गांवों में नहीं है पीने का पानी
04-Apr-2013 08:29 AM 1234911

केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता राज्यमंत्री भरत सिंह माधव सिंह सोलंकी ने 12वीं पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम को और सुचारू बनाने पर जोर दिया गया है। उन्होंने कहा कि योजना में ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति पेयजल आपूर्ति 40 लीटर से बढ़ाकर 55 लीटर करने की बा कही है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 85 प्रतिशत आबादी हैंडपंप, नलों का पानी और ढंके हुए कुएं जैसे सुरक्षित साधनों का इस्तेमाल करती है, लेकिन 15 प्रतिशत आबादी अभी भी नदियों, झरनों और तालाबों आदि का पानी इस्तेमाल करती है, इसके अलावा 22 प्रतिशत ग्रामीण परिवार ऐसे हैं, जिन्हें 500 मीटर से भी अधिक दूरी से पीने का पानी लाना पड़ता है।
सरकार के लिए यह चिंता की बात है कि केवल 30-80 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के लिए ही नलों का पानी उपलब्ध है। बिहार, झारखंड, असम, उड़ीसा और मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों में भी नलों से पानी की सप्लाई पूरी आबादी के लिए नहीं है। यह भी सच्चाई है कि ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी के संसाधन भूमिगत जल पर आधारित हैं। कई क्षेत्रों में आरसेनिक, फ्लोराइड आदि जैसे रसायनों के कारण प्रदूषित पानी मिलता है, इसलिए यह जरूरी होता जा रहा है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पाइपों से पीने के साफ पानी की योजना पर ध्यान दिया जाए। बारहवीं योजना में पेयजल की संतोषजनक आपूर्ति सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया है। इस क्षेत्र में हालांकि काफी ज्यादा निवेश किया गया है और जल-आपूर्ति की कई योजनाएं शुरू की गई हैं, लेकिन यह सुनिश्चित करना होगा कि ये योजनाएं कारगर ढंग से चलती रहें। भरत सिंह सोलंकी ने राज्यों से अनुरोध किया कि ग्राम पंचायतों की पेयजल आपूर्ति योजनाओं के लिए यदि कृषि दरों पर संभव न हो, तो कम से कम घरेलू दरों पर बिजली दी जाए। भारत में पानी की उपलब्धता की स्थिति दिनों-दिन विषम होती जा रही है, इसलिए पीने के पानी सहित सभी क्षेत्रों में पानी के कुशल उपयोग पर ध्यान देने की आवश्यकता है, भवन भी इसी के अनुरूप बनाये जाने चाहिए और पानी की कम आवश्यकता वाली प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, पानी को बेकार जाने से रोकने के लिए पुश बटन वाली टोटियां इस्तेमाल की जाएं, वर्षा के पानी का संग्रहण किया जाए और पानी को साफ करके फिर से इस्तेमाल करने की योजनाएं शुरू की जाएं। सोलंकी ने कहा कि पेयजल क्षेत्र के लिए निवेश में काफी बढ़ोतरी की गई है-2002-03 के लगभग 2000 करोड़ रूपये के निवेश के स्थान पर 2012-13 में 10,500 करोड़ रूपये के निवेश की व्यवस्था की गई है।
मध्यप्रदेश में स्थिति भयावह
चंबल संभाग और मध्यप्रदेश के भिंड व मुरैना जिलों में 948 गांव ऐसे हैं जहां का सामाजिक व आर्थिक ताना-बाना जमीन में पड़ रही गहरी-गहरी दरारों के कारण पूरी तरह बिखर चुका है। यहां की जमीन का रिकॉर्ड रख पाना सरकार के वश में नहीं है क्योंकि पता नहीं कौन सी सुबह किसका घर खेत या सड़क बीहड़ की भेंट चढ़ जाए। लगभग 16.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले चंबल संभाग का कोई 20 प्रतिशत हिस्सा बीहड़ का रूप ले चुका है। लगभग ऐसा ही हाल बुंदेलखंड का भी है। बीहड़ केवल जमीन को नहीं खाते हैं, ये सामाजिक ताने-बाने, आर्थिक हालात और मानवीय संवदेनाओं को भी चट करते हैं। चिंतनीय पहलू यह है कि बीहड़ के कटाव यदि इसी गति से बढ़ते रहे तो मध्य भारत के कम से कम एक दर्जन जिलों में भुखमरी और बेरोजगारी का स्थाई बसेरा हो जाएगा। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है और बरसात का पानी नंगी धरती पर सीधा पड़ता है तो मिट्टी बहने लगती है। जमीन समतल न होने के कारण पानी को जहां जगह मिलती है, वह मिट्टी को काटते हुए बहने लगता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं जो आगे चल कर बीहड़ का रूप ले लेती हैं। समस्या यह है कि एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वह और गहरा होता चला जाता है। चंबल क्षेत्र में इस तरह के भूक्षरण के कारण हर साल लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है।
चंबल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक नदियों के किनारे के उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात का इलाका इससे सर्वाधिक प्रभावित है। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने 1971 में चेताया था कि देश में 30 लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन बीहड़ में बदल चुकी है, जो कुल क्षेत्रफल का 1.12 प्रतिशत है। लेकिन सरकार बेपरवाह रही। देखा जाए तो सबसे विपन्न माने जाने वाले बुंदेलखंड और चंबल संभाग भूमि-बिखराव की सर्वाधिक कीमत चुका रहे हैं। बुंदेलखंड के समूचे पठारी इलाके में बड़ी नदियां तो गिनी-चुनी हैं, लेकिन उनकी सहायक नदियां व बरसाती नालों का जाल-सा बिछा है। दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर और पन्ना जिले में चिकनी, काली और लाल हल्की मिट्टी पाई जाती है। दमोह व सागर जिलों की मिट्टी काली है। यह मिट्टी खेती के लिहाज से तो उपजाऊ  है, लेकिन पानी की धार में बड़ी तेजी से बहती है। बुंदेलखंड, गंगा-यमुना जल-क्षेत्र के तहत आता है। यहां की मुख्य नदियां हैं- बीला, तरेन, धसान, सुनारी, श्यामरी, ब्यारमा, जामनी, केन, पहुंज और काली सिंध। इनके साथ अनगिनत छोटी नदियां और नाले आ कर मिलते हैं। सरकारी रिकॉर्ड गवाह है कि बुंदेलखंड के छह जिलों की लगभग 1.43 लाख हेक्टेयर जमीन बीहड़ में बदल चुकी है। यहां जमीन का कटाव 0.12 प्रतिशत प्रति वर्ष है और यदि यही रफ्तार रही तो आने वाले 200 सालों में यहां खेत बचेंगे ही नहीं। यहां बीहड़ की सबसे गंभीर समया छतरपुर और दतिया जिले में हैं। चंबल में बीहड़ों का विस्तार सामाजिक और आर्थिक संकटों की जननी बन गया है। इस कृषि-प्रधान क्षेत्र में जब जमीन का टोटा हो रहा है तो एक-एक इंच जमीन के पीछे गरदन-काट होना लाजिमी है।

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