पास 115 विधायक थे। इस बार जब सीटों का बंटवारा हुआ तो लालू की खूब मनमानी चली। लालू ने आरजेडी के लिए 243 में से 130 सीटों की मांग रखी थी। लालू चाहते थे कि बाकी सीटों पर जेडीयू और कांग्रेस आपस में बंटवारा कर लें। जेडीयू का कहना था कि कम से कम जीती हुई सीटें उसके पास रहें। जेडीयू के एक वरिष्ठ नेता एक लिस्ट लेकर लालू से मिले। तमाम मुद्दों पर बातचीत तो हुई लेकिन लालू ने लिस्ट वाले लिफाफे को हाथ तक न लगाया। इस मोलभाव में जेडीयू को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। फिर भी बात नहीं बन पा रही थी। आखिरकार प्रशांत किशोर ने यहां भी मोर्चा संभाला और कई दौर की बातचीत के बाद सीटों को लेकर समझौता हो पाया - जिसमें नीतीश को पीछे हटना पड़ा। बात बात पर लालू अब अपनी बात मनवाना चाहेंगे। लालू की ये भी कोशिश होगी कि नीतीश सरकार में उनके ज्यादा मंत्री हों। लालू चाहेंगे कि महत्वपूर्ण विभाग भी उन्हीं की पार्टी के मंत्रियों के पास रहे। ये भी संभव है कि अगर नीतीश अपनी पसंद से किसी को मंत्री बनाना चाहें तो उसमें भी कोई न कोई अड़ंगा डाल दें। लालू की ओर से उप मुख्यमंत्री पद का भी प्रस्ताव रखा जा सकता है। अब जबकि लालू की सीटें जेडीयू से ज्यादा हैं चुनौतियां नीतीश के सामने पहाड़ की तरह खड़ी हैं। नीतीश को उन चुनौतियों से कदम कदम पर जूझना होगा। लालू ने जहर तो पिया लेकिन उसे पचाया भी या नहीं ये तो बाद में पता चलेगा। फिलहाल ये जरूर कहा जा सकता है कि लालू ने जहर को जीत की ताकत में तब्दील कर दिया। और अब ज्यादा सीटें जीत कर लालू और ताकतवर बन कर उभरे हैं। बिहार चुनाव की घोषणा से काफी पहले से ही लालू सूबे की सियासत में रिंग मास्टर जैसे नजर आए। अपने राजनीतिक कौशल, सेंस ऑफ ह्यूमर और जातीय बैकग्राउंड के भरपूर इस्तेमाल से लालू इस चुनाव के चैंपियन बने हैं। लालू की ये ताकत कदम कदम पर नीतीश पर भारी पडऩे वाली है। अब ये नीतीश की सूझ बूझ और प्रशासनिक कौशल पर निर्भर होगा कि वो रोजमर्रा की चुनौतियों से कैसे जूझते हैं। भुजंगवाले ट्वीट पर नीतीश ने सफाई कह जरूर दिया था कि उनका आशय भाजपा से था, लेकिन लालू को मनाने के लिए उन्हें लालू के घर पहुंच कर सफाई देनी पड़ी थी-वो भी आधी रात को। सियासत में शह और मात के दौर शायद शतरंज से भी ज्यादा होते हैं। दो दुश्मन जब दोस्त बन जाएं तो तीसरे को शिकस्त मिलनी है। बिहार चुनाव इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। लेकिन पुराने दुश्मनों की नई दोस्ती कितनी लंबी होगी? सबसे बड़ा सवाल यही-और इसका जवाब वक्त ही दे सकता है।
भाजपा-एनडीए की नहीं बल्कि मोदी-अमित शाह की हार
बिहार चुनावों के परिणाम सामने हैं। निश्चित रूप से ये हार भाजपा-एनडीए की नहीं बल्कि मोदी-अमित शाह की है और इसे उन्हें कम से कम अब तो स्वीकार कर ही लेना चाहिये। दिल्ली के बाद बिहार में मिली करारी पराजय से मोदी-अमित शाह को ये सबक तो लेना ही चाहिये कि विकास के मूल मुद्दे को छोड़ कर नकारात्मक बयानों, प्रचार, डीएनए और शैतान जैसी व्यक्तिगत टिप्पणियों पर जाने का कितना विपरीत असर पड़ सकता है। एन चुनावों के वक्त संघ प्रमुख का आरक्षण पर बयान, बीफ मुद्दा, आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी, यशवन्त सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे बिहार के प्रमुख नेताओं की नाराजग़ी, सीएम के रूप में स्थानीय चेहरे का ना होना, स्थानीय मुद्दों की अनदेखी, भाजपा नेताओं के बेलगाम बयान हार का सबब बने। भाजपा को अब ये भी भली-भाँती समझ लेने की जरूरत है कि मोदी और अमित शाह को सामने रखकर सभी चुनाव नहीं जीते जा सकते। यदि समय रहते भाजपा ने अपने तौर-तरीकों में बदलाव नहीं किया तो आने वाले समय में पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी यही दुर्गति तय है साथ ही ये भी समझा जाने लगेगा कि भाजपा की उल्टी गिनती शुरू होकर वो भी कांग्रेस के पतन के रास्ते की ओर चल पड़ी है।
