01-Dec-2015 10:18 AM
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बिहार के दो कद्दावर नेता आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद और मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहली बार राज्य में मिलकर सरकार चलाएंगे। करीब एक दशक बाद आरजेडी प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई है और सबकी निगाहें

अब पूर्व मुख्यमंत्री लालू और नीतीश पर टिकी हैं, जिन्हें आपसी तालमेल से सरकार चलानी है। हालांकि सरकार में लालू का दम देखकर यह साफ कहा जा सकता है कि बिहार में लालू की सत्ता काम करेगी। नीतीश जहां नियमों के पाबंद माने जाते हैं, वहीं लालू की प्राथमिकताएं लोक-लुभावन कदमों की रही हैं। लालू और नीतीश, दोनों अपने कैंडिडेट्स के चयन से लेकर कैंपेन तक में बेहतरीन तालमेल दिखा चुके हैं। हालांकि इससे पहले बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चलाते वक्त नीतीश ने राज्य में दो सत्ता केंद्र बनने की गुंजाइश नहीं छोड़ी थी।
हालांकि नौकरशाहों के एक वर्ग में आशंका अब भी है कि लालू सरकार के रोजमर्रा के कामकाज में दखल दे सकते हैं। एक सीनियर नौकरशाह का कहना है कि किसी भी काम के लिए शीर्ष अधिकारी से सीधे बात करने की उनकी आदत है। नौकरशाहों से बातचीत की उनकी अपनी अलग शैली है। देखना होगा कि नीतीश ने 2005 में सत्ता में आने के बाद कामकाज का जो तरीका शुरू किया था, वह उसे जारी रख पाएंगे या नहीं। कई नौकरशाहों ने कहा कि नीतीश सरकार के पहले दो महीनों में ही पता चल जाएगा कि सरकारी नीतियों पर लालू प्रसाद के साथ उनका कैसा तालमेल बन रहा है। एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, इससे पहले अपनी सरकार चलाने में नीतीश कुमार ने सरकारी अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग में किसी का दखल बर्दाश्त नहीं किया था। दूसरी तरफ, नीचे से ऊपर तक लालू प्रसाद के अपने पसंदीदा अधिकारी हैं।
जाति का फैक्टर भी सरकारी कामकाज में अहम हो सकता है। आरजेडी ने जो 48 यादव कैंडिडेट उतारे थे, उनमें से ज्यादातर जीते हैं। इससे साफ है कि इस बार राज्य विधानसभा में यादवों का दबदबा रहेगा। यादव बिहार का सबसे बड़ा जातिगत समूह बनाते हैं और वे लालू के बड़े समर्थक भी माने जाते हैं। अब देखना यह होगा कि नई सरकार जमीनी स्तर पर यादवों का जलवा बनाने में कैसी भूमिका निभाती है। इस बार आरजेडी चीफ ने यूं भी अपने वफादार लोगों को ही ज्यादा टिकट दिए थे।
लालू प्रसाद यादव के सामाजिक न्याय में अपना परिवार और अपनी जाति सर्वप्रमुख रहे हैं। इस सोच का साया नीतीश कुमार की नई सरकार पर भी दिखता है। मुख्यमंत्री के तुरंत बाद लालू प्रसाद के दोनों बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप यादव ने शपथ ली। विधायक के रूप में दोनों की यह पहली पारी है। लेकिन सियासत में जूनियर होना मंत्रिमंडल में सीनियर दर्जा हासिल करने की उनकी महत्वाकांक्षा के बीच आड़े नहीं आया। अब चूंकि लालू का राष्ट्रीय जनता दल सीट और वोट प्रतिशत दोनों के लिहाज से जनता दल (यूनाइटेड) पर भारी पड़ा, तो नीतीश कुमार के सामने अनेक वरिष्ठ नेताओं पर इन नौसिखिया विधायकों को तरजीह देने के अलावा कोई चारा नहीं रहा होगा।
कहा जाता है कि प्रशासनिक व्यवस्था होने के साथ-साथ हर गठित होने वाले मंत्रिमंडल में एक राजनीतिक संदेश भी छिपा होता है। तो नीतीश कुमार के नए मंत्रिमंडल का पैगाम यह है कि इस पर लालू प्रसाद की गहरी छाया है। दूसरा संदेश है कि बिहार में महागठबंधन की जीत में देशभर की भाजपा-विरोधी पार्टियों ने अपने लिए एक उम्मीद देखी है। तमाम संकेत हैं कि आने वाले दिनों में भाजपा विरोधी वोटों के ध्रुवीकरण का यह मॉडल दूसरे राज्यों में भी अपनाया जाएगा। इसीलिए महागठबंधन के उत्सव में शामिल होने के लिए तमाम विपक्षी नेता एकजुट हुए। उनमें अरविंद केजरीवाल थे, जिन्हें कभी लालू प्रसाद और कांग्रेस के नाम से गहरा गुरेज होता था। मगर पटना में वे राहुल गांधी से गले मिले और लालू प्रसाद से मंच साझा किया। इस तरह भ्रष्टाचार विरोधी स्वच्छ छवि के तकाजे को उन्होंने दफन कर दिया है।
तो पटना में जुटे मजमे से फिर पुष्टि हुई कि अपने देश में राजनीति में सिद्धांत या ऊंचे आदर्शों की अपेक्षाएं निराधार हैं। लालू-नीतीश ने अपनी सियासी दुश्मनी छोड़ी तो उनका गठबंधन चुनाव जीतने में सफल रहा। यह तरीका देशभर में विपक्ष के लिए आदर्श बन गया है। बहरहाल, अब जबकि नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री बन गए हैं, तो बड़ा सवाल है कि नई सोहबत में क्या वे सुशासन बाबू की अपनी छवि बरकरार रख पाएंगे? वे ऐसा कर पाए तो राष्ट्रीय राजनीति में उनके लिए बड़ी संभावनाएं खुल सकती हैं, वरना बिहार में हालिया जीत उनके सियासी करियर का चरमोत्कर्ष साबित होगी।
-कुमार विनोद