राजनीतिक विश्लेषक बिहार चुनावों में भाजपा की हार के कारणों का चाहे जो विश्लेषण करते रहें कि यह विकास की राजनीति पर अस्मिता की राजनीति की जीत है, कि यह आरक्षण प्रणाली की समीक्षा करने का संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान भाजपा को महंगा पड़ गया, कि बिहार के वोटरों ने एक बाहरी व्यक्ति के बजाय एक बिहारी को चुना, या महिला मतदाताओं का रुख भी मोदी के बजाय नीतीश की तरफ रहा वगैरह वगैरह, इन चुनावों के बाद सबसे बड़ा सवाल एक ही है और वो यह कि अब हम किन नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता में देखेंगे हार के बाद और मजबूत होकर उभरने वाले या फिर इनसे टूट जाने वाले नेता? सवाल यही है कि क्या इन चुनावों के बाद मोदी के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचेगी? क्या वे चापलूसों और खुशामदियों से घिर जाएंगे? या फिर वे इस हार से सबक लेते हुए अपनी शासन प्रणाली में सुधार करेंगे और उसे अधिक जनोन्मुखी बनाने की कोशिश करेंगे? इसके बाद असम, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में चुनाव होना हैं। मोदी के सामने न केवल मतदाताओं का भरोसा जीतने की चुनौती है, बल्कि उनका भरोसा कायम रखने का जिम्मा भी है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को भी समझना होगा कि नए मतदाता जोडऩे की कोशिशें करने का तब तक कोई फायदा नहीं है, जब तक कि अपने पुराने और विश्वस्त मतदाताओं को पार्टी से जोड़कर नहीं रखा जाता।
देखा जाए तो अब मोदी को तीन मोर्चों पर दबावों का सामना करना पड़ेगा। लोकप्रियतावादी अब उनसे उम्मीद करेंगे कि अब वे अपने विकास के एजेंडे को दरकिनार कर लोकलुभावन राजनीति करेंगे, उनकी अपनी पार्टी में मौजूद उनके विरोधी बिहार चुनावों में हार को पार्टी के बजाय मोदी के खिलाफ जनादेश बताकर प्रचारित करेंगे और एनडीए के सहयोगी दल अब मौके का लाभ उठाकर केंद्र में अपने लिए ज्यादा बड़ी भूमिका की मांग करेंगे। इतना ही नहीं, मीडिया द्वारा भी अब उन पर इसके लिए खासा दबाव बनाया जाएगा कि वे खुद को संघ परिवार से दूर दिखाते हुए अपनी अधिक उदारवादी छवि निर्मित करें। अगर यूपीए के उदाहरण को ध्यान में रखें तो ये तमाम बातें गलत साबित होंगी। सोनिया व मनमोहन ने बहुत लोकलुभावन नीतियां अपनाई थीं, लेकिन चुनाव में सब धरी की धरी रह गईं। गठबंधन-धर्म का पूरी निष्ठा से निर्वाह करने से भी बात नहीं बनी, उल्टे गठबंधन सहयोगियों ने उन्हें कष्ट ही अधिक दिया। सहयोगियों द्वारा किए गए महाघोटाले अलग कांग्रेस के गले पड़ गए। यही कारण है कि मोदी को अपने विकास और आर्थिक सुधारों के एजेंडे पर अडिग रहना होगा। व्यापार करने की सरलता के मानदंडों पर भारत पहले ही दुनिया में अपनी रैंकिंग सुधार चुका है। अब मोदी को लैंड बिल और जीएम तकनीक जैसे मुद्दों पर अपना समय गंवाने के बजाय संसद से जल्दी से जल्दी जीएसटी बिल पास कराने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। साथ ही उन्हें जनधन योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना जैसी समाज कल्याण की अपनी योजनाओं को बढ़ावा देते हुए आधार कार्यक्रम के मार्फत सबसिडियों से सीधे भुगतान की व्यवस्था कायम करनी चाहिए। संघवाद की भावना को प्रबल करते हुए उन्हें राज्यों के कार्यों में केंद्र के हस्तक्षेप को न्यूनतम करने पर भी अब ध्यान देना चाहिए। यह तो खैर सभी मानते हैं कि थोक में होने वाले भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में मोदी कामयाब रहे हैं, अब उन्हें रोजमर्रा के भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाना होगा, जिसका सामना आमजन को रोज करना पड़ता है। पिछले काफी समय से देश का ध्यान ऐसे मुद्दों पर केंद्रित रहा है, जिनका आम जनजीवन से कोई सरोकार नहीं है। यह प्रधानमंत्री की ही जिम्मेदारी है कि देश का लोकप्रिय विमर्श बेपटरी न हो जाए, साथ ही अनर्गल बातों पर भी रोक लगे।
एकजुट हो चुका विपक्ष भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है
अब जब बिहार विधानसभा चुनावों में उठी तमाम धूल-मिट्टी बैठ गई है और नतीजे सामने आ गए हैं तो यही उपयुक्त समय है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व हार के कारणों पर आत्ममंथन करे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने अब कड़ी चुनौतियां हैं। उन्हें न केवल एकजुट हो चुके विपक्ष का मुकाबला करना होगा, बल्कि खुद उनकी पार्टी, गठबंधन और सहयोगी संगठनों में उनके खिलाफ काम कर रही ताकतों से भी जूझना होगा। साथ ही उन्हें इस बात की भी चिंता करनी होगी कि जिन वादों ने उन्हें 2014 के लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक जीत दिलाई थी, उन्हें पूरा करने की दिशा में अब क्या किया जाए। देश की अर्थव्यवस्था को विकास की डगर पर तेजी से आगे ले जाना अब उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी, जो कि इतनी जिद्दी है कि पटरी पर आने का नाम ही नहीं लेती!
-कुमार विनोद